भारत का प्राचीन गौरव कोई कपोल कल्पना नही
दीनानाथ मिश्रा
भारतीय बुद्घिजीवियों के राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्म-सम्मान को हो क्या गया है? उनमें प्राचीन भारत की विरासत के बारे में इतना हीन भाव क्यों है? क्या भारत का इतिहास मुस्लिम आक्रमणों से चालू होता है? इसके पहले के भारत में कुछ था ही नही? इसके पहले के भारत में कुछ था ही नही? क्या जिस सोने की चिडिय़ा का नाम हम दादी, नानी की कहानी में सुनते रहे या विश्वगुरू का विशेषण और नालंदा और तक्षशिला का विवरण पढ़ते हैं क्या ये बातें दंत कथाएं हैं क्या यह लगभग एक सहस्राब्दी के पराजय का परिणाम है? ऐसा नही। यह सच है कि इस्लामिक आक्रमण कारियों ने इस देश को न केवल पराजित कर दिया, लेकिन शताब्दियों तम्बा संघर्ष मुगलकाल के अंत तक चलता रहा। लेकिन खून खराबा बहुत हुआ। इतिहासकार विल डुरेंट के शब्दों में विश्व इतिहास का सबसे भयानक खून-खराबा भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों के हाथों हुआ।
लेकिन भारतीय बुद्घि और प्रजा पराजित नही हुई है। वह मुष्लिम शासन को म्लेच्छ राज्य समझकर हेय दृष्टि से देखती थी और भारतीय श्रेष्ठता को अपने मन मानस में कायम रखी थी। लेकिन डेढ़ सौ साल के अंगे्रजी शासन के बारे में ऐसा नही कहा जा सकता। अंग्रेजों ने अपने भारतीय उपनिवेश में ऐसी वैचारिक शिक्षा नीति थोपी कि भारत अंग्रेजी पढ़ें लिखे बौद्घिक वर्ग ने अंग्रेजों की श्रेष्ठता को कबूल कर लिया। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति की नीयत उन्हीं के शब्दों में देखिये हमें अपना सिस्टम एक ऐसे वर्ग को सौंप देना चाहिए जो जिन करोड़ों लोगों पर हम शासन करते हैं उन्हें समझा सकें और एक वर्ग मीटर हो जाए जो रंग और रक्त से तो भारतीय हो, मगर वैचारिकता, नैतिकता, बौद्घिकता और पसंद से अंग्रेज हो। मैकाले ब्रिटिश दंभ से ओतप्रोत रहते थे और प्राचीन भरत की विरासत को बड़ी हीन दृष्टि से देखते थे। मैंने संस्कृत और अरबी के अनेक प्रसिद्घ ग्रंथों का अनुवाद पढ़ा। मैंने उनके विद्वानों से बातचीत भी की है। ऐसे लोगों से जो अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ माने जाते थे। अपने दंभ में वे यहां तक कह गये कि यूरोप के किसी भी बड़े पुस्तकालय के एक सेल्फ के बराबर भी संस्कृत और अरबी ग्रंथो का ज्ञान भंडार नही है। जो शिक्षा पद्घति अंग्रेजों ने थोपी, जो मिथक उन्होंने गढ़े जिस तरह के ग्रंथ उन्होंने लिखवाये और प्रतिष्ठित करवाये जो इतिहास उन्होंने पढ़ाया, उससे हुआ यह कि भारत के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग वेदों को गड़रियों के गीत समझने लगे।
भारत पर आर्यों के ऐसे हमले के बिना प्रमाण का मिथक बना डाला कि आर्यों का भारत पर हमला हुआ था और आर्य भारतीय नही थे। यह देश ही हमलावरों से भरा है। आज भी अंग्रेजी पढ़े लिखे विद्वान इसे अकाट्य सत्य की तोड़ प्रस्तुत करते हैं। जबकि 80 वर्ष पहले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई और और बाद के सरस्वती सिंधु सभ्यता के सर्वेक्षण से आर्यों के बाहर से आने का सारा ताना बना धरा ध्वस्त हो गया। एक बड़ी बात और हुई। मार्कस और मार्कसवादी प्राचीन भारत की विरासत को गौरव करने लायक नही मानते। उसमें यह ऐसा कुछ भी नही मानते जिसे संजोन और संवर्धित करके सार्थक बनाये रखने की जरूरत है। दुर्भाग्य से ऐसे मार्कसवादी 30 वर्षों तक विश्वविद्यालय, शिक्षण प्रशिक्षण और शोध कार्यो में छाये रहे। इसकी शुरूआत तब हुई जब कांग्रेस के विभाजन के बाद साठ के दशक के अंत में केन्द्रीय सरकार में बने रहने के लिए स्व. इंदिरा गांधी को कम्युनिस्ट समर्थन की जरूरत पड़ी। उन्होंने प्रो. नूरूल इसन को शिक्षामंत्री बनाया। मैकाले की शिक्षा पद्घति चल ही रही थी और तब शिक्षा और इतिहास पर माक्र्सवाद लेप चढऩे लगा। अमूल्य गांगुली एक स्तंभ लिखते हैं। सेक्यूलर सर्मनाश। एक बार उन्होंने अपने स्तंभ में तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैंरोसिंह शेखावत के प्राचीन भारत के वैमानिक शास्त्र और अग्नि बाण आदि की प्रशंसा की गौरवगाथा के साथ कहीं अपने विचार प्रकट कर दिये। उन्होंने कहा क्योंकि यह एक स्वतंत्र देश है कोई भी व्यक्ति किसी को असंगत बातों के प्रतिपादन करने से रोक नही सकता। हर लोकतंत्र में ऐसे कुछ लोग होते हैं। लेकिन जो व्यक्ति कर दाताओं के पैसे पर पल रहा हो, उसे दलीव विचारों के प्रतिपादन से परहेज करना चाहिए। विशेषकर तब जब वह बातें हास्यास्पद हों। अपने आलेख में एल माशम की बहुचर्चित पुस्तक वंडर कैटवाज इंडिया से भी एक अनुकूल पडऩे वाला उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसी पुस्तक के एक दूसरे उदाहरण का मैं उल्लेख करता हूं बहुत से आविष्कारों और खोजों को जिन पर यूरोप को नाज है, वह सर्वथा असंभव होती अगर भारत ने गणित की परिस्कृत पद्घति विकसित न कर ली होती और वह दुरूह रोमन आंकड़ों में ही फंसा रहता। वह अज्ञात व्यक्ति जिसने (शून्य और दशमलव प्रणाली) गणित की यह पद्घति खोज निकाली, वह भारत काा सपूत था। उसे उससे कहीं अधिक सम्मान मिलना चाहिए था जितना उसे मिला है। एक ब्रिटिश इतिहासकार ग्रांट डफ कहते हैं विज्ञानमें बहुत सी ऐसी तरक्की जिसे हम मानते हैं कि यूरोप में की गयी वास्तव में वे शताब्दियों पहले भारत में की गयी थी। मुझे एक प्रसंग याद आता है जब पूर्व शिक्षामंत्री मुरली मनोहर जोशी ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शिक्षा पर बल दिया था तब गांगुली की टोली ने वैज्ञानिक जयंत वी नार्लीकर को डॉ जोशी के सामने उतार दिया था। नार्लीकर वैज्ञानिक हैं। हो सकता है ज्योतिष के संबंध में उनके विचार किसी कारण डॉ जोशी से न मिलते हों। लेकिन उन्हीं नार्लीकर ने साइन्टिफिक एज में लिखा है सुलभ सूत्र के वर्णन के बगैर प्राचीन भारतीय गणित का विवरण पूरा नही हो सकता और यह ईसा पूर्व 1500-2000 के वैदिक साहित्य की धरोहर है। षडवेदांग के छह भागों में अंतिम वेदांग कल्प है। यह पैमाइश का नियम था। इन सूत्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई थी। वैदिक काल में दैविक शक्ति की आराधना के लिए यज्ञ किया जाता था। यज्ञ की वेदी ज्यामिट्रिक आकार में होती थी। इसमें सुलभ सूत्र में बहुत बाद के पाइथागोरस सिद्घांत का उल्लेख मिलता है। सूत्र में यूक्लीड जैसा सत्यापन तो नही है लेकिन सूत्र से गणितीय परिणाम बिल्कुल सही आते हैं। इसलिए अब इसे सुलभथ्यौरम कहना चाहिए। गांगुली ने अपने उक्त आलेख में यह कहा है कि प्राचीन भारत की उपलब्धियां बौद्घिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की है, विज्ञान क्षेत्र की नही। क्या शून्य दशमलव प्रणाली या ज्यामितिक और बीज गणितीय प्रणालियां बौद्घिक या आध्यात्मिक क्षेत्र की है या विज्ञान की? तरस खाना पड़ता है कई बार ऐसे स्तंभकारों के आलेख पढ़कर।
पुराणों में सृष्टि की रचना और इसके विध्वंस चक्र की आयु 8.5 अरब वर्ष मानी गयी है। आज की पश्चिमी वैज्ञानिक परिगणना के बहुत करीब है यह। प्राचीन संस्कृत साहित्य उडऩ खटोलों के वर्णन से भरा पड़ा है। महर्षि अगस्त्य और भारद्वाज ने विमानों के निर्माण की विधि का वर्णन किया है। उनके वैमानिक शास्त्र में विमान के डिजाइन का भी वर्णन है। कोई डेढ़ एक दशक पहले बंगलौर में अंतर्राष्ट्रीय एरोनॉटिक विज्ञान सम्मेलन हुआ था। उसमें जब भारतीय वैमानिक शास्त्र पर प्रपत्र पढ़ा गया तब वैज्ञानिक शास्त्र के बड़े-बड़े पश्चिमी विशेषज्ञ चकित रह गये। यह सही है कि उन्होंने उसे स्वीकारा या अस्वीकारा नही। लेकिन यह जरूर कहा कि प्रपत्र आज के वैमानिक शास्त्र से इतना मिलता जुलता है कि चकित रह जाना पड़ता है। गांगुली के एक आलेख पर प्रति आलेख लिखते हुए सांची राइस ने लिखा है कि कर्नाटक के मलीकोट के निकट संस्कृत शोध अकादमी मलीकोट को भारत सरकार के एरोनोटिक बोर्ड दिल्ली में संस्कृत साहित्य के आधार पर एक शोध के लिए आमंत्रित किया है। वैज्ञानिक शास्त्र के आधार पर गैर परंपरागत एरोनोटिक दृष्टि पर एक साल का यह अध्यन हुआ था।