क्या सचमुच असफल रहा अन्ना आन्दोलन
डॉ. राजेश कपूर
अन्ना आन्दोलन की सबसे बड़ी विजय जनमत को जगाने की है। 96त्न जनमत का समर्थन एक अभूतपूर्व सफलता है जिसे नकारने के षड्यंत्र मीडिया पूरी ताकत से कर रहा है। देश की सबसे बड़ी त्रासदी है कि जनता सोई हुई है और सबसे बड़ी सफलता है इस सोये जनमत को जगाना। इसमें अन्ना शत प्रतिशत सफल रहे हैं।
जहां तक बात है लोकपाल बिल की तो अन्ना के आन्दोलन के प्रभाव में अपराधी नेता और उनकी सरकार अपनी ही कब्र खोदने वाले कानून बनाएंगे, अपने भ्रष्ट सहयोगी, साथियों, सांझेदारों के विरुद्ध कार्यवाही करेगे; इसकी आशा यदि किसी ने की तो वह बहुत भोला है और या फिर इन लोगों की फितरत और देश के हालात को ठीक से समझता नहीं। इन लोगों को सुधरना या बदलना तो है ही नहीं। रावन, दुर्योधन और कंस कभी नहीं सुधरते, बदलते।समझने की बात है कि इस आन्दोलन के अनेक पड़ाव हैं जिनमें से कुछ पडाव पार हो चुके। अगले पडाव बुद्धिमत्ता और धैर्य के साथ पार करने हैं। सदा सबसे बड़ा काम तो जनमत को जगाने का होता है। वह ठीक से हो रहा है। दुष्ट सत्ता का काम होता है जन मत को सुलाए रखना, भ्रमित रखना। और सुधारकों व क्रांतिकारियों का काम होता है जनमत को जागृत करना। इस उद्देश्य में अन्ना का आन्दोलन आशा से बहुत अधिक सफल रहा है। 96 समर्थन आश्चर्यजनक और उत्साह को बढाने वाला है। जनमत के उत्साह को तोडऩे के कुटिल उद्देश्य से यह सफ़ेद झूठ कहा जा रहा है कि अन्ना आन्दोलन भटक गया, असफल हो गया। सारा मीडिया और नेता अन्ना आन्दोलन के असफल होने की घोषणा एक स्वर से, जितनी जोर से और चिल्ला-चिल्ला कर रहे हैं, उससे उनकी घबराहट और बौखलाहट स्पष्ट उजागर हो जाती है।
क्या ये सब इस बात से घबराए हुए नहीं हैं कि सोनिया सरकार और भ्रष्ट नेताओं से अति की सीमा तक दुखी जनता अन्ना के साथ न होजाए ओर एक नया विकल्प न खडा हो जाए ? ऐसा हुआ तो इन दुष्टों का अंत तो सुनिश्चित हो जाएगा। इसी लिए ये पूरी ताकत लगा कर यह साबित करने में लगे हुए हैं कि अन्ना का आन्दोलन असफल हो गया है। यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना और उनके साथियों ने देश की जनता के साथ धोखा किया है; क्यूंकि वे तो आमरण अनशन पर बैठे थे पर सरकार द्वारा मांगे पूरी करवाए बिना ही अनशन तोड़ दिया। अर्थात उन्हें अनशन पर रहते हुए मर जाना चाहिए था। ऐसा न करके उन्होंने सोनिया सरकार के नेताओं की आशाओं पर पानी फेर दिया। हम सबने इस सरकार की संवेदन हीनता देखी है, नौं दिन के अनशन के बीच एक भी प्रयास सरकार की ओर से संपर्क करने का नहीं हुआ। कोई विपक्षी दल वाले भी नहीं आये। सभी अपनी राजनीति में अन्ना की सेंध लगने की आशंका के चलते दूरी बनाए रहे, उपेक्षा करते रहे। राजनैतिक दलों और बाबा रामदेव के प्रति पिछली बार का अन्ना का उपेक्षा पूर्ण व्यवहार भी इसमें एक कारण रहा जिसके कुछ लाभ और हानि दोनों हुए। केंद्र सरकार का व्यवहार तो क्रूर अंग्रेजी सरकार से भी बुरा रहा। अनशनकारी मरें तो मरें, सरकार की बला से। इतनी ढिठाई और क्रूरता ? आखिर सत्याग्रह व अनशन का उद्देश्य तो इतना ही होता है कि सोई सरकार को जगाना, अपने पक्ष में जनमत बनाना, जनमत का जायज़ा लेना। विषय विशेष के ऊपर बहस शुरू करवानी। पर ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें लोकमत की परवाह ही नहीं की जाती ? चुनाव क्या जीत गए देश की जनता को जैसे मर्जी, जितना मर्जी लूटने का अधिकार पा गए। कोई जवाबदेही नहीं, कोई जिम्मेदारी नहीं? ये वही सरकार और नेता हैं जो पिछले आन्दोलन के समय अन्ना को चुनौती देते रहे कि दम है तो चुनाव लड़ो और अपनी बात संसद में आकर कहो। आज साबित करने में लगे हुए हैं कि अन्ना ने भारी भूल करदी, अपराध कर दिया है राजनैतिक दल के गठन की घोषणा करके। क्या यह गैर कानूनी है, अनैतिक कार्य है? क्या देश की राजनीति चलाने का एकाधिकार, लाइसेंस केवल चोर व दुष्टों के पास है ? संसद के निर्णयों के विरोध और जनमत जगाने के प्रयासों को एक अपराध सिद्ध करने, जनमत को भ्रमित करने के कुटिल प्रयास पिछली बार भी इस मीडिया और इस सरकार के कुटिल नेताओं द्वारा कम नहीं हुए थे । पर जनता इनके झांसे में नहीं आयी. उलटे लोगों का असंतोष और अधिक बढ़ता गया जिसकी अभिव्यक्ती 96त्न ने अन्ना के पक्ष में अपना मत देकर कर दी है. अब ये सोनिया सरकार के घाघ नेता ( विपक्षी दल भी ) कह रहे हैं कि राजनैतिक दल चलाना और चुनाव लडऩा कोई आसान बात नहीं है. उनके कहने का अर्थ यही है न कि चुनाव व राजनीति में चलने वाले दुष्टतापूर्ण षड्यंत्र और हथकंडे अन्ना जैसे सीधे लोगों के बस की बात नहीं. वे शायद यह भी कह रहे हैं।