समाज के समक्ष प्रमुख चुनौती समाज की उन्नति के लिए स्वास्थ्य अनिवार्य है। स्वस्थ समाज में प्रति व्यक्ति आय स्वत: बढ़ जाती है। हमारा देश विकासशील है। देश का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी में जीवन यापन कर रहा है। स्वास्थ्य के अधिकार के कई अंग हैं जिसमें पोषण, स्वच्छता, जल और पर्यावरण और स्वास्थ्य की देखभाल का अधिकार शामिल है। राज्य की नीति के निर्देशालय सिद्घांत के अनुच्छेद 39(ई) और अनुच्छेद 21 में प्रत्येक मनुष्य को स्वास्थ्य का अधिकार प्रदान करने की परिकल्पना है।
मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषण, 1948 के अनुच्छेद 25 के अनुसार अपने तथा अपने परिवार की तंदुरूस्ती तथा स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त जीवन स्तर का अधिकार सभी को है जिसमें भोजन वस्त्र धारण, आवास तथा चिकित्सा सुविधा, बीमार और अशक्त होने पर सुरक्षा का अधिकार भी शामिल है। 1978 में यूनीसेफ तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा आयोजित प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित अल्मा अटा घोषणा में भी यही बात कही गयी थी। सम्मेलन में पुन: पुष्टि की गई कि स्वास्थ्य मानसिक तथा शारीरिक तंदुरूस्ती की अवस्था है और यह केवल रोग या अशक्तता का न होना ही नही है। सर्वोत्तम स्वास्थ्य प्राप्त करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। जिसे कार्यान्वित करने का कार्य स्वास्थ्य क्षेत्र के साथ साथ कई अन्य सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों का भी है। आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविंदा का अनुच्छेद 12 प्रत्येक स्वास्थ्य प्राप्त करने का अधिकार देता है। आज उच्चतम न्यायालय के साथ साथ समय समय पर अन्य भी स्वास्थ्य की देखभाल के लिए आवाज उठाते हैं। लेकिन अधिकतर लोग इससे वंचित रह जाते हैं। बजट में स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रावधान किये जाते हैं फिर भी अन्य विकासशील देशों की तुलना में हमारे देश में पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं नही हैं। आज हम स्वास्थ्य सेवाएं हासिल नही कर पाते दवाईयां नही खरीद पाते और महिलाओं, बच्चों, जनजातियों, गरीबों, दलितों आदि की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा नही कर पाते। स्वास्थ्य सेवा में कमी का कारण तकनीकी बाधा नही, बल्कि गरीबी और नगण्य स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली है। इसीलिए अधिसंख्य लोग स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार पर उपभोग नही कर पाते। यह स्थिति देश समाज के समक्ष प्रमुख चुनौती है। निम्नलिखित बिंदुओं में देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में बदहाली की तस्वीर देखी जा सकती है।
महिला/बाल मृत्युदर
भारत में अन्य देशों की अपेक्षा महिलाओं और बच्चों की मृत्युदर काफी अधिक है जिससे यह पता चलता है कि यहां स्वास्थ्य की देखभाल की स्थिति अच्छी नही है। भारत में प्रसव के दौरान मातृ-मृत्यु पर (एमएमआर)550-570 है। इसका मतलब है 37 में से एक महिला अपने जीवन के इस खतरे को झेलती है। चीन और श्रीलंका से यह एमएमआर 4 से 5 गुणा अधिक है। भारत में एक तिहाई से भी कम महिलाओं को प्रसवपूर्व पूरी देखभाल प्राप्त होती है। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्र में केवल एक तिहाई महिलाओं का ही सुरक्षित प्रसव होता है। दूसरी ओर शहरी क्षेत्रों में निजी अस्पताल फल-फूल रहे हैं जो अनावश्यक तौर सिजेरियन ऑपरेशन करते हैं।
2.कुपोषण
देश में सफल हरि क्रांति, खाद्यान्न के पर्याप्त भंडार के बावजूद पांच वर्ष से कम आयु के 53 प्रतिशत बच्चे (लगभग छह करोड़) कुपोषित हैं। यहां कम वजन के बच्चों का जन्म देना भी आम बात है। भारत में यह यह 33 प्रतिशत है जबकि दक्षिण कोरिया और चीन में 9 प्रतिशत थाईलैंड में 6 प्रतिशत और इंडोनेशिया में 8 प्रतिशत।
देश में कुपोषण के कारण होने वाली मौतें काफी अधिक हैं। इनके मुख्य शिकार बच्चे, गर्भवती महिलाएं बूढ़े व्यक्ति और कमजोर वर्गों की महिलाएं हैं। इनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए न केवल अच्छे पौष्टिक भोजन की अपितु अपेक्षित दवा की भी आवश्यकता होती है।
3.महिलाओं में रक्ताल्पता
देश की महिलाएं खासकर ग्रामीण महिलाओं, के स्वास्थ्य की उचित देखभाल नही हो पाती और उन्हें पौष्टिक भोजन भी नही मिल पाता। काफी महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रसित है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 15-49 वर्ष के आयु वर्ग में 52 प्रतिशत विवाहित महिलाएं रक्ताल्पता से पीडि़त हैं। शहरी क्षेत्रों में यह 46 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 54 प्रतिशत है। यह अनुपात केरल में 23 प्रतिशत और अरूणाचल प्रदेश में 86 प्रतिशत है। तीन वर्श से कम आयु के बच्चों में रक्ताल्पता इससे भी अधिक है। तीन वर्ष से कम आयु 73 प्रतिशत बच्चे रक्ताल्पता के शिकार हैं। शहरी क्षेत्रों में 71 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 75 प्रतिशत।
बचपन में कुपोषण तथा माताओं के रक्ताल्पता से पीडि़त होने के कारण बच्चों के तंत्रिका तंत्र पर असर पड़ता है। जो कि उनकी मानसिक क्षमता को प्रभावित करता है। माताओं की मृत्यु दर अधिक होने के कई कारण हैं-जैसे असुरक्षित प्रजनन, स्वास्थ्य देखभाल में कमी, आपातिक प्रसूति सेवा में कमी, गर्भावस्था के दौरान महिला के स्वास्थ्य तथा पोषण पर उचित उचित ध्यान न देना तथा निर्णय लेने और अपनी पसंद के कुछ करने के लिए महिलाओं में स्वतंत्रता की कमी।
हाल ही में किये गये एनएफएचएस आंकड़ों (आईआईपीएस 2002) के अनुसार 1 से 5 वर्ष की आयु में बाल मृत्यु दर निम्न जीवन स्तर के बच्चों में उच्च जीवन स्तर वाले बच्चों से 3.9 गुणा अधिक है। भारत में प्रतिवर्ष एक से 5 वर्ष की आयु के बीस लाख बच्चे, खासकर गरीब तबके के ऐसी बीमारियों के कारण मरते हैं। जिनकी रोकथाम की जा सकती है। यदि पूरे देश में बाल स्वास्थ्य का अच्छा स्तर कायम करना है जैसे कि केरल का है, तो प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की होने वाली 16 लाख मौतों को रोकना होगा। इसका मतलब है प्रतिदिन 4380 मौतें टालनी होगी और हर मिनट में 3 बच्चों की होने वाली मौतों को रोकना होगा।
4.स्वच्छ जल
इसके अलावा अधिसंख्य लोगों के लिए साफ पानी की कमी तथा साफ सफाई का भी अभाव है। ऐसा अधिकतर शहरी इलाकों की झोंपड़पट्टियों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में है। ऐसा देखने में आया है कि अनेक अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय कानूनी निर्देशों के बाद भी और स्वतंत्रता के लगभग छह दशक के बावजूद जरूरतमंद व्यक्तियों को राहत उपलब्ध नही हो पाती। वित्त तथा नीति के समर्थन के बगैर कानूनी प्रावधान अप्रभावी होते हैं।
5.दुर्घटनाएं
यहां यह बताना उचित होगा कि विकास शील देशों में दुर्घटना के कारण मौतें और शारीरिक विकृतियां भी अधिक होती हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्टों से पता चलता है कि भारत में हर दूसरे मिनट एक दुर्घटना होती है। 15 से 40 वर्ष के पुरूष दुर्घटना अभिघात से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। अनुमान है कि भारत के विभिन्न शहरों में चोट के कारण लगभग 4 लाख व्यक्ति अपनी जिंदगी गंवा देते हैं और 75 लाख लोग अस्पताल में भर्ती होते हैं। 35 लाख लोगों को आपात स्थिति में देखभाल की जरूरत पड़ती है। चिकित्सा, शल्य चिकित्सा तथा बाल आपात ऐसी मुख्य घटनाएं हैं जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
6.एच.आई.वी/एड्स
एच.आई.वी/एड्स रोगियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हाल ही में किये गये सर्वेक्षण से पता चला है कि कुछ ही वर्षों में भारत में रोगियों की संख्या अफ्रीका की आज की रोगियों की संख्या से अधिक हो जाएगी। इस रोग के बारे में जानकारी गांवों से शहरों तक झोपड़ी से लेकर महलों तक रहने वाले सभी लोगों को प्रदान किये जाने की जरूरत है। जब तक शीघ्रता से कार्रवाई नही की जाती, यह समाज के लिए एक खतरा बना रहेगा।
7.जनजाति और कमजोर वर्ग
भारत की जनसंख्या में जनजातीय लोग, विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों तथा जंगलों के आसपास जो दुर्गम क्षेत्रों में रहते हैं, केवल 8 प्रतिशत है लेकिन देश में मलेरिया से होने वाली 60 प्रतिशत मौतें यही होती हैं। उनहें स्वास्थ्य की देखभाल के बारे में न तो कोई जानकारी होती है न उनकी इस तक पहुंच। वे कुपोषण के साथ साथ महामारी के भी शिकार होते हैं।
अत: उनके लिए चल अस्पताल की एक योजना शुरू की जाए जिसमें अपेक्षित पराचिकित्सा सुविधाएं, संरचनात्मक ढांचा आदि हो जो महीने में कम से कम एक बार इन गांवों में जाए, उन्हें स्वास्थ्य सेवा प्रदान करे और वहां उपलब्ध भोजन की पौष्टिकता तथा पर्यावरण, साफ सफाई और अन्य जरूरतों के बारे में बताए ताकि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो सके।
वास्तविकता यह है कि सामाजिक आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग जैसे महिलाएं, गरीब, दलित, आदिवासी और भूमिहीन बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से भी वंचित हैं। चूंकि स्वास्थ्य की देखभाल एक मौलिक अधिकार है अत: इसे प्रदान करने के लिए अच्छे ढंग से उपाय किये जाने चाहिए।
8.अस्पतालों में रिश्वत/भ्रष्टाचार
रोगियों तथा उनके परिचरों से अक्सर ये शिकायतें मिलती हैं कि सरकारी अस्पतालों में हर स्तर पर रिश्वत देनी पड़ती है। समाचार पत्रों में भी अस्पताल के कर्मचारियों में व्याप्त रिश्वतखोरी की खबरें छपती रहती हैं। माना रिश्वतखोरी उनका अधिकार है।
इसको रोकने के लिए अस्पताल के उच्च अधिकारियों तथा चिकित्सा सेवा निर्देशालय को तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए अन्यथा नि:शुल्क स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने का विचार अर्थहीन बन जाएगा और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। इसलिए प्रत्येक राज्य के चिकित्सा सेवा निर्देशालय में एक सतर्कता विभाग स्थापित करना चाहिए जहां आवश्यक सहायक स्टाफ के साथ एस.पी. या डी.एस.पी. के रैक के एक पुलिस अधिकारी की प्रतिनियुक्ति हो ताकि वे सामान्य डे्रस में व्यस्ततम समय में अस्पताल जाएं और देखें कि क्या रोगियों से गैर कानूनी रूप से रिश्वत की मांग की जा रही है। रोगियों तथा उनके सहायकों से पैसा लेने वाले व्यक्तियों के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई की जानी जरूरी है।
9.स्वास्थ्य संबंधी अधिकार
स्वास्थ्य की देखभाल संबंधी अधिकार के कई पहलू हैं-मौलिक जन स्वास्थ्य सेवा का अधिकार, आपातकालीन चिकित्सा सेवा का अधिकार, उचित मूल्य पर आवश्यक दवाएं प्राप्त होने का अधिकार, निवारण ज्ञान का अधिकार तथा अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन में होने वाली कमी को दूर करने के लिए जबावदेही निश्चित करना, एचआईवी एड्स रोगियों तथा वरिष्ठ नागरिकों के स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार।
इन सबके अलावा कई ऐसे गरीब, अनपढ़ तथा अल्प सुविधा प्राप्त लोग भी हैं। जिन्हें न तो स्वास्थ्य के अधिकार के बारे में पता है ना ही उनकी कोई देखभाल करता है। असंगठित मजदूर, गरीब दूरवर्ती स्थानों रहने वाले जन जातियों लोग लगभग उपेक्षित है। इसलिए जब तक एक व्यापक स्वास्थ्य देखभाल योजना नही बनाई जाती तब तक सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा पहुंचना संभव नही है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वास्थ्य की देखभाल के अधिकार को वास्तविक बनाने के लिए उपाय कर रहा है। इस उद्देश्य के लिए आयोग ने देश के दक्षिणी उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में स्वास्थ्य की देखभाल के अधिकार पर जन सुनवाई (लोक अदालत) आयोजित करने का निर्णय लिया था।
स्वैच्छिक संगठन
स्वास्थ्य की देखभाल के अधिकार को वास्तवकि बनाने और देश के कोने कोने में स्वास्थ्य संबंधी जानकारी प्रदान करने के लिए स्वैच्छिक संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यह संगठन जनता के साथ साथ राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की भी आंख और कान है। संवैधानिक समीक्षा समिति की रिपोर्ट में भी स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका का उल्लेख किया गया है।
सभ्य समाज ने अपने स्वास्थ्य देखभाल संगठनों का देश के विभिन्न भागों में विस्तार कर स्वयं को मजबूत बना लिया है ताकि आम जनता को उसके संवैधानिक अधिकार प्राप्त करने के लिए सहायता दी जा सके। स्वस्थ समाज ही स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण करता है।