लेखक श्री विष्णु शर्मा
प्रायः अनेक प्रकार के विभिन्न विचारधारा वाले लोग गीता पर यह आक्षेप लगाते रहते हैं कि गीता में जिहाद है और भीषण नरसंहार का आदेश दिया गया है किंतु आश्चर्य की बात तो ये है कि ऐसे लोगों ने कभी गीता को उठाकर तक भी देखा नहीं होता.. केवल सुनी सुनाई बातों पर ही मुहर लगाकर ये असत्य प्रचारित करने लगते हैं जबकि सच इसके बिल्कुल ही विपरीत होता है। आइए देखें सत्य क्या है : –
जब भगवान श्रीकृष्ण पांडवों का अधिकार मांगने हस्तिनापुर जाते हैं तो दुर्योधन साफ इनकार कर देता है और कहता है –
‘ सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव! ‘
अर्थात ‘ मैं बिना युद्ध किए सुईं की नोंक जितनी भूमि नहीं दूंगा ‘
इस वाक्यांश से दुर्योधन की नीयत साफ पता चलती है कि यदि उस से ज़रा सी भी जमीन चाहिए तो उस से युद्ध करना होगा.. इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है
इस प्रकार युद्ध की नींव दुर्योधन शांति प्रस्ताव को ठोकर मारकर ही रख देता है
और भीष्म द्रोण कृप आदि भी विवश होकर उसका ही साथ देते हैं और अपनी विवशता इन
शब्दों में व्यक्त करते हुए लगभग सभी एक ही बात कहते हैं –
अर्थस्य पुरुषो दासो दासत्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥
अतस्त्वां क्लीववद् वाक्यं ब्रवीमि कुरुनन्दन ।
भृतोऽस्म्यर्थेन कौरव्य युद्धादन्यत् किमिच्छसि॥
महाराज ! पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। यह सच्ची बात है। मैं कौरवों के द्वारा अर्थ से बँधा हुआ हूँ ॥
कुरुनन्दन ! इसीलिये आज मैं तुम्हारे सामने नपुंसक के समान वचन बोलता हूँ। धृतराष्ट्र के पुत्रों ने धन के द्वारा मेरा भरण-पोषण किया है। इसलिये ( तुम्हारे पक्ष होकर ) उनके साथ युद्ध करनेके अतिरिक्त तुम क्या चाहते हो,यह बताओ।।
( यह कथन भीष्म, द्रोण , कृप और शल्य का है, पुनरुक्ति दोष न हो इसलिए एक ही बार दिया जा रहा है , विस्तृत जानकारी के लिए महाभारत के भीष्म पर्व का भीष्म वध पर्वाध्याय पढ़ें जोकि महाभारत में गीता के तुरंत बाद ही है )
इस से इन सब विवशता पता चलती है साथ ही ये भी ज्ञात होता है कि ये सभी जानते थे कि ये सभी गलत पक्ष का साथ दे रहे हैं और गलत पक्ष का साथ देने वाला भी उतना ही गलत होता है जितना कि गलत करने वाला।
अब आते श्रीमदभगवत गीता पर –
यद्यपि ( हालांकि) अर्जुन विषाद में डूबकर शोकाकुल हो जाते हैं फिर भी वे कौरवों को आततायी और दुष्ट मानते हैं : –
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याजनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥
” हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के इन पुत्रों का हनन करने से हमें क्या सुख प्राप्त हो सकता है। यद्यपि ये आततायी हैं, दुष्ट हैं तो भी इहें मारने से हमें पाप ही लगेगा। ” ( गीता – 1/36 )
यहां आततायी शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। वसिष्ठ स्मृति में आततायी के लक्षण इस प्रकार दिए गए हैं –
अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिः धनापहः । क्षेत्रदारहरश्चैव षडेत आततायिनः ॥’
अर्थात –
1. घर में आग लगाने वाला
2. विष देने या खिलाने वाला
3. शस्त्र हाथ में लेकर मारने के लिए आने वाला
4. धन लूटने वाला
5. खेत या भूमि लूटने वाला
6. स्त्री हरण करने वाला
ये सभी छह प्रकार का काम करने वाले लोग आततायी हैं और कौरवों में आततायियों के छह के छह लक्षण घट रहे थे –
1. लाक्षागृह में आग लगवाना
2. भीमसेन को धोखे से विष देना
3. हमेशा युद्ध में शस्त्र लेकर मारने को तैयार रहना
4. द्यूत ( जुए) में पांडवों का धन , राजपाट हथिया लेना
5. जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का हरण करना एवं दुर्योधन तथा दुशासन द्वारा भरी सभा में द्रौपदी का अपमान करना तथा उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश करना
6. जीविका के लिए पांच गांवों तक का न देना
इस प्रकार समस्त कौरव मारे जाने योग्य थे क्योंकि वे सभी आततायी थे। मनु स्मृति में भी आततायी को देखते ही मारने का आदेश है –
‘आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।’
इसलिए भगवान श्री कृष्ण इन सबको वध्य मानते थे क्योंकि जिस देश के गणमान्य लोग ही पापी हों वहां की प्रजा भी धीरे धीरे वैसी ही हो जाती है।