प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज
हिन्दू समाज विश्व का सर्वाधिक संगठित समाज है। हजारों वर्षों से इसके संगठन का स्वरूप गतिशील है। धर्मशास्त्रों में इस तथ्य का ही विवरण अंकित है। संगठित होने के साथ ही यह समतामूलक, न्यायनिष्ठ तथा सामंजस्यमूलक रहा है। इसी कारण टिका रहा है।
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार समाज की इकाइयाँ विविध एवं बहुस्तरीय हैं और उनके परस्पर संबंध अनेक आयामों वाले हैं। इसमें मूल बात यह है कि एक ओर तो कुल, परिवार और गोत्र तथा प्रवर के रूप में जन्म के आधार पर बनी स्वाभाविक इकाइयां हैं, दूसरी ओर गुण और कर्म के आधार पर वर्णों की इकाइयां हैं जो चार हैं। इसी प्रकार अध्यात्म और आध्यात्मिक उपासना के आधार पर सम्प्रदाय भेद एवं साधना भेद से अनेक इकाइयां हैं। साथ ही, भौगोलिक सामाजिक इकाई के रूप में गांव, खाप और जनपद जैसी इकाइयां हैं। इसी प्रकार शिल्प और व्यापार की श्रेणियां हैं जो स्वयं में व्यावसायिक सामाजिक इकाइयां हैं। इस तरह यह एक अत्यन्त समृद्ध और बहुआयामी तथा बहुस्तरीय समाज रहा है। इसकी पहचान किसी एक इकहरे समाज की कसौटियों के आधार पर संभव नहीं है।
विविध प्रतिपादनों के आधार पर यदि सबका सार-संक्षेप देखें तो हिन्दू समाज कुल 11 इकाइयों में सुविभक्त रहा है। व्यक्ति इनसे अलग है। व्यक्ति को समाज की इकाई नहीं माना गया है। व्यक्ति ब्रह्माण्डीय इकाई है। सामाजिकता उसका एक पक्ष है। परंतु व्यक्ति चाहे तो समाज के प्रति अपने ऋण अदा कर समस्त सामाजिकता से ऊपर उठकर अन्य उच्चतर स्तरों पर कार्य कर सकता है। सामाजिकता उसका एक गुण है। समष्टि से एकाकार होने यानी आध्यात्मिक होने सामथ्र्य उसका उच्चतर गुण है। इसीलिए मनु ने कहा है –
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत्।।
इस विषय में व्यक्ति के कर्तव्यों का धर्मशास्त्रीय प्रतिपादन भली भांति समझ लेना चाहिए। मानवधर्मशास्त्र अर्थात मनुस्मृति में अध्याय 6 में ही श्लोक 35 से 43 तक इस विषय का विस्तार से विवेचन निम्नानुसार है –
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्।
अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यध:।।35।।
अधीत्य विधिवद् वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मत:।
इष्टा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्।।36।।
अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान्।
अनिष्टा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन्व्रजत्यध:।।37।।
एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायवान्।
सिद्धिमेकस्य संपश्यन् न जहाति न हृीयते।।42।।
अनग्निरनिकेत: स्याद् ग्रामं अन्नार्थमाश्रयेत्।
उपेक्षकोऽसंकुसुको मुनिर्भावसमाहित:।।43।।
अर्थात् देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण पूर्ण करने के बाद ही मन को मोक्ष में लगाने का अधिकार है। उसके पहले जो मोक्ष का सेवन करता है वह नरक में जाता है। वेदों को विधिपूर्वक पढ़कर तथा धर्मपूर्वक संतान उत्पन्न कर और शक्ति के अनुसार यज्ञ सम्पन्न करने के बाद तब ही मोक्ष में मन लगाने का अधिकार है। बिना ऐसा किये मोक्ष की इच्छा करना भी नरक की ओर यात्रा करना है। अकेले ही अपने लक्ष्य को देखता हुआ मोक्ष के लिए घर से निकलने वाला व्यक्ति न तो किसी को छोडऩे वाला माना जाता है और न ही किसी से आसक्त अथवा लजाने वाला। जिसने यज्ञ छोड़ दिया है और घर भी छोड़ दिया है तथा जिसकी बुद्धि स्थिर है और जो शारीरिक स्थिति के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है तथा सदा ब्रह्मविषयक मनन करता रहता है, ऐसे संन्यासी को केवल भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करना चाहिए। अन्य किसी कार्य के लिए नहीं।
आत्मबोध की साधना सर्वोपरि
इस प्रकार आत्मसत्ता के बोध की साधना में रत व्यक्ति समस्त सामाजिकता से ऊपर है और वह एक ब्रह्माण्डीय इकाई है यानी समष्टिगत इकाई है। इसीलिए व्यक्ति को सामाजिक इकाई के रूप में अलग से नहीं गिना गया है। सामाजिक इकाइयाँ वे हैं जो समाज की अंगभूत हैं। ऐसी 11 इकाइयाँ हैं:- 1 कुल एवं कुलसमूह 2 गोत्र एवं प्रवर 3 वर्ण 4 विद्यावंश एवं गुरूकुल 5 सम्प्रदाय 6 गाँव 7 आश्रम 8 श्रेणियाँ, निगम एवं संघ 9 शिष्ट परिषदें और विद्वत परिषदें 10 पंचायत, जाति पंचायत, ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत, खाप पंचायत और 11 राज्य। ये 11 सामाजिक इकाइयाँ हैं। जिनका संक्षिप्त सार निम्नानुसार है:-
कुल
दैहिक सामाजिक इकाई –
जन्म के आधार पर मनुष्य का कुल निर्धारित होता है। इस प्रकार कुल ही आधारभूत दैहिक सामाजिक इकाई है। कुलों के समूह को किसी समय जाति कहा जाने लगा। अत: जाति द्वितीय स्तर की दैहिक सामाजिक इकाई है। भगवद्गीता में कुलधर्मों को सनातन एवं शाश्वत कहा गया है।
गोत्र एवं प्रवर
संस्कारगत पारम्परिक सामाजिक इकाई –
कोई भी व्यक्ति जिस कुल में जन्म लेता है, उस कुल का एक गोत्र होता है। यह गोत्र कुल के मूल पूर्वज ऋषि के नाम पर होता है। यदि बाद में उन ऋषि की संततियों की अनेक शाखायें हो गई हों तो उन सब का जो गोत्र समूह होता है, उसे प्रवर के नाम से पहचानते हैं। गोत्र एवं प्रवर दोनों मूल पूर्वज ऋषियों का स्मरण कराते हैं। परम्परा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को वयस्क होने पर अपने गोत्र और प्रवर के अनुसार ही विशेष अध्ययन करना चाहिए और यजन की विधि का भी तदनुसार अनुसरण करना चाहिए। क्योंकि पूर्वजन्म के संस्कारों के आधार पर ही कोई व्यक्ति किसी कुल विशेष में जन्म लेता है। अत: संस्कारों के पोषण से उस कुल में जन्म लेने की सार्थकता बनती है। इसीलिए अपने गोत्र और प्रवर के ऋषियों के ज्ञान और आध्यात्मिक साधना का स्मरण आवश्यक है।
वर्ण:
गुण कर्म विभागानुसार सामाजिक इकाई –
हिन्दू समाज में धर्मशास्त्रों के अनुसार गुणकर्म विभाग के आधार पर चार वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र। वर्ण का विभाजन जाति से अलग हैं। जाति जन्म के आधार पर स्वत: निश्चित हो जाती है। क्योंकि वह जन्म की ही सूचक है। जिसका जहां, जिस कुल में जन्म हुआ, वह उसका कुल है और कुलों का समूह जाति है। वर्ण का संबंध गुण और कर्म से है। यह अलग-अलग गुणों और कर्मों के आधार पर किया गया विभाजन है। इसमें आधुनिक काल में सबसे बड़ा विभ्रम यह है कि धर्मशास्त्रों में जिन जातियों को वैश्य कहा है, उनमें से बहुत सी जातियां वर्तमान में अपने को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहती हैं और उनके राजनैतिक प्रतिनिधि कई बार स्वयं को शूद्रों से एकाकार बताते हैं। जिसकी किसी भी प्रकार सनातन धर्मशास्त्रों से पुष्टि नहीं होती। इसका सबसे बड़ा उदाहरण निम्नानुसार है, जो मनुस्मृति के नवम अध्याय में श्लोक 326 से 333 तक कहा गया है –
वैश्यस्तु कृतसंस्कार: कृत्वा दारपरिग्रहम्।
वार्तायां नित्ययुक्त: स्यात्पशूनां चैव रक्षणे।।326।।
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददे पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वा: परिददे प्रजा:।।327।।
न च वैश्यस्य काम: स्यान्न रक्षेयं पशूनिति।
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्या: कथंचन।।328।।
मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च।
गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घंबलाबलम्।।329।।
बीजानामुप्तिविन्च स्यात्क्षेत्रदोषगुणस्य च।
मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वश:।।330।।
सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान्।
लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम्।।331।।
भृत्यानां च भृति विद्याद् भाषाश्च विविधा नृणाम्।
द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च।।332।।
धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद् यत्नमुत्तमम्।
दद्याश्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नत:।।333।।
अर्थात् ”यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न होने के उपरांत गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिए पत्नी का पाणिग्रहण करके वैश्य गृहस्थ धर्म का पालन करे। वह नित्य वार्ता अर्थात् विभिन्न जीविकाओं में से अपने-अपने उपयुक्त जीविका का अवलम्बन लेते हुऐ कृषि, गौरक्षा, वाणिज्य, पशुपालन एवं उससे जुड़े व्यापार में प्रवृत्त हो। क्योंकि प्रजापति ने सभी प्रकार के पशुओं और सम्पत्ति के पालन का दायित्व वैश्यों को दिया है और प्रजाओं की रक्षा का कार्य ब्राह्मणों तथा राजा को दिया है। किसी भी वैश्य को यह नहीं कहना चाहिए कि मैं पशुओं और सम्पत्ति आदि के पालन का कार्य नहीं करूंगा। राजा को देखना चाहिए कि वैश्य ही यह कार्य करे, अन्य नहीं।
वैश्य विविध रत्नों तथा धातुओं और वस्त्रों तथा रसों का व्यापार करे। मणि, मुक्ता, मूंगा, लोहा, कपड़े, सुगंध और रसों के दाम की कमी-बेशी को वह देश और काल के अनुसार सदा जानता रहे। सभी प्रकार के बीजों को बोने की विधि, कौन बीज किस समय में किस प्रकार के खेत में कितने प्रमाण में किस प्रकार बोया जाता है, इत्यादि सभी बातों की जानकारी रखना। खेतों के गुण और दोष को जानना वैश्य का कार्य है। इसी प्रकार तौल और माप को जानना चाहिए तथा तुलायोग आदि का भी अच्छा ज्ञान रखना चाहिए।
वस्तुओं की सारता और निस्सारता यानी अच्छाई और खराबी वैश्य को जानना चाहिए। अलग-अलग देशों के गुण और दोष को जानना वैश्य का धर्म है। बेचे जाने वाली वस्तुओं के लाभ और हानि को उसे भलीभांति जानना चाहिए और कब किस प्रकार किस पशु और सम्पत्ति को बढ़ाया जाए, यह भी उसे जानना चाहिए। इसके साथ ही काम करने वाले भृत्यों का वेतन आदि कब कितना होना चाहिए, इसका ज्ञान वैश्य को ही होता है।
वैश्यों को अनेक देशों के अनेक मनुष्यों की अनेक भाषाओं का जानकार होना चाहिए। इसी प्रकार किसी वस्तु का प्रामाणिक स्वरूप कौन सा है और उसमें मिलावट का स्वरूप क्या है, या किस वस्तु में क्या मिलावट संभावित है, इसकी भलीभांति जानकारी वैश्य को ही होनी चाहिए। खरीद और बिक्री के समस्त व्यापार का ज्ञान तथा उससे होने वाले लाभ आदि का ज्ञान वैश्य को अच्छी तरह होना चाहिए। इस प्रकार वैश्य कृषि, गौरक्षा, पशुपालन और व्यापार वाणिज्य के द्वारा निरंतर धन बढ़ाने का उद्योग करता रहे तथा समाज में सब प्राणियों के लिए प्रयत्न पूर्वक अन्न आदि का भरपूर दान करता रहे, यह वैश्य का धर्म है।”
धर्मशास्त्र के इस आदेश से स्पष्ट है कि खेती, पशुपालन, गौरक्षा, वाणिज्य और व्यवसाय के विविध रूपों से तथा समस्त शिल्प रूपों से और देश देशान्तर का भ्रमण कर वहां के लोगों के विषय में तथा वहां की भाषाओं के विषय में ज्ञान से वैश्य सदा सम्पन्न होते रहे हैं। अत: वर्तमान में ओबीसी कही जाने वाली अधिकांश जातियां जो खेती या शाक या गौरक्षा या फलफूल या औषधियां और सुगंधि द्रव्य का कार्य और व्यापार करती हैं या जो जौहरी का काम करती हों अथवा जो शिल्पी हों या किसी भी प्रकार का व्यापार करते हैं, वे सभी लोग वैश्य हैं।
इस प्रकार अहीर, कुर्मी, काछी, पटेल, जौहरी, व्यापारी, सुनार, लुहार, बढ़ई, कुम्हार, तेली, तमोली, नाई तथा विविध शिल्पी जातियां धर्मशास्त्र के अनुसार वैश्य ही हैं। वे इन दिनों अन्य पिछड़ा वर्ग में गिनी जाती हैं। शिल्पी जातियों को शूद्र मानना शास्त्रसिद्ध नहीं है। क्योंकि शूद्र का कार्य परिचर्या बताया गया है। शिल्प आदि तो वैश्य कर्म हैं।
विद्या वंश एवं गुरूकुल
ज्ञानात्मक सामाजिक इकाई –
सदा से ही भारत में हिन्दू समाज में जातिवंश और विद्यावंश दोनों का समान महत्व रहा है।
जातिवंश या कुलवंश का निर्धारण मातापिता से होता है और विद्यावंश का निर्धारण गुरू से। क्योंकि व्यक्ति एक विराट चेतना पुंज है इसलिए उसकी मूल पहचान भी बहुआयामी है। उसकी देह के समान ही, उसके मन, बुद्धि, अन्त:करण और बौद्धिक साधना तथा बौद्धिक विस्तार का भी महत्व है। देह के जन्म का माध्यम माता-पिता बनते हैं जो स्वयं अपने पूर्वजों की कुल परम्परा का एक मध्यवर्ती बिन्दु होते हैं। इसी प्रकार विद्याबुद्धि के उत्कर्ष का माध्यम गुरू होते हैं। जो स्वयं पूर्वज ऋषियों की गुरू परम्परा में एक मध्यवर्ती बिन्दु होते हैं। आपका विद्यावंश विद्या के क्षेत्र में आपकी विशेषज्ञता की पहचान है। इसलिए विद्यावंश का भी कुल परम्परा के समान ही महत्व है। किसी व्यक्ति ने किस गुरू से शिक्षा प्राप्त की है और किस अनुशासन और किस शाखा में शिक्षा प्राप्त की है, इसका बहुत महत्व है। मनु एवं याज्ञवल्क्य ने इन पर विस्तार से लिखा है।
सम्प्रदाय
उपासनात्मक या आत्मसाधनात्मक सामाजिक इकाई –
ज्ञान तथा उपासना की इकाई है सम्प्रदाय। यह समाज की ही एक इकाई है। यह कोई स्वतंत्र निकाय नहीं है। इसलिए कोई भी सम्प्रदाय सनातन धर्म की मर्यादा से बाहर नहीं जा सकता। जाने पर वह सनातन धर्म का अंग नहीं रह जाऐगा। इन दिनों भांति-भांति के स्वयं को गुरू प्रचारित करने वाले लोग अपने मतवाद को एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ बताने की जो होड़ करते हैं, वह उन्हें सम्प्रदाय की मर्यादा से बाहर कर देता है। वे यूरोपीय ‘आईडियालॉजी’ के आधार पर बने ऑईडियालॉग जैसा होने की नकल करते हैं और इस स्तर पर स्वयं को सबसे पृथक और स्वतंत्र बताने या प्रचारित करने का काम करते हैं। परंतु ऐसा करते ही वे यूरो-ईसाई परंपरा के अनुसरणकर्ता अनजाने में ही हो जाते हैं।
किसी का स्वतंत्र विचारक होना अर्थात् परंपरा से असिद्ध होना भारतीय ज्ञान परंपरा में उस व्यक्ति के अप्रामाणिक होने का लक्षण माना जाता है। प्रामाणिक वही है जो स्वतंत्र नहीं है अपितु किसी न किसी परम्परा का पोषण कर रहा है। जो स्वतंत्र है, वह अविश्वसनीय है, उसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। केवल उसकी ही प्रामाणिकता मान्य है जो श्रुति और स्मृति की परंपरा से पुष्ट हो और उसका ही अनुसरण करता दिखे। क्योंकि मंत्रदृष्टा ऋषि आप्त पुरूष (पथ प्रदर्शक) हैं। अत: उनके कथन आप्त प्रमाण हैं। परंतु शेष लोगों के कथन तो तर्क द्वारा परीक्षणीय हैं और जब तक वे आप्त प्रमाण के अनुसरण में ना दिखें, उनकी सत्यता मानी नहीं जा सकती।
गाँव या भौगोलिक
सामाजिक इकाई –
प्रत्येक व्यक्ति चेतन अंश है। परमसत्ता की अंशभूत सत्ता है। अत: कोई व्यक्ति किसी भी कुल में जन्मा हो, वह एक भौगोलिक सामाजिक इकाई का अंगभूत होता है और इसलिए उस इकाई में विद्यमान सभी कुल सामाजिक प्रयोजन की दृष्टि से महत्व रखते हैं। विशेषकर व्यवहार और न्याय की दृष्टि से भौगोलिक सामाजिक इकाइयों का बहुत महत्व है। गाँव के सभी कुल गाँव का सहज अंग है और उन सभी इकाइयों का समवेत विचार और समवेत व्यवहार आवश्यक है। इसीलिए सदाचार और अनाचार, सत् और असत्, पाप और पुण्य का निर्धारण सम्पूर्ण गाँव की पंचायत द्वारा किसी सन्यासी या सर्वमान्य ब्राह्मण की अध्यक्षता में ही किया जा सकता है। इसलिए गाँव सामाजिकता और व्यवहार तथा न्याय की भी आधारभूत इकाई हैं। गाँव का पूरे क्षेत्र का एक समुच्चय खाप कहलाता है और खाप इस दृष्टि से गाँव की इकाई का बड़ा रूप है। खाप की पंचायतों में ही व्यवहार का निर्धारण और न्याय होता रहा है। इसी प्रकार व्यापारियों के अपने समूह के मध्य यदि व्यवहार का निर्णय करना हो तो वह काम श्रेणियों की पंचायतों से होता रहा है। मनुस्मृति के अध्याय 6, 7 एवं 8 में उन पर प्रकाश डाला गया है।
आश्रम
जीवन विभागात्मक सामाजिक इकाई –
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार जीवन विभागात्मक सामाजिक इकाइयां हैं जो मनुष्य की आयु को 100 वर्ष का मानकर चार चरणों में विभाजित की गई हैं। इनमें से संन्यास आश्रम सबके लिए अनिवार्य नहीं है। परंतु शेष तीनों आश्रम सामान्यत: सभी के लिए अनिवार्य कहे गये हैं। पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण अगर किसी ब्रह्मचारी को वेदाध्ययन के समय ही मोक्ष की अभिलाषा तीव्र हो जाऐ तो उसे ब्रह्मचर्य से सीधे संन्यास आश्रम में प्रवेश करने का अधिकार है। शेष सभी लोगों को ब्रह्मचर्य के उपरांत गृहस्थ आश्रम में और फिर गृहस्थ आश्रम के कर्तव्य सम्पन्न कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश का विधान है परंतु स्त्री के लिए यह अनिवार्यता नहीं है। वह चाहे तो संतति के साथ गृहस्थ आश्रम में ही रह सकती है। मनु, गौतम एवं बौधायन ने इन विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला है।
श्रेणी
वृत्ति विभागानुसार सामाजिक इकाइयां
वृत्ति के भेद से हजारों इकाइयां हैं। आधुनिक दौर में जिन्हें प्रोफेशनल्स कहा जाता है उन्हें ही धर्मशास्त्रों में श्रेणियां कहा गया है। पुरोहित, पुजारी, सैनिक आदि में से प्रत्येक की अनेक श्रेणियां हैं। इसी प्रकार सुनार, लुहार, बढ़ई, कर्मकार, ताम्रकार, कांस्यकार, कुम्हार, तैलिक, कृषक, भविष्यवक्ता, नक्षत्रवेत्ता, दर्जी, भूमिवेत्ता, जलस्रोतवेत्ता, विविध प्रकार के शिल्पी तथा राजकीय अधिकारी एवं कर्मचारी – इनकी अलग-अलग श्रेणियां शक्तिशाली रही हैं। विशेषकर व्यापारियों की श्रेणियां अत्यन्त सम्पन्न रही हैं और इतिहास में उनके द्वारा बहुत बड़े-बड़े मंदिरों, तालाबों, कुओं, बावडिय़ों, उद्यानों, धर्मशालाओं, वीथियों और सड़कों (राजमार्गों) तथा सेतुओं आदि का निर्माण होता रहा है। दान के लिए अनेक व्यापारियों की श्रेणियां प्रसिद्ध और सम्मानित रही हैं। इसके साथ ही न्याय के संबंध में भी राजा को श्रेणियों के नियम के अनुसार ही श्रेणियों से संबंधित व्यवहार में निर्णय करना होता है। इस प्रकार श्रेणियां न्यायिक सामाजिक इकाई भी रही हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में द्वितीय एवं चतुर्थ अधिकरण में यह विषय विस्तार से दिया गया है।
शिष्ट परिषदें एवं विद्वत परिषदें
विद्यामूलक सामाजिक इकाइयाँ
जहां ज्ञान और उचित अनुचित के संबंध में धर्मशास्त्रों की दृष्टि से कोई संशय उपस्थित हो इसके लिए शिष्ट परिषदों और विद्वत परिषदों का विधान रहा है। इसके विस्तृत विधि-विधान हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति में व्यवहाराध्याय में श्लोक 192 है
‘श्रेणिनैगमपाखण्डिगणानामप्ययं विधि:।
भेदं चैषां नृपो रक्षेत्पूर्ववृत्तिं च पालयेत्।।’
पंचायतें, ग्राम पंचायतें, जाति पंचायतें, खाप आदि
न्यायिक सामाजिक इकाइयां-
न्याय के लिए भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से पंचों की परंपरा रही है। संबंधित क्षेत्र के प्रतिष्ठित एवं धर्मात्मा के रूप में मान्य लोगों को किसी भी विवाद में न्याय के लिए कम से कम पाँच या अधिक लोगों को जब एकत्र कर उनके समक्ष प्रकरण प्रस्तुत किया जाता है तो उस समय ऐसे पंचों को पंच परमेश्वर कहा जाता है और उनका निर्णय संबंधित क्षेत्र में सर्वमान्य होता है। न्याय की ऐसी दृढभावना एवं सर्वमान्य परंपरा रही है कि पंच परमेश्वर के रूप में चुने गये व्यक्ति स्वयं अपने या अपने परिजनों के भी दोषपूर्ण कार्य या अनुचित कार्य के विरूद्ध निष्पक्ष न्यायिक निर्णय देते रहे हैं। यह परंपरा 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत में विद्यमान थी और इस परंपरा की विश्व स्तर पर ख्याति थी। अनेक विदेशी यात्रियों ने इस पंच परमेश्वर की पंरपरा का अपने-अपने ढंग से उल्लेख किया है और अद्भुत प्रशंसा की है।
राज्य
राज्य सर्वोपरि सामाजिक इकाई है। वर्णाश्रम धर्मप्रतिपालन, सभी को धर्म की मर्यादा में मर्यादित रखना और उसके लिए राजदंड का प्रयोग करना तथा दंडनीति का दृढ़ता से अवलम्बन करना राजधर्म है। सामाजिक दृष्टि से राज्य ही सबका शास्ता है जबकि आध्यात्मिक दृष्टि से गुरू या परमेश्वर ही शास्ता है। राज्य भारत की सदा से समादृत इकाई है क्योंकि राज्य या शासक कभी भी अपनी ओर से कोई नियम बनाने के अधिकारी नहीं हैं वे समाज की सर्वमान्य परंपराओं और शास्त्रों के अनुसार ही न्यायिक निर्णय दे सकते हैं और वही उनका कर्तव्य भी है। इस प्रकार राज्य धर्म से शासित हैं और धर्म के अधीन हैं। वह लोक के कल्याण के लिए राजधर्म का पालन धर्मशास्त्रों के प्रकाश में करता है। गौ ब्राह्मण प्रतिपालन एवं वर्णाश्रम धर्म प्रतिपालन सर्वोपरि राजधर्म है।
इन 11 इकाइयों में सुविभक्त हिन्दू समाज विश्व का सबसे प्राचीन और सबसे संगठित समाज है। इसके संगठन और सुव्यवस्था से घबराकर 18वीं शताब्दी ईस्वी से ईसाई मिशनरियों ने इस पर अविचारित और अनुचित आक्षेप लगाना तथा लांछन लगाना प्रारंभ किया है। हिन्दू समाज इतना बड़ा और स्वयं में विभोर है कि लोग उनकी बात को पहले तो उपहास में उड़ाते रहे और फिर जब सुनना शुरू किया तो व्यवस्थित तर्कपूर्ण ढंग से उनकी समीक्षा शुरू कर दी जिससे कि उनके सारे तर्कों की धज्जियाँ उड़ गई। परंतु इस बीच राज्य के बल से 19वीं शताब्दी ईस्वी के उत्तराद्र्ध से अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा आरोपित कर अपने शिष्यों की बड़ी संख्या देश में फैला दी जो कि ईसाई मिशनरियों के लक्ष्य के लिए कार्य करने को ही हिन्दू समाज के सुधार का कार्य बताने लगे। समाज सुधारकों ने हिन्दू समाज के विनाश के लिए बहुत परिश्रम किया है।