सनातन धर्म की शिक्षा भारत में भी कुछ विश्वविद्यालयों में प्रारंभ हो गई है। इसके साथ ही अब भारत की संस्कृति उस अभिशाप से बाहर निकलने लगी है, जो अभिशाप उसे साम्राज्यवाद इस्लामी और यूरोपीय साम्राज्यवाद के कारण लगा था। यह हम सभी का दायित्व है कि सनातन धर्म की शिक्षाओं को न केवल आत्मसात करें, बल्कि उसे दूसरों को भी उपलब्ध कराएं। इसी दायित्व के अनुरूप भारतीय धरोहर महाभारत के शांति पर्व से अपना अभियान प्रारंभ कर रहा है। वास्तव में शांति पर्व विश्व का न केवल प्राचीनतम संविधान है, बल्कि वह किसी आधुनिक संविधान से भी कहीं व्यापक है। प्रस्तुत है पहला भाग – प्रवीण शर्मा
भगवान् श्रीकृष्ण ने पितामह भीष्म से कहा कि धर्मराज युधिष्ठिर बहुत लज्जित हैं। पूजनीय, माननीय गुरुजनों, भक्तों तथा अध्र्य आदि के द्वारा सत्कार करने योग्य सम्बन्धियों एवं बन्धु-बान्धवों का बाणों द्वारा मार दिए जाने के कारण शाप के भय से डरे होने के कारण आपके निकट नहीं आ रहे हैं।
तब भीष्म जी ने कहा- श्रीकृष्ण ! जैसे दान, अध्ययन और तप ब्राह्मणों का धर्म है, उसी प्रकार समरभूमि में शत्रुओं के शरीर को मार गिराना क्षत्रियों का धर्म है।
जो असत्य के मार्ग पर चलने वाले पिता (ताऊ- चाचा), बाबा, भाई, गुरुजन, सम्बन्धी तथा बन्धु- बान्धवों को संग्राम में मार डालता है, उसका वह कार्य धर्म ही है।
केशव ! जो क्षत्रिय लोभ वश धर्म मर्यादा का उल्लंघन करने वाले पापाचारी गुरुजनों का भी समराङ्गण में वध कर डालता है, वह अवश्य ही धर्म का ज्ञाता है।
जो लोभवश सनातन धर्म मर्यादा की ओर दृष्टि पात नहीं करता, उसे जो क्षत्रिय समर भूमि में मार गिराता है, वह निश्चय ही धर्मज्ञ है।
जो क्षत्रिय युद्धभूमि में रक्त रूपी जल, केशरूपी तृण, हाथी रूपी पर्वत और ध्वज रूपी वृक्षों से युक्त खून की नदी बहा देता है, वह धर्म का ज्ञाता है।
संग्राम में शत्रु के ललकारने पर क्षत्रिय-बन्धु को सदा ही युद्ध के लिए उद्यत रहना चाहिये। मनु जी ने कहा है कि युद्ध क्षत्रिय के लिए धर्म का पोषक, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और लोक में यश फैलाने वाला है।
भीष्म जी के ऐसा कहने पर धर्म पुत्र युधिष्ठिर उनके पास जाकर एक विनीत पुरुष के समान उनकी दृष्टि के सामने खड़े हो गये।
फिर उन्होंने भीष्म जी के दोनों चरण पकड़ लिए। तब भीष्म जी ने उन्हें आश्वासन देकर प्रसन्न किया और उनका मस्तक सूँघकर कहा- ‘बेटा! बैठ जाओ’।
तत्पश्चात् सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ गङ्गानन्दन भीष्म जी ने उनसे कहा-‘तात! मै इस समय स्वस्थ हूँ, तुम मुझसे निर्भय होकर प्रश्न करो। कुरुश्रेष्ठ! तुम भय न मानों।
युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म के द्वारा राज धर्म का वर्णन, राजा के लिए पुरुषार्थ और सत्य की आवश्यकता, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता तथा राजा की परिहासशीलता और मृदुता से प्रकट होने वाले दोषों का वर्णन किया।
भगवान् श्रीकृष्ण और भीष्म को प्रणाम करके युधिष्ठिर ने समस्त गुरुजनों की अनुमति लेकर प्रश्न किया – पितामह! धर्मज्ञ विद्वानों की यह मान्यता है कि राजाओं का धर्म श्रेष्ठ है। मैं इसे बहुत बड़ा भार मानता हूँ, अत: आप मुझे राजधर्म का उपदेश कीजिये। पितामह! राजधर्म सम्पूर्ण जीव जगत का परम आश्रय है; अत: आप राजधर्मों का ही विशेष रूप से वर्णन कीजिये। कुरुनन्दन! राजा के धर्मों में धर्म, अर्थ और काम तीनों का समावेश है, और यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मोक्षधर्म भी राज धर्म में निहित है।
जैसे घोड़ों को काबू में रखने के लिए लगाम और हाथी को वश में करने के लिए अकुंश है, उसी प्रकार समस्त संसार को मर्यादा के भीतर रखने के लिए राजधर्म आवश्यक है; वह उसके लिए प्रग्रह अर्थात् उसको नियन्त्रित करने में समर्थ माना गया है।
प्राचीन राजर्षियों द्वारा सेवित उस राजधर्म में यदि राजा मोहवश प्रमाद कर बैठे तो संसार की व्यवस्था ही बिगड़ जाए और सब लोग दुखी हो जाएँ।
जैसे सूर्यदेव उदय होते ही घोर अन्धकार का नाश कर देते है। उसी प्रकार राजधर्म मनुष्यों के अशुभ आचरणों का, जो उन्हें पुण्य लोकों से वञ्चित कर देते हैं। निवारण करता है। अत: आप सबसे पहले मेरे लिए राजधर्मों का ही वर्णन कीजिये; क्योंकि आप धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हैं। हम सब लोगों को आप से ही शास्त्रों के उत्तम सिद्धान्त का ज्ञान हो सकता है। भगवान् श्रीकृष्ण भी आपको ही बुद्धि में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
भीष्म उवाच
भीष्म जीने कहा – महान् धर्म को नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करके सनातन धर्मों का वर्णन आरम्भ करूँगा। अब तुम नियमपूर्वक एकाग्र हो मुझसे सम्पूर्ण रूप से राजधर्मों का वर्णन सुनो, तथा और भी जो कुछ सुनना चाहते हो, उसका श्रवण करो।
राजा को सबसे पहले प्रजा का रञ्जन अर्थात् उसे प्रसन्न रखने की इच्छा से देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति शास्त्रोक्त विधि के अनुसार बर्ताव करन चाहिये (अर्थात् वह देवताओं का विधिपूर्वक पूजन तथा ब्राह्मणों का आदर सत्कार करे)।
देवताओं और ब्राह्मणों का पूजन करके राजा धर्म के ऋण से मुक्त होता है और सारा जगत् उसका सम्मान करता है।
बेटा युधिष्ठिर! तुम सदा पुरुषार्थ के लिए प्रयत्न शील रहना। पुरुषार्थ के बिना केवल प्रारब्ध राजाओं का प्रयोजन नहीं सिद्ध कर सकता।
यद्यपि कार्य की सिद्धि में प्रारब्ध और पुरुषार्थ-ये दोनों साधारण कारण माने गये हैं, तथापि मैं पुरुषार्थ को ही प्रधान मानता हूँ। प्रारब्ध तो पहले से ही निश्चित बताया गया है।
अत: यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाए तो इसके लिए तुम्हें अपने मन में दु:ख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने आपको पुरुषार्थ में ही लगाये रखो। यही राजाओं की सर्वोत्तम नीति है।
सत्य के सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओं के लिए सिद्धि कारक नहीं है। सत्य परायण राजा इहलोक और परलोक में सुख पाता है।
ऋषियों के लिए भी सत्य ही परम धन है। इसी प्रकार राजाओं के लिए सत्य से बढ़कर दूसरा कोई ऐसा साधन नहीं है, जो प्रजावर्ग में उसके प्रति विश्वास उत्पन्न करा सके।
जो राजा गुणवान्, शीलवान्, मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, कोमल स्वभाव, धर्मपरायण, जितेन्द्रिय, देखने में प्रसन्न मुख और बहुत देने वाला उदार चित्त है, वह कभी राज लक्ष्मी से भ्रष्ट नहीं होता।
तुम सभी कार्यों में सरलता एवं जन कोमलता का अवलम्बन करना, परंतु नीतिशास्त्र की आलोचना से यह ज्ञात होता है कि अपने छिद्र, अपनी मन्त्रणा तथा अपने कार्य-कौशल-इन तीन बातों को गुप्त रखने में सरलता का अवलम्बन करना उचित नहीं है।
जो राजा सदा सब प्रकार से कोमलता पूर्ण बर्ताव करने वाला ही होता है, उसकी आज्ञा का लोग उल्लघंन कर जाते हैं, और केवल कठोर बर्ताव करने से भी सब लोग उद्विग्र हो उठते हैं; अत: तुम आवश्यकतानुसार – कठोरता और कोमलता दोनों का अवलम्बन करो।
दाताओं में श्रेष्ठ बेटा पाण्डु कुमार युधिष्ठिर! तुम्हें ब्राह्मणों को कभी दण्ड नहीं देना चाहिये; क्योंकि संसार में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।
महात्मा मनु ने अपने धर्मशास्त्रों में दो श्लोकों का गान किया है।
अद्भ्योऽग्रिब्र्रहा्रत: क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् ।
तेषां सर्वत्रगं तेज: स्वासु योनिषु शाम्यति ॥ 24 ॥
अयो हन्ति यदाश्मानमग्निना वारि हन्यते ।
ब्रहा्र च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रय: ॥ 25 ॥
अग्नि जल से, क्षत्रिय ब्राह्मण से और लोहा पत्थर से प्रकट हुआ है। इनका तेज अन्य सब स्थानों पर तो अपना प्रभाव दिखाता है; परंतु अपने को उत्पन्न करने वाले कारण से टक्कर लेने पर स्वयं ही शान्त हो जाता है। जब लोहा पत्थर पर चोट करता है, आग जल को नष्ट करने लगती है और क्षत्रिय ब्राह्मण से द्वेष करने लगता है, तब ये तीनों ही दु:ख उठाते है। अर्थात् ये दुर्बल हो जाते हैं।
ऐसा सोचकर तुम्हें ब्राह्मणों को सदा नमस्कार ही करना चाहिये; क्योंकि वे श्रेष्ठ ब्राह्मण पूजित होने पर भूतल के ब्रह्म को अर्थात् वेद को धारण करते हैं।
यद्यपि ऐसी बात है, तथापि यदि ब्राह्मण भी तीनों लोकों का विनाश करने के लिए उद्यत हो जाए तो ऐसे लोगों को अपने बाहु-बल से परास्त करके सदा नियन्त्रण में ही रखना चाहिये। इस विषय में भी दो श्लोक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें पूर्वकाल में महर्षि शुक्राचार्य ने गाया था।
एवं चैव नरव्याघ्र लोकत्रयविघातका: ।
निग्राह्या एव सततं बाहुभ्यां ये स्युरीदृशा: ।। 27 ।।
श्लोकौ चोशनसा गीतौ पुरा तात महर्षिणा।
तौ निबोध महाराज त्वमेकाग्रमना नृप ।। 28 ।।
वेदान्त का पारङ्गत विद्वान् ब्राह्मण ही क्यों न हो; यदि वह शस्त्र उठाकर युद्ध में सामना करने के लिए आ रहा हो तो धर्मपालन की इच्छा रखने वाले राजा को अपने धर्म के अनुसार ही युद्ध करके उसे कैद कर लेना चाहिये। जो राजा उसके द्वारा नष्ट होते हुए धर्म की रक्षा करता है, वह धर्मज्ञ है । अत: उसे मारने से वह धर्म का नाशक नहीं माना जाता। वास्तव में क्रोध ही उनके क्रोध से टक्कर लेता है।
यह सब होने पर भी ब्राह्मणों की तो सदा रक्षा ही करनी चाहिये; यदि उनके द्वारा अपराध बन गये हों तो उन्हें प्राणदण्ड न देकर अपने राज्य की सीमा से बाहर करके छोड़ देना चाहिये।
इनमें कोई कलङ्कित हो तो उस पर भी कृपा ही करनी चाहिये। ब्रह्महत्या, गुरुपत्नीगमन, भ्रूणहत्या तथा राजद्रोह का अपराध होने पर ब्राह्मण को देश निकाल देने का विधान है-उसे शरीरिक दंड कभी नही देना चाहिए।
जो मनुष्य ब्राह्मणों के प्रति भक्ति रखते हैं वे सबके प्रिय होते हैं। राजाओं के लिए ब्राह्मण के भक्तों का संग्रह करने से बढ़कर दूसरा कोई कोश नही है।।
मरु (जलरहित भूमि), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत और मनुष्य – इन छ: प्रकार के दुर्गों में मानव दूर्ग ही प्रधान है। शास्त्रों के सिद्धान्त को जानने वाले विद्वान् उक्त सभी दुर्गों में मानव दुर्ग को ही अत्यन्त दुर्लभ मानते हैं।
अत: विद्वान् राजा को चारों वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये, धर्मात्मा और सत्यवादी नरेश ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है।
तुम्हें सदैव और सब के साथ क्षमाशील ही नहीं बने रहना चाहिये; क्योंकि क्षमाशील हाथी के समान कोमल स्वभाव वाला राजा दूसरों को भयभीत न कर-सकने के कारण अधर्म के प्रसार में ही सहायक होता है।
इसी बात के समर्थन में बार्हस्पत्य-शास्त्र का एक प्राचीन श्लोक पढ़ा जाता है।
क्षममाणं नृपं नित्यं नीच: परिभवेज्जन:
हस्तियन्ता गजस्यैव शिर एवारुरुक्षति
नीच मनुष्य क्षमाशील राजा का सदा उसी प्रकार तिरस्कार करते रहते हैं, जैसे हाथी का महावत उसके सिर पर ही चढ़े रहना चाहता है।
तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णो नैव भवेन्नृप: ।
वासन्तार्क इव श्रीमान् न शीतो न च घर्मद:
जैसे वसन्त ऋतु का तेजस्वी सूर्य न तो अधिक ठंडक पहुँचाता है और न कड़ी धूप ही करता है, उसी
प्रकार राजा को भी न तो बहुत कोमल होना चाहिये और न अधिक कठोर ही।
राजा को! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चारों प्रमाणों के द्वारा सदा अपने-पराये की पहचान करते रहना चाहिये।
राजा को सभी प्रकार के व्यसनों को त्याग देना चाहिये; परंतु साहस आदि का भी सर्वथा प्रयोग न किया जाए, ऐसी बात नहीं है (क्योंकि शत्रु विजय आदि के लिए उसकी आवश्यकता है); अत: सभी प्रकार के व्यसनों की आसक्ति का परित्याग करना चाहिये।
व्यसनों में आसक्त हुआ राजा सदा सब लोगों के अनादर का पात्र होता है और जो भूपाल सबके प्रति अत्यन्त द्वेष रखता है, वह सब लोगों को उद्वेगयुक्त कर देता है।
राजा का प्रजा के साथ गर्भिणी स्त्री का- सा बर्ताव होना चाहिये। जैसे गर्भवती स्त्री अपने मन को अच्छे लगने- वाले प्रिय भोजन आदि का भी परित्याग करके केवल गर्भस्थ बालक के हित का ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा को भी चाहिये कि नि:संदेह वैसा ही बर्ताव करे।
राजा अपने को प्रिय लगने वाले विषय का परित्याग करके जिसमें सब लोगों का हित हो वही कार्य करे।
राजा को कभी भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिये। जो अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता और सदा धैर्य रखता है, उस राजा को कभी भय नहीं होता।
सेवकों के साथ अधिक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिये क्योंकि राजा से जीविका चलाने वाले सेवक अधिक मुँहलगे हो जाने पर मालिक का अपमान कर बैठते हैं। वे अपनी मर्यादा में स्थिर नहीं रहते और स्वामी की आज्ञा का उल्लंघन करने लगते हैं।
वे जब किसी कार्य के लिए भेजे जाते हैं तो उसकी सिद्धि में संदेह उत्पन्न कर देते हैं। राजा की गोपनीय त्रुटियों को भी सबके सामने ला देते हैं। जो वस्तु नहीं माँगनी चाहिये उसे भी माँग बैठते हैं, तथा राजा के लिए रखें हुए भोज्य पदार्थों को स्वयं खा लेते हैं।
राज्य के अधिपति भूपाल को कोसते हैं, उनके प्रति क्रोध से तमतमा उठते हैं; घूस लेकर और धोखा देकर राजा के कार्यों में विघ्न डालते हैं।
वे जाली आज्ञा पत्र जारी करके राजा के राज्य को जर्जर कर देते हैं। रनिवास के रक्षकों से मिल जाते हैं अथवा उनके समान ही वेशभूषा धारण करके वहाँ घूमते फिरते हैं।
राजा के पास ही मुँह बनाकर जँभाई लेते और थूकते है नृपश्रेष्ठ! वे मुँह लगे नौकर लाज छोड़कर मन मानी बातें बोलते हैं।
परिहासशील कोमल स्वभाव वाले राजा को पाकर सेवकगण उसकी अवहेलना करते हुए उसके घोड़े, हाथी अथवा रथ को अपनी सवारी के काम में लाते हैं।
आम दरबार में बैठकर दोस्तों की तरह बराबरी का बर्ताव करते हुए कहते हैं कि राजन्! आप से इस काम का होना कठिन है, आपका यह बर्ताव बहुत बुरा है।
इस बात से यदि राजा कुपित हुए तो वे उन्हें देखकर हँस देते हैं और उनके द्वारा सम्मानित होने पर भी वे धृष्ट सेवक प्रसन्न नहीं होते। इतना ही नहीं, वे सेवक परस्पर स्वार्थ-साधन के निमित्त राज सभा में ही राजा के साथ विवाद करने लगते हैं।
राजकीय गुप्त बातों तथा राजा के दोषों को भी दूसरों पर प्रकट कर देते हैं। राजा के आदेश की अवहेलना करके खिलवाड़ करते हुए उसका पालन करते हैं।
राजा पास ही खड़ा खड़ा सुनता रहता है निर्भय होकर उसके आभूषण पहनने, खाने, नहाने और चन्दन लगाने आदि का मजाक उड़ाया करते हैं।
उनके अधिकार में जो काम सौंपा जाता है, उसको वे बुरा बताते और छोड़ देते हैं। उन्हें जो वेतन दिया जाता है, उससे वे संतुष्ट नहीं होते हैं और राजकीय धन को हड़पते रहते हैं।
जैसे लोग डोरे में बँधी हुई चिडिय़ा के साथ खेलते हैं उसी प्रकार वे भी राजा के साथ खेलना चाहते हैं और साधारण लोगों से कहा करते हैं कि ‘राजा तो हमारा गुलाम है।
राजा जब परिहासशील और कोमल स्वभाव का हो जाता है, तब ये ऊपर बताये हुए तथा दूसरे दोष भी प्रकट होते हैं।
(साभार : महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय-पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय:, षट्पञ्चाशत्तमोऽध्याय:, पृष्ठ-170 से 176, गीता प्रेस)