हिंदी भाषा: हमारे राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक
कृष्ण चंद्र टवाणी
राष्ट्र में भावनात्मक एकता स्थापित करने तथा उसके उत्थान व विकास में भाषा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसी दृष्टिकोण में भारतीय संविधान में हिंदी को ही राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। हिंदी हमारे राष्ट्र की आत्मा है, प्राण है। चेकोस्कोवाकिया के प्रसिद्घ हिंदी विद्वान डॉक्टर ओदोलेन स्मेकल के विचारों को यहां उद्धृत करना असंगत न होगा। हिंदी भारतीय समाज के उल्लास एवं सौंदर्य की चिंतन मनन व भावधारा की भाषा है। साथ ही साथा अंर्तद्वंद्व संघर्ष, उपेक्षा ग्लानि का भाव है। हिंदी को संपूर्ण राष्ट्र की वाणी बनने का गौरव प्राप्त है। भारत माता के माथे की बिंदी हमारी राष्ट्रीयता का मापदंड है। हिंदी में हमारी संस्कृति का इतिहास छुपा है। किसी देश की आत्मा को समझने के लिए उसकी भाषा को समझना बहुत आवश्यक है। हिंदी वर्तमान भारत की राष्ट्र भाषा है। ऐसी समृद्घतम भाषा जो भारत जैसे बहुभाषाी राष्ट्र की सभी आवश्यकताओं को संतोषजनक ढंग से पूरा कर सकती है। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने सरकारी कर्मचारियों का आवाहन करते हुए कहा था कि हिंदी ही देश में एक मात्र ऐसी भाषा है, जिसका प्रयोग संपर्क भाषा के तौर पर किया सकता है, क्योंकि ये देश के अधिकतर लोगों द्वारा बोली तथा समझी जाती है। आर्य समाज के प्रख्यात नेता स्वामी आनंद मिश्र सरस्वती ने अपने लेख हिंदी और हिंदुस्तानी में लिखा है कि वही सच्चा देश भक्त है जिसे अपनी संस्कृति, भाषा और साहित्य से प्रेम है। जिसको इनसे प्यार नही वह चाहे कुछ और हो सकता है किंतु सच्चा देश भक्त नही हो सकता। भारत में आज भी हिंदी का प्रचलन विभिन्न राज्यों में अंग्रेजी भाषा की तुलना में नगण्य है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तो हिंदी की दुर्दशा के प्रति इतने अधिक संवेदनशील थे कि जब मालवीय जी के आमंत्रण पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आये थे तो अपने भाषण के आरंभ में ही उन्होंने सखेद कहा था विश्वविद्यालय में प्रवेश करते ही मेरी दृष्टि सबसे पहले मुख्य द्वार पर लगे बोर्ड पर पड़ी जिस पर अंग्रेजी में बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी और नीचे हिंदी में बहुत छोटे अक्षरों में लिखा था बनारस हिंदू विश्वविद्यालय। मुझे लगा, जैसे किसी महारानी के पैरों में उसकी एक दासी दुबकी पड़ी है।
आज भी हमारे देश के सभी शहरों तथा कस्बों में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आ गयी है। अधिकतर माता पिता अपने छोटे छोटे बच्चों को अंग्रेजी के शब्द प्रारंभ से ही बड़े चाव से सिखाते हैं। अंग्रेजी भाषा जो हमारे देश की सामाजिकता, सांस्कृतिकता से काफी दूर है, उसके प्रति हमारे बढ़ते लगाव, सनक, शौक का आखिर क्या कारण है? यह तो ऐसा हुआ कि देश से अंग्रेज गये किंतु अंग्रेजी नही गयी।
कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि अंग्रेजी भाषा में जितनी पुस्तकें हैं उतनी अन्य भाषाओं में नही हैं तथा यह भी आधुनिक शिक्षा भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी भाषा सरलता से दी जा सकती है।
यह तर्क भ्रामक तथा हिंदी के प्रति अधूरे ज्ञान का द्योतक है। अंग्रेजी स्कूलों में जो शिक्षा दी जाती है वह बहुत ही महंगी होती है। फिर भी माता-पिता अपनी शान व अपने रहन सहन के उच्च स्तर का प्रदर्शन करते हुए अपने बच्चों को बड़ी बड़ी राशि का दान देकर अंग्रेजी स्कूलों में ही शिक्षा दिलाते हैं।
इस संबंध में हमें जापान से शिक्षा लेनी चाहिए। जापानी भाषा काफी अधूरी भाषा है। वह दुरूह भी इतनी है कि वहां के निवासियों तक को सीखने में कठिनाई होती है।