लेखक -स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती
प्रेषक- #डॉविवेकआर्य
स्रोत्र – सार्वदेशिक मासिक पत्रिका, सितम्बर 1942
(1.) जिन दिनों पंजाब केसरी श्री लाला लाजपत राय जी ब्रह्मदेश को निर्वासित किये गए थे प्रायः उन्हीं दिनों श्रीमान महात्मा मुन्शीराम जी की अनुमति से हरियाणा प्रान्त के त्रसित आर्यों के बीच प्रचार करने के लिये मैं रोहतक आया था। थोड़े दिनों के बाद ही श्री भक्त जी के साथ मेरा परिचय हुआ और श्री भक्त जी मुझे बारम्बार अपने जन्मस्थान ग्राम माहरा (जिला रोहतक) में ले गए और वैदिक धर्म का प्रचार करवाया। धीरे धीरे धर्म के भाव उनके मन में इतना जम गया कि वह वैदिक धर्म के प्रचार के लिए व्याकुल होने लगे।
(2.) जिला रोहतक में बवाना एक ग्राम है। जब कि श्री भक्त जी वहां माल विभाग की ओर से पटवारी का काम करते थे। समालखा (जिला करनाल) के लोग उनके पास पहुंचे और समालखा में गोघात के लिए हत्था ( जबह खाना) खुलने वाला है। इस बात को बड़े दुःख के साथ वर्णन किया। श्री भक्त जी ने तुरंत ही अपने विभाग के अफसर से छुट्टी ले ली और उक्त जबहखाना के विरुद्ध घूम-घूमकर आंदोलन करने लगे। नियत तिथि पर कई सहस्त्र जनसमूह साथ लेकर समालखा पहुंचे और विरोधियों के हृदय में भय छा गया । श्रीमान डिपुटी कमिश्नर साहब करनाल ने बलवे की सम्भावना देख आज्ञा दी की समालखा में हत्था नहीं खुलेगा और कुपित जन समुदाय ने शान्त हो अपने २ ग्रामों को प्रस्थान किया। श्री भक्त जी गोमाता के पुजारी थे और यथा सम्भव उसकी रक्षा के लिये सदा तत्पर रहते थे।
(3.) कुछ दिनों बाद उनके हृदय में पश्चाताप की आग बलने लगी और उन्होंने माल विभाग की नौकरी छोड़ दी और इस विभाग में कार्य करते हुए जो रिश्वत इन्होंने ली थी उसे या करने के लिये अपनी जमीन बेच दी और प्रत्येक रिश्वत देने वाले की सेवा में उपस्थित होकर ग्राम के पंचों के सम्मुख रिश्वत का रुपया वापस कर दिया। हिसाब लगाने पर मालूम हुआ कि लगभग साढ़े चार हजार 4500) रूपये रिश्वत के उन्होंने वापिस किये।
(4.) अब उन्होंने समझा कि वह वैदिक धर्म की सेवा कर सकते हैं। इस कारण उन्ह ने प्रस्ताव किया कि इस प्रान्त में एक उपदेशक विद्यालय खोलकर वेद धर्म के प्रचारक तयार किये जायें । मैंनै सम्मति दी कि गुरुकुल खोलिये और उसके स्नातकों के द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार कराये। तद्नुसार श्री भक्त जी ने 23 मार्च सन् 1920 को गुरुकुल भैंसवाल की स्थापना की और इसके संचालन के लिये तप करने लगे जिस दिन इस गुरुकुल की स्थापना हुई थी उस दिन लगभग सहस्र रुपये 20000 ) नक़द दान में आए थे ।
(5.) गुरुकुलार्थ धन संग्रह का काम करते हुए जिस ग्राम में भक्त जी पहुँचते थे वहां महर्षि दयानन्द का सन्देश सुनाते हुए विशेष रूप से यह यत्न करते थे कि उस ग्राम के परस्पर के झगड़े मिट जावें, पंचायत की रीति से उनके मामले मुक़दमे समाप्त हो जावें, रिश्वत देने की रीति मिट जावे। इन कार्यों में उन्हें प्रायः आशातीत सफलताएँ प्राप्त होती थीं। ग्रामीणों को उपदेश देते हुए प्रायः कहा करते थे कि “जुल्म करना पाप है और जुल्म को सहना महापाप है।” श्री भक्त जी के प्रचार से रिश्वत देना लोगों ने बन्द करना आरम्भ किया और रिश्वतखोर भक्त जी से मन ही मन चिढ़ने लगे ।
(6.) अब भक्त जी का काम अधिक विस्तृत होने लगा। मूले ( मुसलमान ) जाटों की शुद्धि का काम उन्होंने आरम्भ किया। जिला गुड़गांव के क़स्बा होडल के पास उन्होंने उक्त शुद्धि के लिये लोगों को समझाया परन्तु लोग न माने, तब अगस्त 1926 में लोगों पर दबाव डालने के लिये उन्होंने अनशन व्रत धारण किया अर्थात् अठारह दिनों तक सिवाय जल पीने के और कुछ भी नहीं खाया । इस व्रत के कारण लोगों के हृदय पिघलने लगे और भक्त जी का व्रत खुलवाने के लिये बड़े बड़े लोग उनकी सेवा में उपस्थित हुए और श्री भक्त जी को विश्वास दिलाया कि शुद्धि हो जावेगी। जिस पर श्री भक्त जी ने उपवास तोड़ा परन्तु बड़े लोग भी अपने वचनों की पालना न कर सके और उस समय वहां शुद्धि नहीं हुई।
(7.) अपने भ्रमण काल में नारी जाति की दुर्दशा उन्होंने देखी और संकल्प किया कि यथाशक्ति इनके उद्धार के लिये भी यत्न करेंगे। तदनुसार सन् 1926 में ग्राम खानपुर ( जिला रोहतक) के जंगल में कन्या गुरुकुल की स्थापना की जहां कन्याएँ आर्य सिद्धान्तों की शिक्षा पा रही हैं। अखिल भारतीय आर्य युवक संघ की परीक्षा सिद्धान्त शास्त्रिणी में उक्त कन्या गुरुकुल की तीन छात्राएँ उत्तीर्ण हो चुकी हैं और कन्या गुरुकुल में शिक्षा देती हुई अवकाश काल में कई ब्रह्मचारियों को साथ लिए हुए वैदिक धर्म के प्रचार में संलग्न रहती है। उक्त परीक्षोत्तीर्ण कन्याओं में श्री भक्त जी की दो पुत्रियां श्रीमती सुभाषिणी जी तथा श्रीमती गुणवती जी भी हैं जो उक्त कन्या गुरुकुल में अवैतनिक मुख्याधिछात्री तथा अवैतनिक आचार्या का काम इन दिनों कर रही हैं ।
(8.) एक अबला की पुकार – सूबा दिल्ली में सरसा जांटी एक ग्राम है। वहां की एक हिन्दू अबला रोती हुई श्री भक्त जी के पास गुरुकुल भैंसवाल पहुँची और कहने लगी कि उसकी एक कन्या दश ग्यारह वर्ष की लापता है, बहुत खोजी गई परन्तु नहीं मिली, भक्तजी की कृपा हो तो वह मिले और मेरा व्याकुल हृदय शान्त हो । उसके विलाप से भक्त जी का हृदय विशेष दुःखी हुआ और उस खोई हुई कन्या की खोज में वह चल पड़े। विशेष जाँच के बाद पता लगा कि कन्या मुसलमान रांघड़ों के गांव गूगाहेड़ी में है। श्री भक्त जी ने जाटों के गांव निदाणा में पंचायत की और गूगाहेड़ी बालों से कन्या मांगी। गूगाहेड़ी वालों ने कहा कि उनके यहां कन्या नहीं है। निदाणा वालों के पास कोई ऐसा दृढ़ प्रमाण नहीं था जिससे वे सिद्ध करते कि गूगाहेड़ी वालों के पास ही कन्या है । तथापि न मालूम किस प्रकार और कहां से कन्या श्री भक्त जी के पास रात्रि समय पहुंचा दी गई और श्री भक्त जी ने रोती हुई माता की गोद में उसकी पुत्री को जा बिठाया । “श्री भक्त जी निबलों के सहायक हैं, अत्याचारियों के अत्याचार दूर करते हैं” यह किम्बदन्ती चारों ओर फैल गई और दुखी लोग त्राण पाने के लिये श्री भक्त जी की शरण लेने लगे ।
(9.) धीरे धीरे सन् 1939 ई० का कठिन समय भी आन पहुंचा। निजाम साहब हैदराबाद के राज्य में आर्यों पर अत्याचार होने लगे जिनके समाचार श्रवण कर बाहर के आर्य सत्याग्रह के लिए कटिबद्ध हुए। रोहतक के सत्याग्रहियों के अग्रणी श्री भक्त फूलसिंह जी हैदराबाद की यात्रा के लिये तैयार हुए परन्तु उनके साथ काम करने वाले सज्जनों ने (विशेषकर सत्याग्रह की स्पिरिट फूंकने वाले आये भजनोपदेशकों ने) श्री भक्त जी को रोक लिया और वह हैदराबाद न जाकर लगातार सत्याग्रहियों के भर्ती करने में तत्पर हुए आर्य जगत् को यह बात मालूम है कि श्री भक्तजी और उनके सहायक सज्जनों ( विशेषकर आर्य भजनोपदेशकों) के पुरुषार्थ से इस ओर से लगभग 700 सत्याग्रही हैद्राबाद के लिये रवाना हुए थे, और बहुत से सत्याग्रही जाने को तैयार थे।
13 मई 1939 को जब कि मैं ( ब्रह्मानन्द सरस्वती ) अपने एक सौ सत्याग्रहियों के साथ हैदराबाद को रवाना होने वाला था, श्री भक्त फूलसिंह जी गुरुकुल भैंसवाल के लगभग तीस ब्रह्मचारियों तथा कार्य कर्ताओं के साथ चार सौ के रुपये लिए हुए मुझे मान-पत्र ( ऐड्रेस ) देने आ रहे थे। रोहतक की सड़क जो बड़ी मस्जिद के पास से गुजरती है वहाँ श्री भक्त जी की मंडली भजन गाती हुई जब आर्य मन्दिर की ओर आ रही थी तो कतिपय मुसलमान उक्त मण्डली पर लाठियाँ वर्षाने लगे जिससे गुरुकुल के उपप्रधान हरद्वारी सिंह जी का सर फूट गया गुरुकुल के कोषाध्यक्ष श्री स्वरूप लाल जी का हाथ टूट गया. और भी कइयों को कठिन चोट आई, श्री भक्त जी भी अनेक लाठियां लगीं। समाज में पहुँचाये जाने के बाद सभी जख्मी सरकारी हस्पताल में पहुंचाए गए। हस्पताल में जख्मियों ने मुझ से कहा कि वह लोग तो हैदराबाद जाने के लिए आए थे। मैंने उत्तर दिया कि बलिदान का आधा पुण्य आप लोगों को प्राप्त हो गया इत्यादि । मुक़दमा हुआ परन्तु मुसलमान सरदारों के माफ़ी माँगने पर श्री भक्त जी ने माफ़ी दे दी और किसी के विरुद्ध भी कुछ नहीं किया। श्री भक्त जी का कैसा विशाल हृदय था। घोर अपराधी को भी क्षमा माँगने पर क्षमा प्रदान करते थे ।
(10.) हैदराबाद सत्याग्रह का काम समाप्त करके श्री भक्त जी हरिजनों की शुद्धि की ओर झुके और अनेक स्थानों में कार्य करते हुए दो सितम्बर 1940 को मुसलमान राँगड़ों के ग्राम मोठ ( जिला हिसार) में पहुंचे जहाँ चमारों के खोदे हुए कुएँ को मुसलमानों ने मिट्टी आदि डाल कर बन्द कर दिया था। श्री भक्त जी एक मुसलमान के दरवाजे पर जा बैठे और उक्त कुआँ खोलने के लिए मुसलमानों से प्रार्थना करने लगे जब उन्हें तीन दिन बिना खाए पीये हो गए और दरवाजे से न हटे तब दस बारह मुसलमान उन्हें पकड़ कर ले चले, नाना विधि से उनकी बेइज्जती करते हुए उन्हें मार डालने की धमकी देते हुए मोठ गाँव से प्रायः एक मील के फासले पर उन्हें छोड़ आये। भूखे प्यासे भक्त जी चलने में असमर्थ थे। कुछ देर तो वहीं बैठे रहे फिर एक दयालु मुसलमान और एक वणिक सज्जन की सहायता से लगभग दो मील चलकर हिन्दुओं के पास में आए और वहाँ जल पिया। वहाँ से श्री भक्त जी नारनोंद ग्राम में और वहाँ के चौपाल में छः सितम्बर को व्रत किया कि जब तक मोठ के चमारों का बंद किया हुआ कच्चा कुआँ न खुल जाये और वह पक्का न बन जाये और चमार उससे वे रोक टोक पानी न भरने लगे तब तक सिवाय जल पीने के वह कुछ भी खाएंगे। इस व्रत की खबर जब भैंसवालादि स्थानों में पहुंची तो भक्त जी के सैकड़ों प्रेमी नारनोंद आ गए। प्रतिदिन मेला सा होने लगा। नारनोंद के मुसलमान सब इंस्पेक्टर श्री भक्त जी के प्रेमी थे। उन्होंने मोठ के अपराधी मुसलमानों को लाकर श्री भक्त जी के पैरों पर गिराया और श्री भक्त जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। उक्त मुसलमान यह भी कह गए ये कि मोठ के चमारों के कुएँ को अब वह बनने देंगे। परन्तु कुवाँ न बना। जब सत्रह अठारह दिन व्यतीत हो गए और लोगों को श्री भक्त जी के प्राणों की चिन्ता सताने लगी तब श्री सेठ युगलकिशोर जी बिड़ला नारनोंद पहुंचे और श्री भक्त जी के चरण पकड़ लिये और कहा कि एक नहीं, दश कुएँ हम चमारों के लिये बनवा देते हैं आप उपवास छोड़िए। श्री भक्त जी ने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि चमारों के प्रति जो लोगों की घृणा है उसे हम मिटाना चाहते हैं, लोगों की हठ जो चमारों पर अत्याचार करने का है उसे हम दूर करना चाहते हैं। जब तक यह दूर न हो कुंवों के बनने से भी कार्य सिद्ध न होगा। श्री बिड़ला जी निराश हो चले गए। फिर भी सर छाजूराम जी साहब कलकत्ता, श्री महात्मा गाँधी जी महाराज, श्री सर छोटूराम साहब मिनिस्टर लाहौर के तार आए कि श्री भक्त जी को उपवास छोड़ना चाहिए और श्री सर छोटूराम साहब ने श्री भक्त जी के प्राण बचाने के लिये अन्य भी अनेक उद्योग किए। श्री महात्मा गांधीजी महाराज के प्रमुख कार्यकर्ता श्री वियोगी हरि जी आए और उन्होंने भी श्री भक्त जी से बहुत प्रार्थना की परन्तु श्री भक्त जी ने उपवास न तोड़ा । फिर श्री डिपुटी कमिश्नर साहब हिसार ने पुलिस की एक गारद मोठ में भेजी और अनेक प्रतिष्ठित मुसलमानों ने मोठ के मुसलमानों को समझाया तब चमारों का उक्त कुंआं तैयार हुआ। चमारों ने उससे पानी भरा और भक्त जी ने उस कुएँ का जल पान कर अपना उपवास ता० 26 सितम्बर 1940 को अर्थात् चौबीसवें दिन तोड़ा। श्री भक्त जी हरिजनों को छाती से लगाने के लिये लालायित रहते थे।
(11.) हरिजन सम्बन्धी नारनोंद के व्रत से श्री भक्त जी का कृशित शरीर अभी पूर्ण पुष्ट भी नहीं हुआ था जब कि उन्हें नवाब साहब लोहारू की राजधानी में वहां के आर्यसमाज के उत्सव समय जाना पड़ा। 26 मार्च 1941 को जब वहाँ नगर कीर्तन हो रहा था श्री स्वा० स्वतन्त्रानंद जी तथा श्री भक्त फूलसिंह जी पर अधिक लाठियां वर्षी। श्री भक्त जी के शीश से मुख से रक्त बहने लगा, पसली की एक हड्डी टूट गई, चौबीस घण्टे तक भक्त जी बेहोश रहे। फिर जागे और इरविन हस्पताल दिल्ली के डाक्टरों की चिकित्सा से बच गये।
(12) परन्तु इतनी दुर्घटनाओं से बचे हुए महात्मा, गत चौदह अगस्त 1942 को रात्रि समय लगभग 6 बजे स्थान कन्या गुरुकुल खानपुर में घातकों की गोलियों से अपनी उनसठ वर्ष की आयु में मारे गये। हरियाणा प्रान्त अपने अपूर्व प्रेमी के वियोग के कारण विलाप कर रहा है। श्री भक्त फूलसिंह जी वानप्रस्थी मेरे प्रिय शिष्य थे। पूज्यपाद श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज मेरेगुरु थे। दोनों विशेष धर्म प्रेम के कारण बलिदान हो गए। न मालूम मैं अभागा उस पुनीत प्रसाद से वंचित क्यों हूँ ?
आर्यों का सेवक -ब्रह्मानन्द सरस्वती ।
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