सावधान: मन में छिपे हैं भयंकर तूफान
मनुष्य का व्यक्तित्व बड़ा ही जटिल और गहन है। उसका आर-पार पाना बहुत ही कठिन है। मनुष्य के इस इंसानी चोले में साधु और शैतान दोनों ही छिपे हैं। वह ऊंचा उठे तो इतना ऊंचा उठे कि देवताओं को भी पीछे छोड़ दे और यदि गिरने पर आए तो वह पशुओं से भी नीचे गिर जाए।
मानवीय व्यक्तित्व का निर्माण वृत्ति अथवा विचार करते हैं। विचार मस्तिष्क अथवा मन में उत्पन्न होते हैं जबकि सुकोमल भाव हृदय (चित्त) में उत्पन्न होते हैं। यदि मन नियंत्रण में रहे और एकाग्रता के साथ साथ निर्मलता से भी ओत-प्रोत हो जैसा कि एक नवजात शिशु का होता है तो मनुष्य उत्कर्ष की बुलंदियों को छू सकता है। ऐसा व्यक्ति मनुष्यत्व से देवत्व को और देवत्व से मुमुक्षुत्व को प्राप्त होता है, भगवत्ता को प्राप्त होता है, जैसे भगवान राम, कृष्ण, गौतमबुद्घ, तीर्थंकर महावीर स्वामी गुरूनानक देव, ईसा मसीह, महात्मा गांधी, महर्षि देव दयानंद, महर्षि दानी दधीचि आदि। ये दिव्य आत्माएं देखने में मानव थीं किंतु इनके जीवनादर्शों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है-ये मानव नही, महामानव थे। जो ईश्वरीय शक्ति और गुणों से भरपूर थे। इसलिए इन्हें फरिश्ता अथवा देवता कहना भी इनके प्रभामंडल और आभामण्डल के तेज का अवमूल्यन करना है। यह तो मानवीय व्यक्तित्व की तस्वीर का एक पहलू है। अब दूसरा पहलू भी देखिए :-
विधाता ने मानवीय मस्तिष्क अथवा मन को दो शक्तियों से सुसज्जित किया है-नकारात्मक शक्ति अथवा विध्वंसात्मक शक्ति और दूसरी है-सकारात्मक शक्ति अर्थात सृजनात्मक शक्ति। जिस व्यक्ति में इन दोनों शक्तियों में से किसी एक की प्रधानता होती है उस व्यक्ति का व्यक्तित्व या तो विध्वंसात्मक होता है या सृजनात्मक होता है, जैसे भगवान कृष्ण और कंस, भगवान राम और रावण। भगवान कृष्ण और राम के व्यक्तित्व में सृजनात्मक शक्ति अथवा दिव्य शक्ति की प्रधानता है जबकि कंस और रावणमें विध्वंसात्मक शक्ति अथवा आसुरी शक्ति की प्रधानता है।
अब विचार करना है कि ऐसा हेाता क्यों है? इस विषय को सरलता से समझाने के लिए प्रसिद्घ पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक साइमन फ्रायड ने मानव मस्तिष्क अथव मन को तीन भागों में विभाजित किया है, जो निम्नलिखित हैं :-
1. चेतन मन:-यह मन की वह अवस्था है जिसके द्वारा मन वातावरण के साथ सह-संबंध स्थापित करता है। विभिन्न जैविक क्रियाओं और अन्य गतिविधियों पर अपनी चेतना के द्वारा नजर रखता है। विभिन्न् विषयों का ज्ञानोपार्जन और सम्वेदना के कार्यक्षेत्र में आती है। जैसे गाड़ी चलाना सीखना अथवा कोई नया अनुभव अथवा अनुभूति ग्रहण करना इत्यादि।
2.उपचेतन मन :- यह मन की वह अवस्था है, जब चेतन मन वातावरण से सीखे हुए अथवा अनुभव के ज्ञान को इसमें डाल देता है। इस अनुभव अथवा ज्ञान की आवृत्ति फिर बिना प्रयास किये निरंतर होती रहती है। जैसे गाड़ी की ड्राईविंग करना, टाइप करने का ज्ञान, जम्हाई लेना, डकार लेना, उत्सर्जन तंत्र पर नियंत्रण रखना, स्वप्न देखना इत्यादि।
3. अचेतन मन :- यह मन की अवस्था है, जिसमें दमित इच्छाएं पूर्वजन्मों के सूक्ष्म संस्कार व स्मृति संजय होता रहता है। ध्यान रहे मन का यह वह भाग है जिसमें विभिन्न विचित्र विचार जो साधारण भी हो सकते हैं और असाधारण भी। चाहें तो वे विचार साधारण मनुष्य का सौम्यता की प्रतिमूर्ति बना दें और चाहें तो वे विचार साधारण मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह ईष्र्या, द्वेष अहंकार प्रतिशोध व वैमनस्य के गहवर में इतना नीचा गिरा दें कि ऐसे मनुष्य को पशु अथवा पिशाच की उपमा भी बौनी पड़ जाए। यदि यह मन सकारात्मक अथवा सृजनात्मक रूप से जाग्रत हो जाए तो यही है वह क्षीर सागर जिसमें लक्ष्मी ब्रहमा जी के पैर दबाती हैं अर्थात विश्व का धन और एश्वर्य मनुष्य के चरणों को चूमने लगता है। इतना ही नही अपितु यही है वह शिव का तीसरा नेत्र अर्थात मनुष्य के आत्म कल्याण का द्वार खुल जाता है जैसा कि बाल्मीकि तथा अंगुली मार डाकू का आत्म कल्याण हुआ और यदि यही मन नकारात्मक रूप से जाग्रत हो जाए तो मनुष्य राक्षस कहलाता है, मानवता रूप से जाग्रत हो जाए तो मनुष्य राक्षस कहलाता है, मानवता का हत्यारा कहलाता है। इतिहास ऐसे व्यक्ति को कभी माफ नही करता है। आने वाली पीढिय़ां उन्हें घृणा की दृष्टि से देखती हैं जैसे रावण, कंस, दुर्योधन, शिशुपाल, शकुनि, जरासंध, चंगेज खां, तैमूर लंग, हिटलर, मुसोलिन, तोजो, सिकंदर, सीजर, द्रयूमैन और रूजवेल्ट इत्यादि। आओ अब इस बात पर विचार करें कि ऐसा हेाता क्यों है? इस विषय पर हमारे ऋषियों ने मनीषियों ने, तत्ववेत्ता और आधुनिक विज्ञान वेत्ताओं ने बड़ी गहनता और सूक्ष्मता से अध्ययन किया, अनुसंधान किया तो पाया मानव मस्तिष्क में उठने वाली विद्युत तरंगे होती हैं जो अपना प्रभाव मानव मन पर डालती हैं। इन तरंगों को मापने का अद्भुत कार्य आधुनिक विज्ञान ने किया है। इन्हें मापने वाली मशीन को ईईजी कहते हैं। मानव मस्तिष्क में उठने वाली तरंगे चार प्रकार की होती हैं।
1. अल्फा तरंगे : इनमें मन शांत होता है, एकाग्र और निर्मल होता है। प्राणी मात्र के कल्याण की प्रधानता का विचार होता है और सात्विकता का समावेश होता है।
2. बीटा तरंगें:-इनमें मन चंचल और राजसिक होता है। मान बड़ाई, धन वैभव और अद्वितीय दिखने की चाह से भरपूर होता है।
3. थीटा तरंगे :- इनमें मन विभिन्न विकारों से ग्रस्त होता है। मिथ्या प्रशंसा, प्रतिस्पद्र्घा और प्रतिशोध से भरपूर होता है।
4. डेल्टा तरंगें :-ये तरंगें निम्न स्तर की होती हैं। जो मानवीय मन को आलस्य, प्रमाद, विषाद और अवसाद की ओर धकेलती हैं। ये तरंगें मनुष्य को घोर स्वार्थी, षडयंत्रकारी बना देती हैं। यहां तक कि मनुष्य को हत्या, आत्महत्या, जघन्य अपराध और ऐसे वीभत्स कार्य जिन्हें देखकर अथवा सुनकर रोंगटे खड़े हो जाऐं। मनुष्य इन्हीं डेल्टा तरंगों के वशीभूत होकर ऐसे कामों को अंजाम देता है। इससे सिद्घ होता है कि डेल्टा तरंगें आत्मघाती और मनुष्य को पाशविकता की पराकाष्ठा तक पहुंचाने वाली होती हैं। अत: इनसे सदा सावधान रहो और इन पर कठोर नियंत्रण रखो। जिस प्रकार समुद्र का जल कभी शांत नही रहता, कभी उसमें लघु ज्वार तो कभी ब्रहद ज्वार आता है और कभी-कभी तो महाविनाशकारी टारनेडो और टाइफून जैसे भयंकर तूफान आते हैं जिनके दुष्प्रभाव अकल्पनीय होते हैं। कार, बस, बड़े-बड़े वृक्ष और मकानों की छतें तक उड़ जाती हैं। प्राय: ऐसे तूफान फिलीपाइंस, हांगकांग और अमेरिका के कैलीफोर्निया में आते रहते हैं। लोगों को सावधान करने के लिए खतरे के निशान लगा दिये जाते हैं। ये जिस क्षेत्र से भी गुजरते हैं सृजन को विनाश में बदलते चलते हैं। ठीक इसी प्रकार मानव मन में भी टारनेडो और टाइफून से भी भयंकर तूफान चलते रहते हैं। ये जब अपने प्रबल वेग से आते हैं तो रिश्ते भी चूर-चूर हो जाते हैं। जैसे-जब क्रोध का तूफान आता है तो व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है, वाणी से नियंत्रण समाप्त हो जाता है, चेहरे की भाव-भंगिमा ही बदल जाती है। सामान्य व्यक्ति भी हिंसक हो जाता है, वह क्रोध में पागल हो जाता है।
ऐसे ही काम में भी व्यक्ति पागल हो जाता है। ऐसी घिनौनी हरकतें कर बैठता है कि इंसानियत भी शरमा जाए, लाज को भी लाज आ जाए। महाभारत के युद्घ से सीखिए-धृतराष्ट्र के मन में पुत्र मोह का तूफान था तो दुर्योधन के मन में द्वेष, लोभ, ईष्र्या, घृणा, प्रतिशोध और अहंकार इत्यादि मनोविकारों के तूफान थे जिनके वशीभूत होकर महाभारत का भयंकर युद्घ हुआ और जघन्यतम कुकृत्यों को अंजाम दिया गया। यहां तक कि खून के रिश्ते भी तार-तार हो गये। पोता-दादा से और भाई-भाई से लड़ा, शिष्य गुरू से लड़ा। सबसे नीचता का प्रदर्शन तो तब हुआ जब अपनी ही कुलवधु को भरी सभा में नग्न करने का कुकृत्य किया गया। याद रखो, जब रिश्तों की मर्यादाएं तोड़ी जाती हैं तो परिवार ही नही अपितु बड़े-बड़े राष्ट्र नष्ट हो जाते हैं। इसलिए हर समय मन पर नजर रखिए। हमेशा मन के विकारों से सावधान रहिए। आत्मचिंतन कीजिए अपनी गलतियों में समय रहते सुधार कीजिए। विनाश की ओर ले जाने वाली जिद को छोडिय़े। कही ऐसा न हो कि आपकी एक क्षण की असावधानी आपको व आपके परिवार को ये मन के विकारों के तूफान टाइफून और टारनेडी बनकर अपनी चपेट में ले लें। जिससे यश, अपयश में तथा सृजन, विनाश में बदल जाए और आप हाथ मलते रह जाए।