भारतीय धर्म मे अवैज्ञानिक आस्था – शिव के ज्योतिर्लिंग की वास्तविकता*

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डॉ डी के गर्ग

विशेष:ये लेख ३ भाग में है -कृपया अपने विचार बताये और शेयर करें ताकि उत्साह बना रहे ,बाकि आपकी मर्जी
भाग-3

अब ज्योतिर्लिंग का शब्दार्थ भी समझने का प्रयास करते है। यहाँ तीन शब्द है -लिंग ,शिव ,ज्योति।
१ .लिंग शब्द का शाब्दिक अर्थ है-‘चिह्न’।वह जिससे किसी वस्तु की पहचान हो – चिह्न , लक्षण ,निशान यानि की वह स्थान जहा किसी विशेष चिन्ह या वातावरण के लक्षण दिखाई देते है। जैसा की पहले बताया गया है की ये स्थान साधना और स्वाध्याय की दृष्टि से प्रसिद्ध रहे है जहाँ गुरु अपने शिष्य को धर्म की शिक्षा आदि देते रहे है।
शिव का अर्थ है कल्याणकारी ,सर्वशक्तिशाली ,सर्व्यापक ,निराकार ईश्वर ,जिसने मनोरम प्रकृति की रचना मानव के कल्याण के लिए की है। और उसको उपयुक्त अवसर प्रदान करता रहता है।
ज्योति – पुराणों में वर्णित तथ्यों के अनुसार ज्योतिर्लिंग का अर्थ है व्यापक “ब्रह्म आत्म लिंग” जिसका अर्थ है “व्यापक प्रकाश”।यहाँ प्रकाश का भावार्थ उजियारा नहीं है ,ज्ञान का प्रकाश है ,ज्योति का अर्थ ज्ञान और ज्ञान अर्जन से है .
वेद मंत्रो में ज्योति शब्द विभिन्न अर्थो में लगभग २३५ बार है। एक बहुत के प्रसिद्द ईश्वर स्तुति देखिये :
ओ३म् असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्मामृतं गमय
– बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28
अब देखते है की वेद इस विषय में क्या कहते है ?
ओ३म् उपह्वरे गिरिणां संगथे च नदीनाम् |
धिया विप्रो अजायत || (ऋग्वेद 8/6/28)
अर्थात् :- पर्वतों के समीप वा पर्वतों की उपत्यकाओं में और नदियों के संगम पर ध्यान करने अर्थात् योगाभ्यास करने से मनुष्य विप्र-ज्ञानी, मेधावी, विवेकी, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है |
इसमें यजुर्वेद के मन्त्र का प्रमाण-
ज्योतिर्वै हिरण्यं, तेजो वै हिरण्यमित्यैतरेयशतपथब्राह्मणे’
‘यो हिरण्यानां सूर्यादीनां तेजसां गर्भ उत्पत्तिनिमित्तमधिकरणं स हिरण्यगर्भः’
जिसमें सूर्य्यादि तेज वाले लोक उत्पन्न होके जिसके आधार रहते हैं अथवा जो सूर्यादि तेजःस्वरूप पदार्थों का गर्भ नाम, (उत्पत्ति) और निवासस्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘हिरण्यगर्भ’ है।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधमे ।।
इत्यादि स्थलों में ‘हिरण्यगर्भ’ से परमेश्वर ही का ग्रहण होता है।
भक्त ईश्वर से वास्तव में क्या चाहता है :
तेजोसि तेजो मयि धेहि। वीर्यमसि वीर्यम् महि धेहि ।
बलमसि बलं मयि धेहि । ओजोस्योजो मयि धेहि ।
मन्युरसि मन्युम मयि धेहि । सहोसि सहो मयि धेहि ।- यजुर्वेद १९\९
अर्थात –हे परमात्मा ! आप तेजरूप हैं , हमें तेज से संपन्न बनाइये । आप वीर्यवान हैं , हमें पराक्रमी साहसी बनाइये । आप बलवान हैं , हमे बलशाली बनाइये । आप ओजवान हैं , हमें ओजश्वी बनाइये । आप मन्यु रूप हैं , हमें भी अनीति का प्रतिरोध करने की क्षमता दीजिये । आप कठिनाइयों को सहन करने वाले हैं , हमें भी कठिनाइयों में अडिग रहने की , उन पर विजय पाने की शक्ति दीजिये ।
आगे भी भक्त चाहता है —
परशुर्भव भव ,
हिरण्यमस्तृतम् भव
पत्थर के समान शरीर सुदृढ़ हो ,बुद्धि परशु के समान तीव्र हो ,रूप स्वर्ण के समान चमकीला हो

साधक की अंतिम इच्छा :
इस मंत्र द्वारा साधक क्या चाहता है,देखे :
ओ३म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्
–ऋग्वेद ७.५९.१२ का मंत्र है

इसमे भक्त ईश्वर से प्रार्थना करता है कि – हे तीनों लोको के स्वामी ईश्वर ! यानी त्र्यम्बकं, आप निराकार, सर्वव्यापक,सर्वज्ञ और सब जगत को पुष्टि प्रदान करने वाले हो, सबके पालनहार हो । जिस प्रकार खरबूजा सुगन्धि व रस से पक कर बेल रुपी बन्धन से स्वत: ही अलग हो जाता है उसी प्रकार हम भी आपकी भक्ति द्वारा ज्ञान बल व आनन्द में परिपक्व होकर इस संसार रुपी बन्धन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जावें !

स्मरण रहे, इस मंत्र का शिवलिंग, महाकाल वा ज्योतिर्लिंग से दूर दूर का भी कोई वास्ता नहीं । रामायण महाभारत आदि सीरियल में शिवलिंग की पूजा दिखाना दुर्भाग्यपूर्ण है । गायत्री मंत्र की तरह यह मंत्र भी परमात्मा की स्तुति प्रार्थना व उपासना का मंत्र है ।महामृत्युंजय मंत्र में किसी ने ‘जय श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग नमो नम:’ वाली लाईन अपनी ओर से जोड दी है, वेदों में कहीं भी ऐसी बात नहीं कही गई है। पण्डे पुजारियों की ये मनघडंत बातें हैं।

ईश्वर का श्रृंगार:
ये भस्माती श्रंगार दर्शन कोरा पाखंड है,ईश्वर शरीरधारी नही है जिसके ऊपर आप कोयला,उपले की राख मल दे,ईश्वर को इसकी कोई ज़रूरत नही ,आपकी कर्म करने के लिए पैदा किया ईश्वर का मजाक बनाने के लिए नही।
विचार करे कि भला परमात्मा को हार श्रंगार की क्या आवश्यकता है ? पूरी सृष्टि ही उसका श्रंगार है, रात्रि को चांद तारों से सजे आकाश को देखो ! कल कल करती बहती नदियों को देखो ! हिम से ढकी पर्वत मालाओं को देखो ! रिमझिम वर्षा करते बादलों को देखो ! …..ये सब अनगिनत श्रंगार ही तो हैं, हम तुच्छ जीव क्या उसका श्रंगार करेंगे ? महाकाल की भद्दी सी शक्ल बना कर उसका श्रंगार करना पागलपन नहीं तो क्या है ? मोक्ष के लिए अष्टांग योग,धर्म के दस नियम जो मनुस्मृति में है उनका पालन करो ,पाप कभी माफ नहीं होंगे ,पाप कर्म से दूर रहना ही इंसान का धर्म है।
गायत्री का जाप और वेद मंत्रो द्वारा यज्ञ करना ही ईश्वर स्तुति है , यही सब ऋषि मुनियों का उपदेश है ।

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