मेवात में जो कुछ हो रहा है वह हमारी अतीत की गलतियों का स्वाभाविक परिणाम है। बात 1947 की है जिस समय देश सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा था। तब देश के भावी राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 5 सितंबर 1947 को तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को मेवात के लोगों के मिजाज को पढ़कर एक पत्र लिखा था। उस पत्र में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि मेवाती मुसलमान दिल्ली में आकर उपद्रव मचा रहे हैं। उन्होंने लिखा था कि “कल रात मेवों की एक बहुत बड़ी भीड़ लगभग 500 करोल बाग में निकली और सड़कों पर प्रदर्शन आरंभ कर दिया। …. स्थिति बेहद विस्फोटक है और उस क्षेत्र के गैर मुस्लिम जो अल्पसंख्यक हैं, इसी हमले से बहुत आशंकित हैं। मुझे आज के समाचार पत्रों में एक रिपोर्ट मिली कि मेवों को पश्चिम पंजाब ( पाकिस्तान का पंजाब) में स्थानांतरित करने का प्रस्ताव है। इसे जितनी जल्दी किया जाए उतना ही अच्छा है , लेकिन जब तक यह प्रक्रिया चलती रहेगी और इसमें समय लगने की संभावना है यह बेहतर होगा कि उन सभी को जामा मस्जिद के पास हिंदू बस्तियों से अलग कहीं और शिविरों में केंद्रित किया जाए और रखा जाए, अगर एक बार शहर में परेशानी शुरू हो गई तो उसे रोकना मुश्किल हो जाएगा । मैं जानता हूं कि स्थानीय अधिकारी बहुत सतर्क हैं, फिर भी मैंने इस तथ्य पर आपका ध्यान आकर्षित करना जरूरी समझा।” (स्रोत : सिलेक्टेड कॉरस्पॉडेंट सरदार पटेल 1945- 50 वॉल्यूम 4, पेज नंबर 337)
डॉ राजेंद्र प्रसाद का यह दृष्टिकोण पूर्णतया व्यावहारिक था और वह चाहे कितने ही विनम्र और उदार व्यक्तित्व के क्यों ना हों फिर भी वह भविष्य के बारे में पूर्णतया सजग थे । वह किसी प्रकार के दिखावे में पड़ना नहीं चाहते थे और भविष्य की परेशानी को देखते हुए उस समय इन लोगों को पाकिस्तान भेजने की बात देश के तत्कालीन मजबूत गृहमंत्री सरदार पटेल से कह रहे थे। सरदार पटेल भी डॉ राजेंद्र प्रसाद की भांति इसी मत के थे कि इन सभी मेवातियों को भारत से पाकिस्तान भेज देना ही समस्या का उचित समाधान है। यही कारण है कि सरदार पटेल ने भी डॉ राजेंद्र प्रसाद के उक्त पत्र का जवाब इसी प्रकार देते हुए लिखा था कि मुझे मेव शरणार्थियों के तीन कैंपों से शहर की कानून व्यवस्था स्वास्थ्य और सफाई के प्रति गंभीर खतरे का एहसास हुआ है। हम कोशिश कर रहे हैं कि सेना के ट्रकों द्वारा इन लोगों को पश्चिमी पंजाब ( पाकिस्तान का पंजाब) भेज दिया जाए। जामा मस्जिद शरणार्थियों से भरी पड़ी है और वहां की स्थिति असंतोषचनक है। ऐसी गंदी स्थितियों के कारण शहर में वास्तव में लोगों के स्वास्थ्य को खतरा है और यहां और लोगों अर्थात मेव मुसलमानों को लाने का अर्थ खतरे को बढ़ाना ही है।” ( स्रोत: उपरोक्त पेज नंबर 338 )
इन दोनों बड़े नेताओं की इस प्रकार की पत्राचार की भाषा को पढ़कर पता चलता है कि वे दोनों ही एक ही मत के थे और नहीं चाहते थे कि जो लोग परंपरागत रुप से देश में सांप्रदायिक आग लगाते रहने की अभ्यासी हैं उन्हें देश में रहने की अनुमति दी जाए । तब ऐसा क्या हुआ कि इन दोनों नेताओं की बात नहीं चली और मेवात की मुसलमान एक समस्या बन कर देश में रह गए ?
जिस समय सरदार पटेल मेवात के मुसलमानों को दिल्ली और मेवात से निकालकर पंजाब अर्थात पाकिस्तान भेजने की तैयारी कर रहे थे उसी समय 19 दिसंबर 1947 को गांधीजी मेवात के झरसा गांव में एक सभा को संबोधित करने पहुंचे। गांधीजी को सरदार पटेल और डॉ राजेंद्र प्रसाद की बात पसंद नहीं आई थी। वह मुस्लिम तुष्टीकरण करने के लिए जाने जाते थे। उन्होंने वहां मुसलमानों को एकत्र किया और उनसे भारत में रुकने का आग्रह किया। इतना ही नहीं, उन्होंने मेवाती मुसलमानों को देश की रीढ़ की हड्डी बताया और पाकिस्तान जाने की उनकी इच्छा का विरोध करते हुए उनसे भारत में ही रुकने की प्रार्थना की। इसके बाद अधिकांश मेवाती मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए। झरसा गांव में गांधी जी ने यह भी कहा था कि मेव करीब करीब जरायम पेशा अर्थात अपराध करके आजीविका चलाने वाली जाति की तरह हैं। अगर यह बात सही है तो आप लोगों को अपने आपको सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। ….. केंद्र से मैं कहूंगा कि यदि मेवों पर अपराधी प्रवृत्ति के आरोप सही भी हैं तो इसके आधार पर उन्हें निकाल कर पाकिस्तान नहीं भेजा जा सकता। मेवात के लोग यहां की प्रजा हैं इसलिए सरकार का यह कर्तव्य है कि वह मेवों को बसाने के लिए शिक्षा सुविधाएं देकर बस्तियां बनाकर खुद को सुधारने में मदद करें।
इस भाषण के बाद गांधीजी ने अपने प्रभाव का प्रयोग किया और तत्कालीन केंद्र सरकार पर अनुचित दबाव बनाकर मेवाती मुसलमानों को यहीं बसने दिया। यदि गांधी जी इस प्रकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को न अपनाते तो आज मेवात में जो कुछ हो रहा है, वह नहीं हुआ होता। गांधी जी की इस प्रकार की लचीली और हिंदू विरोधी मानसिकता के परिणाम स्वरूप मेवाती मुसलमान बड़ी संख्या में क्षेत्र में रुक गए। तब उन्होंने अपने अपने जरायम पेशा स्वभाव का परिचय देते हुए देश विरोधी आचरण करने की राह को अपनाया। देखते ही देखते यहां के 100 से अधिक हिंदू बहुल गांवों को उन्होंने पूर्णतया हिंदू विहीन कर दिया। प्रदेश और देश की सरकारें, सारा शासन प्रशासन इस ओर से आंखें मूंदे बैठा रहा कि मेवात में क्या हो रहा है? मेवात को मेवात के मुसलमानों ने एक अघोषित जेल में परिवर्तित कर दिया और वहां से बड़ी संख्या में हिंदुओं को पलायन करने या मुस्लिम मत स्वीकार करने के लिए मजबूर किया।
ऐसा कब होता है? हमारी दृष्टि में ऐसी घटनाएं तब होती है जब इतिहास के सच को देश के लोगों को पढ़ाया नहीं जाता है। यदि मेवात के मुसलमानों को हसन खान मेवाती का इतिहास पढ़ाया जाता जिसने पानीपत के युद्ध में विदेशी बाबर का विरोध करते हुए उस से युद्ध किया था। इसके पश्चात इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी के साथ बैठक कर यह निर्णय लिया था कि देश सेवा के लिए इस समय हमको महाराणा संग्राम सिंह से मिलना चाहिए। उन दोनों ने जाकर महाराणा संग्राम सिंह से मुलाकात की और उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया कि उनके लिए मजहब बाद में है पहले देश है। इसलिए हम आपके साथ मिलकर बाबर के विरुद्ध युद्ध करेंगे। तीनों ने मिलकर बाबर का सामना किया। 15 मार्च 1527 को हुए उस युद्ध में बाबर की तोपों के गोलों का शिकार हसन खान मेवाती बना, पर उससे पहले वह देश के प्रति अपनी वफादारी का इतिहास लिख गया, और आने वाली पीढ़ियों को बता गया कि मजहबपरस्ती खतरनाक होती है और देश के साथ वफादारी दिखाना प्राथमिकता होनी चाहिए। बाबर ने उसे मुसलमान का वास्ता देकर तोड़ने का प्रयास किया था पर उस देशभक्त वीर योद्धा ने देश के लिए मरना उचित माना। हमें यह याद रखना चाहिए कि मेवात के लोग पूर्व काल में यदुवंशी क्षत्रिय रहे हैं। अपने उसी क्षत्रिय स्वरूप का स्मरण कर हसन खान मेवाती ने देश के लिए बलिदान दिया था। क्या वर्तमान में मेवात के लोग अपने इस महान पूर्वज से कोई शिक्षा ले सकेंगे ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत