दिनेश पंत
इस वर्ष देश में उम्मीद से कम और अनियमित वर्षा ने ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे की चिंता को बढ़ा दिया है। विकास और उन्नति के नाम पर औद्योगिकीकरण ने पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। निवेश के बढ़ते अवसर ने गांव को भी तरक्की के नक्षे पर मजबूती से उकेरा है। गांवों में निवास करने वाले लोगों की आर्थिक समृद्धि का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कितने गांव पक्की संड़कों से जुड़े हैं, बैंक शाखाएं कितनी हैं, टेलीफोन की संख्या, बिजली व गैस के कनैक्षन कितने हैं। लेकिन आर्थिक समृद्धि के इन सूचकों के स्तर पर ग्रामीण भारत विषेषकर हिमालयी राज्यों में अवसिथत गांवों की तस्वीर कुछ और ही बयां करती है। यूं तो पूरे हिमालयी राज्यों में चार करोड़ लोगों के आशियाने हैं लेकिन अलग-अलग राज्यों में रहने वाले लोग विपरीत परिसिथतियों में जीवन जी रहे हैं। हिमालयी राज्यों में एक ओर जहां बाहरी लोगों का हस्तक्षेप बढ़ रहा है वहीं निम्न रोजगार, खराब शिक्षा, प्रति व्यक्ति निम्न आय, परिवहन व स्वास्थ्य सुविधाओं का अकाल भी बना हुआ है। इसके अलावा पूरे हिमालय में जैव विविधताओं का तेजी से क्षरण हो रहा है। खतरनाक मृदा क्षरण, भूमि कटाव व भूमि निम्नीकरण जैसी समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं। विकास के नाम पर मानव ने जो हस्तक्षेप हिमालयी क्षेत्रों में किया है उसके परिणाम तो आये दिन देखने को मिल रहे है। ऐसा भी नहीं कि इन सभी समस्याओं से यहां के लोग अनभिज्ञ हैं, समय-समय पर इन दुष्वारियों के हल के प्रयासों के लिए लाखों रूपयों के सेमिनार व बैठकों का आयोजन भी होता रहा है। दुखद पहलू यह है कि यहां पर भी हिमालय से संबधिंत समस्याओं व उसके खतरों को लेकर सवाल तो उठाए जाते हैं लेकिन इसके समाधान के लिए ठोस कार्य योजना नहीं बन पाती हैं। हिमालयी राज्यों में आज दो तरह का विकास हो रहा है।
एक ओर बड़े बांधों का निर्माण किया जा रहा है। जिसमें हजारों लोग अपनी जमीनों से विस्थापित होकर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो रहे हैं। दूसरा, सरकार के रहमोकरम पर सीमेंट के रास्तों का ऐसा निर्माण किया जा रहा है जो कभी टिकाऊ नहीं हो पाया। पहाड़ के पानी के वे स्रोत जो लोगों की प्यास बुझाया करते थे वहां सीमेन्ट के टैंक बनाकर स्रोतों को नष्टी कर पहाड़ में पानी की एक बड़ी समस्या को खड़ा कर दिया गया है। जो रास्ते पहले चलने लायक थे उन में सरकारी पैसों को खपाने के लिए खडज़ों का निर्माण कर दिया गया जो चलने लायक ही नहीं रहे। अनियोजित विकास और विकास के पैसों के दुरूपयोग के कई उदाहरण हिमालयी ग्रामीण भारत में आसानी से देखे जा सकते हैं। हिमालयी जंगल, जमीन, पानी, हवा और जानवर व यहां के लोगों को उन्हीं की जमीन से बेदखल कर विकास का दावा किया जा रहा है। स्थानीय लोगों के मौलिक ज्ञान की अनदेखी कर उन पर बाहरी किताबी ज्ञान थोपने से सिथतियां दुष्वार हो गयी हैं। हिमालयी ग्रामीण भारत में हो रहे विकास पर नजर ड़ालें तो योजनाओं की तस्वीर कुछ और ही नजर आयेगी। पानी के टैंक कहे जाने वाले इन राज्यों की सिथति यह है कि यहां गर्मियों में पानी के स्रोत सूखने लगे हैं। बरसात में नदी नाले उफान के कारण तबाही मचाने लगते हैं और सर्दियों में पानी जम जाता है। किसानों के खेंतों में पानी पहुंचाने के नाम पर सिचाई विभाग ऐसी-ऐसी योजनाएं बना डालता है जिससे पानी कभी खेत में पहुंचता ही नहीं। कमोबेश यही हाल टेलीफोन व बिजली योजनाओं का है। तार आकाश में झूल रहे हैं और ट्रांसफार्मर जंग खा रहे हैं, लेकिन लम्बे चौड़े बिल लोगों तक पहुंचाने में विभाग कोई कोताही नहीं बरतता है। लेकिन इन सवालों पर कभी गंभीर रूप से न तो चिंतन हुआ है न ही आत्ममंथन कि जनता को जो मूलभूत बुनियादी सुविधाऐं लाखों करोड़ों खर्च करने के बाद पहुंचनी चाहिए थी वह नहीं पहुंच पा रही हैं। समस्याओं व कारणों से अवगत होने के बाद भी निस्तारण के ठोस उपाय नहीं किए जा रहे हैं। हिमालयी क्षेत्रों में आज कहीं तो धूप तो कहीं छाया वाली सिथति दिखाई पड़ रही है। पर्यावरणीय असंतुलन व अंधाधुंध विकास की नीतियों ने यहां की प्राकृतिक सुन्दरता व पर्यावरणीय संतुलन को लील लिया है। पिछले कई सालों से देखने में आया है कि यहां परिर्वतन काफी तेजी से हो रहा है। सिथति यह है कि जहां हिमालयी राज्यों के एक हिस्से में बाढ़ ने तबाही मचाई है तो कई इलाके सूखे की चपेट में है। बावजूद इसके हिमालयी राज्यों में विकास के नाम पर बेहतरीन नीतियां चल रही है। नतीजतन अब विकास व पर्यावरण के प्रष्नों को लेकर बहसें तेज हो रही है व आन्दोलन चलाये जा रहे हैं। फिर भी पृथक हिमालयी नीति का सवाल अभी भी गर्त में ही है। पहाड़ों की पर्यावरणीय समस्या की सबसे बड़ी दिक्कत यह रही कि यहां के नीति निर्धारकों ने न तो कभी भूवैज्ञानिकों की चेतावनी पर ध्यान दिया, न ही पहाड़ के असली दर्द को समझ पाए। यह अलग बात है कि पर्यावरण को बेहतर बनाने व इसमें रहने लायक कोशिशें करने व पार्यवरण संरक्षण को लेकर एक तबका चिंतित दिखाई देता है और समय-समय पर आवाजें भी बुलन्द करता रहा है। सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियां पर्यावरण को बचाने के लिए भले जो कवायद कर रही हों लेकिन यह बात अहम है कि पर्यावरण को बचाने के लिए यह कार्य कितने सार्थक हो पा रहे है। हिमालय की पहचान रहे ग्लेशियर, पहाड़ आज विकास के नाम पर उजाड़े जा रहे है और प्राकृतिक आपदाओं को दैवीय आपदा का नाम देकर अपनी जिम्मेदारियों से मुह मोड़ा जा रहा है। विकास के नाम पर हिमालयी पारिस्थितिकीय से जिस तरह छेड़छाड़ की जा रही है उसका परिणाम हिमालयी क्षेत्र को भूस्खलन, भूकंप के नाम पर भुगतना पड़ रहा है। आज हिमालयी राज्यों की नियति यह बनी है कि भूस्खलन व भूकंपों का विनाशकारी इतिहास ही इसकी पहचान बन चुके है। पिछले कई सालों से हिमालयी राज्य, मानव द्वारा पैदा की गयी प्राकृतिक आपदाओं की सजा भुगत रहा है। यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम क्या होंगे इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
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