चारों वेदों में यज्ञों का महत्व दर्शाया गया है। यज्ञ भी अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे अश्वमेध यज्ञ, वृष्टिïयज्ञ आदि सब यज्ञ अग्निहोत्र के द्वारा ही सम्भव होते हैं।
महर्षि मनु लिखते हैं-
अग्नौ प्रस्ताहुति सम्यक आदित्यं उपतिष्ठति:।
आदित्यात जायते वृष्टि: प्रजा:।।
यज्ञ में अग्नि के अंदर डाली हुई घी-सामग्री की आहूतियां अग्नि के द्वारा सूक्ष्म होकर सूर्य में पहुंचती हैं जिससे वर्षा होती है। वर्षा से अन्न होता है और उस अन्न से प्रजा का पालन होता है।
यजुर्वेद-यज्ञुर यजते यज्ञ का वेद है, इसमें चालीस अध्याय तथा एक हजार नौ सौ पिचहत्तर मंत्र हैं। चालीसवां अध्याय जो कि सत्रह मंत्रों का है ईशोपनिषद नाम से जाना जाता है, क्योंकि इस अध्याय का प्रथम मंत्र ईशावास्यमिदं सर्वम से आरंभ है।
आज सत्रहवें अध्याय के दूसरे मंत्र पर विचार करते हैं इसमें मनुष्य दीर्घ जीवन में करोड़ों यज्ञ करता है। मंत्र है-
इमा मेंअग्नअइष्टका धेनव:
सन्त्वेका च दश च दश च शतं च
शतं च सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च पराद्र्घश्चैता मेअग्नइष्टका धेनव:
सन्त्वमुत्रामुष्मिंल्लोके
(वस्तुत: पर्जन्यादन्नसम्भव:)
सब अन्न का संभव पर्जन्य से ही होता है, परंतु यह पर्जन्य यज्ञाद भवति पर्जन्यं इस वाक्य के अनुसार यज्ञ से होता है, अत: प्रस्तुत मंत्र में इस यज्ञ के पालकत्व का प्रतिपादन करते हुए मेधातिथि के मुख से प्रार्थना कराते हैं कि अग्ने यज्ञादि में विनियुक्त होकर बादलों को जन्म देने वाले अग्नेइमा: ये-इस देह से किये जाने वाले इष्टका-यज्ञ धेनव: संतु-दुधारू गौवों के समान हमारा पालन करने वाले हों। वस्तुत: यज्ञ बादलों की उत्पत्ति द्वारा अन्नादि का कारण बनकर सदा हमारा पालन करता है तथा रोगकृमियों के संहार के द्वारा भी यह यज्ञ हमारा रक्षक होता है।
2. ये यज्ञ तो मेरे जीवन में निरंतर चलें, मेरा जीवन ही यज्ञमय हो जाए। एका च-यह यज्ञ प्रत्येक प्रात:काल में एक संख्यावाला होता हुआ भी दश च-प्रतिदिन होने से दस संख्यावाला हो, दश च-दश संख्या वाला ही क्यों? शतं च-यह सौ संख्या वाला हो शतं च-सौ क्यों? सहस्रं च-मेरा जीवन हजारों यज्ञों से युक्त हो। सहस्रं च-सहस्र की क्यों? अयुतं च-मेरा जीवन दस हजार यज्ञों वाला हो। अयुतं च नियुतं च-दस हजार यज्ञों वाला होता हुए यह मेरा जीवन एक लाख यज्ञों वाला हो। नियुतं च प्रयुतं च-एक लाख से भी अधिक दस लाख इन यज्ञों की संख्या हो। अर्बदं च- ये यज्ञ एक करोड हो जाएं। न्यबुदं च-दस करोड तक इनकी संख्या हो। प्रत्येक घर में होने पर इनकी संख्या दस करोड़ ही क्यों? समुद्रश्च-ये यज्ञ अरब संख्या तक पहुंचे, मध्यं-दस अरब, तथा अंत च-खरब तथा परार्थश्च-ये यज्ञ तो दस खरब हो जाएं।
3. मैं तो यह चाहता हूं कि अग्ने-सब यज्ञों के प्रवर्तक प्रभो! एता में इष्टका:-ये मेरे यज्ञ अमुत्र-परलोक में अमुष्मिन लोके-उस दूर लेाक में भी धेनव: संतु-मेरा पालन करने वाले हों। इस लोक में तो ये यज्ञ कल्याण करते ही हैं, ये परलोक में भी कल्याण कारण हों।
भावार्थ-हम अपने जीवनों को यज्ञमय बनायें। यज्ञ इस लोक में सात्विक अन्न व नीरोगता देने वाला होकर कल्याण करता है तथ यज्ञ में निहित त्याग की भावना परलोक में कल्याण करने वाली होती है। ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म:।
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