157
धन पैरों की धूल है, जोबन नदी समान ।
आयु को ऋषि ने कहा, बहत हुआ जल मान।।
बहत हुआ जल मान, मूरख पीछे पछतावे।।
देख बुढापा रोवत है, समय से धोखा खावे।
पड़त शोक की अग्नि में , करता रोज रुदन ।
निकल जा हाथ से , तब काम ना आवे धन।।
158
वेद पढ़े और शास्त्र भी, पढ़ लिए सभी पुराण ।
भीतर – भीतर आग में, खूब जलाए प्राण।।
खूब जलाए प्राण , सूखके गात हो गया पिंजड़।
कर्मकांड में फंस गया, सारा गया खेल बिगड़।।
नरक ही में पड़ा रहा, ना समझा सुख का भेद।
उल्टी चाल चलने वालों की, ना रक्षा करता वेद।।
159
हाथी का स्पर्श से , हिरण का शब्द से अन्त।
भौरा गंध पे मस्त है, उलझे रूप पतंग।।
उलझे रूप पतंग ,रस के कारण मछली फंसती।
देख दुर्गति इन सब की, सारी दुनिया हंसती।।
पांच विषयों की मार से, बचा नहीं कोई साथी।
चींटी की औकात है क्या ? मर जाते हैं हाथी।।
दिनांक : 17 जुलाई 2023
मुख्य संपादक, उगता भारत