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प्रस्तुतकर्ता आर्य सागर खारी 🖋️
साभार बृहती ब्रह्ममेधा ग्रंथ प्रथम भाग।
उपासना के प्रारंभ में योगाभ्यास करने वाला व्यक्ति ईश्वर के स्वरूप का चिंतन, वर्णन शब्द प्रमाण से करने का प्रयत्न करता है। साधक यह विचार करता है कि मैं जिस ईश्वर को प्राप्त करना चाहता हूं वह कैसा है? पुनः ईश्वर के स्वरुप के संबंध में महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने जो लिखा है “सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है” इसको स्वीकार करता है। साधक ईश्वर को सर्वव्यापक सर्वज्ञ मानकर चल रहा है और इसी बात को ईश्वर के समक्ष रखता हुआ कहता है— हे ईश्वर ! आप का स्वरूप ऐसा है आप में सब सत्य विद्याए हैं। कोई ऐसी विद्या नहीं है जो आप में ना हो और आप में जो विद्याए हैं वह सब सत्य ही हैं। यदि वह और थोड़ा सा विस्तार करना चाहता है तो तुलनात्मक रूप में आरंभ करता है – हे ईश्वर!आप में सारी विद्याए हैं किंतु हम जीवो में सारी विद्याए नहीं है। आप में जो ज्ञान विद्यमान हैं वह कभी असत्य ज्ञान के रूप में नहीं जान जाना जाता अर्थात मिथ्या ज्ञान आपको कभी नहीं होता किंतु मैं तथा मुझ जैसी अन्य जीवात्मा इस मिथ्या ज्ञान से बच नहीं पाती। आपका ज्ञान कभी संशयात्मक नहीं होता, वह निर्णायात्मक ही रहता है ,किंतु हम जीवो का ज्ञान संशय को प्राप्त होता रहता है। समस्त सत्य विद्याएं और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदी मूल हैं आप।हे ईश्वर! यह संसार कितना सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल है इसे मैं नहीं जान सकता। कितने लोक- लोकान्तर हैं कितनी योनिया है ,कहां तक है; इसे मैं नहीं जान सकता ।इस पूरे संसार को समस्त पदार्थों को आप ने ही बनाया है आप इन बने हुए पदार्थों की रक्षा भी स्वयं ही करते हैं।
ओ३म् ओ३म् ओ३म्