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आज का चिंतन

महर्षि दयानन्द की पाँच परीक्षाएँ।*

– आचार्य राहुलदेवः

महर्षि दयानन्द सन् १८५५ ई. में विद्या ग्रहण की उत्कण्ठा से मूर्धन्य सन्यासी, वीतराग शिरोमणि, स्वनाम धन्य स्वामी पूर्णानन्द से मिले थे। स्वामी पूर्णानन्द ने कहा कि इस समय हम अति वृद्ध होने से तुम्हें पढ़ाने में असमर्थ हैं और हमने मौन धारण कर लिया है। किन्तु मेरा शिष्य दण्डी विरजानन्द जो मथुरा में रहते हैं वे तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे। १८५५ से लेकर १८५९ के मध्य का स्वामी दयानन्द का जीवन वृत्त अज्ञात है। इन वर्षों के क्रियाकलापों की कोई चर्चा स्वयं स्वामी दयानन्द ने भी स्व लिखित आत्मचरित में नहीं की है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह काल सन् १८५७ की प्रथम क्रान्ति का समय था। अस्तु! किन्तु महर्षि दयानन्द १८५९ को ३६ वर्ष की अवस्था में विरजानन्द की पाठशाला में पहुँचते हैं।

स्वामी दयानन्द दण्डी विरजानन्द के पास ढाई से तीन वर्ष रहे और यहीं पर उन्होंने अपने जीवन की पाँच परीक्षाएँ दी थीं। जिससे वह अपने जीवन रूपी परीक्षा में सदैव सफल रहे। कहीं पर भी विचलित, निराश और हतोत्साहित नहीं हुए। क्योंकि परीक्षा लेने वाला भी कोई सामान्य गुरु नहीं था। वह भी एक दृढ़ संकल्पी और महान उद्देश्य और संकल्पना को संजोए बैठे था। क्योंकि उनको यह बात कचोटती थी कि आर्ष ग्रन्थों के प्रचार प्रसार से संसार का उपकार और मानवता की जो भलाई वे करना चाहते थे वे प्रज्ञा चक्षु होने से नहीं कर पा रहे थे। उन्हें इस बात की पीडा़ थी कि आज भारत देश जो परतन्त्र हुआ है उसका मुख्य कारण देशवासियों का अपने धर्म, वेद, ऋषिकृत ग्रन्थ से व स्व संस्कृति सभ्याता से दूर होना है। किन्तु वे निराश न थे उनको अपनी तपस्या पर पूर्ण विश्वास था। वे आश्वस्त थे कि ईश्वर मेरी सुनेगा। निश्चित रूप से मेरी तपस्या फलीभूत होगी और ईश्वर कृपा से मेरे अभिप्राय और मेरे सपनों को साकार करने वाला कोई ना कोई शिष्य अवश्य आएगा। जिसमें मेरे सभी प्रश्नों का समाधान करने की प्रबल संवेदना और क्रियान्वयन करने की तीव्र इच्छा होगी। एक गुरु इसी आशा से मानो प्रतिक्षा कर रहा था और ईश्वर की प्रेरणा से शिष्य द्वार तक पहुंच गया। द्वार खटखटाया तो अन्दर से आवाज आई कौन है? बाहर से विद्या के पीपासु ज्ञानाभिलाषी क्षुधार्त ने कहा- “मैं यही तो जानने आया हूँ कि मैं कौन हूँ” ऐसी जिज्ञासा भाव को सुनकर गुरु को लगा कि निश्चित रुप से मेरे मनोरथो को सिद्ध करने वाला कोई योग्य शिष्य आया है और गुरु ने द्वार खोल दिये।

सज्जनों! उस दिन केवल विरजानन्द की कुटिया के द्वार नहीं खुले थे। अपितु मानो भारतवर्ष के भाग्योदय एवं आर्ष ग्रन्थ के पुनः स्थापना रुप प्रकाश कुंज के पाट खुले थे। स्वामी दयानन्द ने २२ वर्ष की अवस्था में गृहत्याग किया था। पूरे १३ वर्ष के बाद एक ऐसे गुरु के साथ भेंट हो रही थी। जहाँ पहुंचकर मानों नदी को समुद्र मिल गया था। एक पथिक को मंजिल मिल गई थी। स्वामी दयानन्द को यही लग रहा था कि जिसके लिए इतना भटका कहां-कहां नहीं ढूंढा कितना भागदौड़ किया बस वह ठिकाना आज जाकर प्राप्त हुआ है। दोनों ही एक जैसा चिन्तन कर रहे थे मानो वर्षों से एक दूसरे की प्रतीक्षा कर रहे हों। गुरु को एक योग्य शिष्य की तलाश थी और एक योग्य शिक्षकों को सच्चे गुरु की। यहीं से शुरू होती है स्वामी दयानन्द के जीवन की वह तपस्या रुपी परीक्षा। जहाँ गुरु विरजानन्द ने बिना किसी मोह, लाग-लपेट, किसी भी प्रकार की कोई सहुलत, कोमलता का परिचय दिये बिना, एक कठोर आचार्य की भाँति कठिन अनुशासन, कटु आलोचना, कडवी वाणी की ऐसी धधकती भट्ठी में उनकी शिक्षा-दीक्षा शुरू की जहाँ दयानन्द के अतिरिक्त और कोई ठहर भी नहीं सकता था। हालांकि विरजानन्द की पाठशाला में अन्य भी छात्र थे परन्तु दण्डी विरजानन्द ने यह पैमाना केवल दयानन्द के लिए ही स्थापित किया था।

पसली परीक्षा – जो अनार्ष ग्रन्थ तुम्हारे पास है उसे यमुना में बहा दो और जो अब तक अनार्ष पढा़ है उसे भी विस्मृत कर आओ।

पाठक गण! विचार करें यह कैसी विचित्र और विश्व के इतिहास की पहली परीक्षा है जहाँ छात्र को कहा जा रहा है कि इतनी तपस्या भागदौड़ कर प्राप्त किये हुए ग्रंथों को यमुना में बहा दो। यह कैसा गुरु है? जो पुस्तकों को बहाने की बात कर रहा है। पुस्तक तो पुस्तक है। यह कह देते कि किसी को दे दो तो भी समझ में आ जाता। या यह कहते कि किसी पुस्तकालय में दे दो अथवा किसी वृक्ष के नीचे रख आओ। किन्तु नदी में बहा दो! ऐसी निष्ठुर आज्ञा कौन गुरु देता है? परन्तु वाह रे! दयानन्द तू भी किस मिट्टी का बना था तुने गुरु की आज्ञा पर कोई शंका नहीं की और शिरोधार्य करके यमुना में प्रवाहित कर आया। अनार्ष ग्रंथों का त्याग तो फिर भी सरल था परंतु गुरु की यह कैसी आज्ञा थी कि अब तक जो पढ़ा है वह भी विस्मृत कर आओ अर्थात् उसे भी भूल जाओ। क्या कोई योगी के अतिरिक्त यह कर पाने में सम्भव है कि जो वर्षों तक साधना और तपस्या द्वारा सुलझी हुई समझी हुई मनन की हुई विद्या को भुला सके? परन्तु दयानन्द तो दयानन्द ही था। वे भी योगबल द्वारा उन सभी विद्याओं को विस्मृत करके गुरी की सेवा में उपस्थित होकर कहने लगे। गुरुवर! आपकी आज्ञा अनुसार मैं अब तक मनुष्यकृत शास्त्रों में पढी हुई अनार्ष विद्या को अपने स्मृति पटल से मिटा कर शुद्ध अंतःकरण के साथ नई ऊर्जा के साथ पुनः विद्या ग्रहण एवं उसे साक्षात् करने में तत्पर होकर आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूँ। प्रथम परीक्षा में गुरु को अनुभव हो गया कि आर्ष ग्रंथों की जो विरासत अब तक तपस्या पूर्वक योग बल के द्वारा पाई थी उसका उत्तराधिकारी मुझे मिल चुका है। यही वह सत्पात्र है जो मेरी विद्या का शिक्षा का उत्तराधिकारी है जो मेरे महान संकल्पों को पूर्ण करेगा। इस प्रकार दयानन्द पहली परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और गुरुकृपा के कक्ष में थोड़ी सी जगह बनाने में सफल हुए।

दूसरी परीक्षा – बुद्धि एवं धारणा शक्ति का परीक्षण, दयानन्द के द्वारा पूछने पर भी विरजानन्द जी ने पाठ नहीं दोहराया और यमुना में प्राण देने की बात कही।

पाठक गण! विचार कीजिए कैसी कैसी परीक्षा गुरु ने ली थी। पर मेरा दयानन्द कभी विचलित तक ना हुआ। आप लोगों को ज्ञात होगा कि एक बार स्वामी दयानन्द प्रतिदिन की तरह अध्ययन के लिए उपस्थित हुए और कल वाले पाठ के कोई कठिन प्रकरण दोहराने के लिए अनुनय विनय करने लगे तो गुरु को लगा दयानन्द अनध्याय कर रहा इस प्रकार की असावधानी से मेरे निर्माण में त्रुटि रह जाएगी। यही सोचकर उन्होंने बड़ी कठोरता पूर्वक कहा – दयानन्द हम तुम्हें बार-बार पढ़ाने के लिए नहीं बैठे हैं। जो पाठ याद न हुआ तो मत आना या तो यमुना में डूब कर अपने प्राण दे देना। हमने जहाँ तक पढ़ा है गुरु विरजानन्द तो अपने विद्यार्थियों को बड़ी मेहनत करके पढ़ाते थे। बार-बार पूछने पर भी उनको समझाते थे। किन्तु स्वामी जी के साथ उनका व्यवहार ऐसा क्यों था क्योंकि गुरु जानता था कि यदि दयानन्द को आगे जाकर संसार के उपकारार्थ जिस प्रचार-प्रसार में लगना है। वहाँ दयानन्द अकेला होगा इसे अकेले ही शास्त्रार्थ करना होगा वहाँ कोई सहयोगी ना होगा। इसलिए दयानन्द को ऐसी धधकती भट्ठी में तपाना चाहते थे जहाँ पर तपकर दयानन्द कुंदन की भांति चमक कर संसार को आलोकित करे। कहीं पर धोखा ना खाए। इस प्रकार गुरु के कठोर व्यवहार से दयानन्द क्षुब्ध नहीं हुए। उन्हें अपनी स्मृति पर और ईश्वर पर विश्वास था। उन्होंने भी निश्चय कर लिया कि जब तक वह सिद्धि का प्रयोग वाला पाठ याद न आएगा। तब तक वह गुरु के पास नहीं जाएंगे। फिर जाकर ध्यानावस्थित होकर उसका चिंतन करने लगे संध्या और ध्यान पर विशेषाधिकार होने से स्वामी दयानन्द को वह सारा प्रकरण याद आ गया। पुनः अति प्रसन्नता के साथ गुरु सेवा में उपस्थित हुए। उधर गुरु भी शिष्य के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे और व्याकुल हो रहे थे। ऊपर से तो दयानन्द को कह कह दिया था कि जाकर यमुना में डूब जाओ पर अंदर से तो हर आचार्य का हृदय कोमल ही होता है। इस प्रकार जब दयानन्द ने आकर प्रकरण के साथ यथावत उस सिद्धि को सुना दिया। तो गुरु की प्रसन्नता का कोई पारावार न रहा और उन्हें यह निश्चय हो गया कि यही शिष्य बनेगा जो शास्त्रार्थ समर में कभी पराजित ना होगा। जिसको सिद्धांतों के प्रकरण सदैव मौख्यिक होंगे। आर्ष ग्रंथों सूत्र और मन्त्र जिह्वा पर नृत्य करेंगे। तर्कशास्त्र जिसके शस्त्र बनकर सहयोगी होंगे। वह समर में कभी पराजित नहीं होगा। इस प्रकार की परीक्षाओं से गुरु की आकांक्षा दृढ़ होने लगी। और दयानन्द ने गुरु विरजानन्द की दूसरी परीक्षा को पार कर लिया था।

तीसरी परीक्षा – गुरु की ताड़ना, गुरु की सेवा एवं गुरु भक्ति।

पाठकगण! यह बात यह सही है कि जैसे दयानन्द ने भी गुरु विरजानन्द के समान आचार्य कभी नहीं देखा था। ऐसे ही विरजानन्द के सामने अब तक दयानन्द जैसा कोई दूसरा शिष्य भी नहीं आया था। यह अपूर्व समागम इश्वरेच्छा से ही संभव हुआ था। यह कोई संयोगमात्र न था। जैसा कि किंवदन्ती है कि दयानन्द कई घड़े पानी उनकी कुटिया के प्रक्षालन एवं स्नान के लिए यमुना के भीतर जाकर लाया करते थे।
क्योंकि बिना गुरु की सेवा सुश्रुषा के विद्या प्रकटीभूत एवं फलवती नहीं होती। एक बार की बात है कुटिया में झाड़ू लगाकर स्वामी दयानन्द कूड़ा एक जगह इकट्ठा कर देते हैं। आचानक गुरु के पैर कूडे़ पर पड़ गए और गुरु सहसा क्रोधित होकर अपनी छड़ी से दयानन्द को पीटने लगे परंतु उसका कोई द्वेषात्मक प्रभाव दयानन्द के मानस पटल पर नहीं पड़ा। अपितु थोड़ी देर में वे स्वयं गुरु की सेवा में प्रेम और श्रद्धा सहित उपस्थित होकर कहने लगे कि गुरुवर! मेरा शरीर तो वज्र के समान कठोर है मुझे तो ताड़ना करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। परन्तु आपका शरीर कोमल होने से आपको कोई हानि पहुंची हो तो मैं आपकी सेवा किए देता हूँ। सोचिए क्या वह दृश्य रहा होगा। दयानन्द ने शिष्य की कैसी मर्यादा स्थापित की हैं। आजकल तो थोड़ी ही डांट से भाग जाते हैं और विद्या अध्ययन छोड़ देते हैं। उनको समझना चाहिए क्योंकि व्याकरण के आचार्यों का यह अभिष्ट मत है कि अध्ययन अध्यापन में डाँट और ताडना से शिष्य का निर्माण होता है क्योंकि ताडना अमृत है और लालन करना उनके लिये विष के समान है जो उनकी उन्नति में बाधक है।
विरजानन्द की ताड़ना से स्वामी दयानन्द के भुजा पर एक चिन्ह रह गया था जिसको स्वामी दयानन्द गुरु का प्रसाद कहकर स्मरण किया करते थे। नयनसुख जडि़या नामक एक भक्त जो दंडी जी की पाठशाला में प्रायः आया करता था जो कुछ-कुछ संस्कृत सीखने लगा था। उसने गुरु विरजानन्द से कहा कि दयानन्द सन्यासी है और इस प्रकार सन्यासी के साथ ताड़ना करना आपको उचित नहीं है। जब यह बात शिष्य दयानन्द को पता लगी तो वे नयनसुख जडिया से अप्रसन्न हो गये और कहने लगे कि आपको गुरु जी को इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। वे मुझे डांटे या मेरा अपमान करें यह उनका अधिकार है। वाह रे दयानन्द तेरी उपमा किससे करुँ? मेरे पास तो शब्द ही नहीं है। गुरु शिष्य में कई बार पढते पढाते समय शास्त्रार्थ छिड़ जाता था दोनों ओर से प्रमाणों की झडी लग जाती थी कई बार गुरु ने पराजित करने का प्रयास भी किया पर दयानन्द कभी रणभूमि में डिगे नहीं। गुरु यदि वाग्मी थे तो दयानन्द भी वाक्पटु थे। दयानन्द की इसी तर्क शक्ति के कारण गुरु विरजानन्द उन्हें कुलक्कर और कालजिह्व कहा करते थे। जिसका अर्थ है ऐसा खूंटा जिसको कोई उखाड़ न सके। कालजिह्व का मतलब है जो तर्क शक्ति के द्वारा सब मत मतान्तरों को चाट जाये। इस प्रकार की परीक्षा द्वारा भी गुरु को यह आभास हो गया था कि दयानन्द भविष्य में किसी भी प्रकार की शारीरिक ताड़ना, कष्ट, दैहिक तापों और प्रताडना से घबराने वाला नहीं है। वह जीवन की प्रत्येक परीक्षा में पूर्ण सफल होगा। क्योंकि उन्हें पता था कि जिस ज्ञानाग्नि को धूमकार के रूप में वे दयानन्द के अन्दर प्रविष्ट करा रहे हैं। कल वह महाग्नि में परिवर्तित होकर भारत भूमि के भ्रान्त मत मतान्तरों के जालों को भस्मिभूत कर देगा।

चौथी परीक्षा – स्त्री स्पर्श पर तीन दिन तक निराहार होकर ध्यानावस्थित रहे और प्रायश्चित किया।

पाठक गण! यह तो कोई परीक्षा नहीं थी। किन्तु इस अनायास घटित घटना से गुरु का विश्वास पूर्ण रुप से दृढ हो गया था। उनके भीतर कोई संशय नहीं रहा। क्योंकि ऐसी विस्मयकारी एवं संयम और महान चरित्र की घटना से गुरु को शिष्य दयानन्द पर इतना प्रगाढ विश्वास हो गया था कि कल्पना और स्वप्न में भी दयानन्द के उज्ज्वल चरित्र पर दाग नहीं लग सकता था। क्योंकि हो सकता है मनुष्य समुद्र को मथ के रख दे, मदमस्त हाथी को सूंड से पकड कर पछाड़ दे शेर और मगरमछ के जबडे को पकड़ कर बीच से फाड दे किन्तु काम वासना की धधकती वेग से खुद को संयमित कर पाने वाले लोग विरले ही होते हैं और उन विरले लोगों में मेरा दयानन्द शिरोमणि था। घटना कुछ इस प्रकार की है कि दयानन्द नित्यचर्या के उपरान्त यमुना नदी के किनारे रेती में ध्यान लगाये उपासना में तल्लीन थे। तभी यमुना की तरफ एक स्त्री आई और सामने में एक आभा मण्डल युक्त तेजस्वी पुरुष को एक बहुत बडा दिव्य पुरुष और योगी समझकर उनके चरणों में अपना मस्तक रख दिया और प्रणमत हो गई। दयानन्द अकस्मात् अपने सम्मुख एक स्त्री को देखकर हतप्रभ रह गये क्योंकि इससे पहले कभी उनके जीवन में कभी ऐसा न हुआ था। वे माता-माता कहकर उठ खडे़ हुये और गोवर्धन की ओर एक निर्जन वन में चले गये। स्त्री स्पर्श से प्रायश्चित करने के लिये वे तीन दिन और तीन रात तक लगातार एक ही आसन पर निराहार ध्यानावस्थित होकर बैठे रहे।
इधर गुरु भी अनेक दिन से दयानन्द को न पाकर बडे व्याकुल हो गये थे। उन्हें भी किसी अनिष्ट की चिन्ता सताने लगी थी। अचानक दयानन्द ने आकर चरणस्पर्श किया तो गुरु ने झाट पहचान लिया और कहने लगे इतने दिन तक कहाँ थे वत्स और तुम कुछ कुछ कृश (दुबले) लग रहे हो। क्या बात है दयानन्द? इस पर दयानन्द ने सारा वृत्तान्त सुना दिया। यह सुनकर गुरु की प्रसन्नता का कोई पारावार न रहा। उन्हें यह सुदृढ़ विश्वास हो गया की दयानन्द केवल शास्त्र में गति रखने वाला या कोई तार्किक और शब्दज्ञानी मात्र नहीं है अपितु यह तो एक आध्यात्म और श्रेय मार्ग की ऊँची साधना का पथिक है। जिसे विषय वासना भौतिक सौन्दर्य आकर्षण से कोई लगाव नहीं है, वह तो निस्पृह, जितेन्द्रिय और आत्मसाधक है। गुरु को अपने शिष्य पर अभिमान हो गया था।

पाँचवी परीक्षा – गुरु दक्षिणा एवं गुरु दक्षिणा में स्वामी दयानन्द का जीवन माँगना।

पाठक गण! विचार कीजिए ढाई-तीन वर्ष के अध्ययन के पश्चात् जब दीक्षान्त का समय आया अर्थात् गुरु से विदा लेने का समय तब वह समय बडा भावुक करने वाला था। गुरु ने तो पहले ही निश्चय कर लिया था कि उसे क्या मांगना है। क्योंकि उनका लक्ष्य स्पष्ट था और उनकी प्रज्ञा चक्षुओं ने स्वामी दयानन्द की उस प्रतिभा को पहचान लिया था ताभी तो ऐसी विलक्षण और अभूतपूर्व परीक्षा से दयानन्द को गुजरना पडा था। विदाई के समय गुरु और शिष्य दोनो के लिये विचारों का ऐसा ज्वार मन और मस्तिष्क में हिलोरे मार रहा था। मानों यह सबसे बडा ज्वार या कोई तुफान हो। बस गुरु को इसी समय की मानों प्रतीक्षा थी और वे अधीर हो रहे थे। उनको तो भारत वर्ष की परतन्त्रता, अनार्ष ग्रन्थों की वरीयता, वेद के सर्वथा लोप होनी की संवेदना और स्वयं के असामर्थ्यवान होने की पीडा़ कचोटती थी और वह पीडा़ बढते ही जा रही थी। उनकी इस पीडा़ का सर्व समाधान वे एक मात्र दयानन्द में देख रहे थे। पर उन्हें कैसे कहें? क्या किसी व्यक्ति से जीवन माँगना आसान है? और कोई भी अपना जीवन सहजता से कैसे अर्पित कर देगा? वह भी दारुण, भीषण, संकट, कंटीले, झंझावात मार्ग की बलिवेदी पर।
उधर शिष्य दयानन्द को भी पता था कि गुरु से जो विद्या प्राप्त हुई है उस विद्या का ऋण सामान्य भौतिक वस्तुओं की भेंट और दान से चुकाया नहीं जा सकता था। किन्तु गुरु के पास खाली हाथ भी नहीं जा सकते थे। यह पता था कि गुरु जी को लौंग पसन्द है बजार से मुट्ठी भर लौंग दान में लाकर गुरु की सेवा में उपस्थित हो गये। एक अकिंचन सन्यासी के पास कोई रुपये पैसे या स्वर्ण मुद्राएँ तो न थीं जिससे वे गुरु को देकर प्रसन्न कर आते। आज गुरु कुछ अलग ही मुद्रा में थे। गुरु ने बडे तेज स्वर से कहा क्या दक्षिणा लाये हो दयानन्द। दयानन्द सोचने लगे जिस गुरु को कभी दक्षिणा माँगते नही देखा। आज अकस्मात दक्षिणा की याचना कैसे करने लगे। वह तो किसी से कोई अभिलाषा नहीं रखते थे। किन्तु शान्त भाव से उत्तर दिया थोड़े से लौंग लेकर आया हूँ गुरुजी!
गुरु ने और तीव्र स्वर में कहा क्या मेरी घोर तपस्या का यही पारिश्रमिक है। शिष्य ने सौम्यता के साथ कहा गुरुजी इस अकिंचन के पास तो लौंग के आतिरिक्त और पदार्थ नहीं है। गुरु ने उसी तीव्र स्वर में कहा – तुमने ये कैसे सोच लिया जो तुम्हारे पास नहीं है वह मैं तुमसे मांगूगा? मैं तो उसी की बात कर रहा हूँ जो तुम्हारे पास है और तुम दे सकते है। शिष्य विनम्रता से गुरु के चरणों में झुक गया और कहने लगा। हे गुरुदेव इस शरीर का एक-एक कतरा आपके उपकारों का ऋणि है। आप आज्ञा दीजिए सेवक प्राण देने के लिये भी प्रस्तुत है।
दयानन्द तुम अपना सारा जीवन मानव जाति के उपकार्थ लगा दो। आज सम्पूर्ण आर्यावर्त में अनार्ष ग्रन्थों का बोल बाला हो गया है। तुम्हें सर्वत्र आर्ष ग्रन्थों की स्थापना करनी होगी। आज आर्यावर्त की दुर्गति का कारण स्वार्थी लम्पट मनुष्यों द्वारा रचित कपोल कल्पित ग्रन्थ है। तुम्हें न केवल उन ग्रन्थों को परिष्कृत करना है अपितु भारत देश के जन मानस में प्राचीन ऋषियों की वह तपस्या और परमार्थ के बीज बोने और वेद की लौ जगानी है। पुनः वैदिक धर्म का ध्वज लहराना होगा। गुरु के इस प्रकार कहने पर दयानन्द ने किंचित् क्षण का भी विलम्ब किये बिना सहर्ष कहा आज्ञा शिरोधार्य गुरुवर। तथास्तु! और गुरु चरणों में दण्डवत होकर मथुरा से प्रस्थान कर गये। कौन जानता था दयानन्द ने अपना उद्देश्य क्या सोचा था। इतनी विद्यार्जन, योगाभ्यास के बाद वेकौन से मार्ग पर और गति करना चाहते थे। किन्तु गुरु की आज्ञा के बाद उनका लक्ष्य स्पष्ट हो गया था। आर्ष ग्रन्थों की पुनः स्थापना और कृण्वन्तो विश्वमार्यम् के लक्ष्य के साथ निकल पडे।
महानुभावों! मेरे दयानन्द ने पाँचवी परीक्षा भी पास कर ली थी। दयानन्द की यह पाँचों परीक्षाएँ उनके जीवन भर काम आई और उन्होंने जीवन भर कभी अपने गुरु का मस्तक नीचे होने न दिया। विरजानन्द और दयानन्द की इस गुरु शिष्य की जोडी ने पुनः विलुप्त हो रहे आर्ष ग्रन्थ पाणिनि व्याकरण आदि की पुनः स्थापना की अप्रासंगिक हो रहे वेदों की पुन प्रतिष्ठा कराई। और परतन्त्र देश को स्वतन्त्र कराने में ८५% प्रतिशत योगदान देने वाले क्रांतिकारी स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज से ही प्रेरित थे। मुझे तो भारतवर्ष के करोड़ों वर्ष के इतिहास मे ऐसी विलक्षण गुरु शिष्य की जोडी़ नहीं दिखाई देती जिसमें विशेषकर दयानन्द जैसा परीक्षार्थी जो गुरु की आकांक्षाओं से परे जाकर गुरु के ऋणों से उर्ऋण हुआ हो। धन्य धन्य दयानन्द धन्य धन्य।

आचार्य राहुलदेवः
आर्यसमाज बडा़बाजार
१/८/२०२३ ई.

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