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चालाकी करना नहीं,
मन को हो एहसास।
गहरी मीठी मित्रता,
में पड़ जाय खटास॥2393॥
साई का सानिध्य हो,
आर्जवता के बीच।
लोक और परलोक में,
बुरी कपट की कीच॥2394॥
ऋजुता हृदय में नहीं,
हरि को रहयो पुकार।
करुणा निधि कैसे मिले,
निज प्रतिबिम्ब निहार॥2395॥
मानव तन दिव्या नौका है जो ईश्वर तक पहुंचाती है:-
मानव तन मिलता मुश्किल से,
मत करना कोताही।
वेद-ऋचाएं कहती तुझको,
आनन्द – लोक का राही॥2396॥
मन के संदर्भ में :-
तन ताला मन कुंजी है,
सही लगे खुल जाय।
जरा चूक हो जाए तो,
जन्म व्यर्थ ही जाय॥2397॥
धर्म-शील बिरला मिले,
विद्वानों की डार।
शिखर से गिरता है मनुज,
जब लगे चित्त- विकार॥2398॥
शुभ को तो टालै मति,
टाल मनोद्वेग।
निर्विकार निर्बेर रह,
तृप्ति पावै वेग॥2399॥
डरो खुदा के खौफ़ से,
मत बनना चालाक।
एक दिन होगा न्याय खुदा का,
निज मन में तू झांक॥2400॥
देवता और राक्षस की सोच में अंतर :-
उच्च चेतना में सदा,
रहता है कोई देव।
निम्न चेतना में असुर,
पाले रहे फरेब॥2401॥
साधक कैसा हो –
सतत् प्रवाह में रहे,
ज्यों गंगा की धार।
ऐसा ही होना चाहिए,
साधक का आचार॥2402॥
कितने विनाशकारी होती है ये हृदय के उद्वेग-
काम क्रोध और द्वष के,
उठते जब आवेग।
शान्ति प्रेम करुणा शर्म,
खा जाते उद्वेग॥2403॥
सच्चे सन्त की पहचान :-
शान्ति करुणा प्रेम की,
रश्मि निकलें अनन्त।
हृदय में ऋजुता भरी,
है कोई पहुंचा सन्त॥2404॥
उपेक्षा का भाव आते ही सज्जन किनारा कर जाता है:-
मान घटे सज्जन हटे,
मन में राखै पीड़।
सर सूखें पंछी उड़ै,
सूना लागै नीड़॥2405॥
विदाई के संदर्भ में ‘शेर’
कहाँ से शुरू करें,
कुछ समझ नहीं आता है।
तुम्हारी विदाई से,
दिल भर आता है॥2406॥
क्रमश: