भक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त करने वाले संसार में ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जिनमें भगवान के दिव्य गुण भासने लगें। ऐसी महान आत्मा, पुण्यात्मा युगों-युगों के बाद अवतरित हुआ करती हैं जिनके चेहरे पर दिव्य तेज होता है, सौम्यता होती है, जो उनका आभामण्डल बनाती हैं जिसके कारण लोग उन्हें भगवान का प्रतिरूप मान लेते हैं जैसे भगवान राम, भगवान कृष्ण, महात्मा गौतम बुद्घ, भगवान महावीर इत्यादि। इस संदर्भ में रामचरित मानस में महाकवि तुलसी दास की ये पंक्यिां दृष्टव्य हैं :-
सोई जानई जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होई जाई
अयोध्याकांड पृष्ठ 369
हे प्रभु! आप को तो वही जान सकता है जिसे आप जना दें, अर्थात आप अपनी कृपा से उसकी आत्मप्रज्ञा को लगा दें यानि कि विवेक का तीसरा नेत्र खोल दें। जैसे कोई दिया हो, जिसमें बाती हो, तेल हो तो वह किसी जलते हुए दीये के सम्मुख होते ही तुरंत प्रकाशमान हो जाता है और कालांतर का अंधेरा छूमंतर हो जाता है।
ठीक ऐसे ही जिस भक्त के हृदयरूपी दीये में प्रभु भक्ति की बाती हो, पवित्रता का सुगंधित तेल हो तो वह प्रभु के सम्मुख आने पर प्रभु जैसा ही प्रकाशमान हो जाता है किंतु जिसके हृदय रूपी दीये में मोह-ममता, छल कपट, काम, क्रोध, ईष्र्या, द्वेष, मत्सर और अहंकार की बाती हो, जो पापों के बदबूदार गंदे जल से भीगी हो तो वह प्रभु के सम्मुख भी आ जाए तो भी वह प्रकाश शून्य ही रहता है, जैसे महाभारत काल में दुर्योधन भगवान कृष्ण के सम्मुख था और रामायण काल में रावण भगवान राम के सम्मुख होते हुए भी गहन अंधकार का जीवन जीते रहे, क्योंकि उनके हृदयरूपी दीये में पापों का बदबूदार पानी भरा था और बाती भी पंचविकारों की थी।
कहने का अभिप्राय यह है कि परमात्मा को सम्मुख होने से पहले अर्थात उसकी दिव्यता को ग्रहण करने अथवा उसके स्वरूप में विलीन होने व उस जैसा बनने के लिए बड़ा तप करना पड़ता है। तत्क्षण आत्मा, परमात्मा का स्वरूप धारण कर लेती है, जैसे जल की बूंद सागर में मिलकर सागर का रूप ग्रहण कर लेती है। लोहा जब अग्नि की दिव्यता को प्राप्त हो जाता है तब लोहा भी अग्नि ही बन जाता है। ठीक इसी प्रकार जब भक्त भगवान की दिव्यता को प्राप्त हो जाता है तब वह भी भगवान जैसा भासने लगता है, और भी सरलता से समझने के लिए एक दृष्टांत देखिये, आंखों ने मेंहदी को देखा, देखने के बाद जब आंख से मेंहदी का रंग पूछा गया, तो आंख ने मेंहदी का रंग हरा बताया किंतु जब मेंहदी को, हथेली की त्वचा ने मेंहदी के संपर्क में आकर अर्थात मेंहदी में रच-बसकर देखा तो हथेली ने अपना अनुभव आंख के अनुभव से भिन्न बताया।
उसने कहा मेंहदी का रंग तो लाल है, जिसने मुझे भी लाल कर दिया है। ठीक इसी प्रकार जो लोग भगवान को वाचिक रूप से (मौखिक रूप से) जानते हैं उनका अनुभव सतही है, सैद्घांतिक है, काल्पनिक है किंतु जो अपने आपको आत्मा को भगवान के स्वरूप में मेंहदी की तरह रचा बसा लेते हैं उनका अनुभव अनुभूतिपूर्ण होता है क्रियात्मक होता है वे उस परम सत्य में अवगाहन करते हैं और भी सरल शब्दों में कहूं तो वे हथेली की त्वचा की तरह उसके परमात्मा रंग में रंग जाते हैं।
ब्रहमानंद को प्राप्त हो जाते हैं, परमात्मा के दिव्य गुण उनमें भासने लगते हैं और उसी के समान लगने लगते हैं इसीलिए महाकवि तुलसीदास ने ठीक ही कहा है–
जानत तुम्हहिं तुम्हई होई जाई।
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