डॉ. वंदना सेन
महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद का साहित्य कालजयी है। उन्होंने देश और समाज के बारे में गंभीर चिंता करते हुए अपनी लेखनी चलाई है। समाज की जटिलताओं को कहानी और उपन्यासों के माध्यम से जिस प्रकार से प्रस्तुत किया है, उसके बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे आज भी समसामयिक लगती हैं। कहा जाता है कि साहित्य वही है जो हमेशा प्रासंगिक बना रहे। प्रेमचंद जी ने समाज आधारित साहित्य की रचना की। जो आज भी नवोदित साहित्यकारों के लिए एक सार्थक दिशा का बोध कराता है। वास्तव में प्रेमचंद की रचनाएं समाज का दर्पण हैं। प्रेमचंद जी साहित्यकारों के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है। यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसखरों का ही काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊंचा है, वह हमारा पथ प्रदर्शक होता है। वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है। हमारे सद्भावों का संचार करता है। हमारी दृष्टि को फैलाता है।
प्रेमचंद ने केवल मनोरंजन के लिए साहित्य रचना नहीं की, बल्कि अपनी रचनाओं के द्वारा समाज को नयी रूपरेखा, नये आदर्शों मे ढालने का प्रयास किया। उनके सृजन कर्म का उद्देश्य साहित्य के द्वारा समाज में प्रेम और भाईचारे का संदेश देने और एक ऐेसे शोषण विहीन सामज की रचना करना था, जिसका आधार स्वतंत्रता हो। प्रेमचंद अपने साहित्य रचना के माध्यम से इस उद्देश्य में सफल रहे हैं।
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद्र का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर से चार मील दूर लमही नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम अजायब राय और माता का नाम आनंदी देवी था। प्रेमचंद ने साहित्य की अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी चलायी। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर प्रसिद्ध बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने इन्हें उपन्यास का सम्राट कहकर संबोधित किया। प्रेमचंद ने नाटक, उपन्सास, कहानी, समीक्षा, लेख, संस्मरण संपादकीय आदि विधाओं में साहित्य का सृजन किया, पर उन्हें ख्याति कथाकार के रूप में प्राप्त हुई। अपने जीवनकाल में ही वे उपन्यास सम्राट की उपाधि से भी सम्मानित हुए। प्रेमचंद्र ने सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सभापति के रूप में संबोधन किया। उनका यही भाषण प्रगतिशील आंदोलन के घोषणापत्र का आधार बना।
प्रेमचंद की भाषा हिंदी उर्दू मिश्रित थी। अलंकारों और मुहावरों ने उन्हें सजीवता प्रदान की। इनकी भाषा के कारण इनकी रचना के सभी पात्र व चरित्र हमारे समक्ष सजीव हो उठते हैं। यही इनकी भाषा की सबसे बड़ी ताकत है। इनकी भाषा सहज सरल एवं बोधगम्य है। साहित्य एक विराट उद्देश्य को लेकर चलने वाली विधा है और उसमें मनुष्य के सामाजिक जीवन को अधिक सूक्ष्मता एवं विस्तार से जांचा परखा जाता है। उपन्यास साहित्य की सशक्त एवं प्रवाहमय धारा है। मनुष्य चरित्र के अनेकानेक चित्र प्रस्तुत करने के लिए सबसे अधिक विकल्प उपन्यासकार के पास ही होते हैं।
प्रेमचंद्र के उपन्यास व्यष्टि और समष्टि की सटीक व्याख्या करते हैं। उसमें मनुष्यों की सैद्धांतिक जटिलताओं और प्रपंचों से मुक्ति पाने का संदेश दिया गया। उनके उपन्यास सहजता व सरलता का प्रसार करते हैं। प्रेमचंद्र के उपन्यासों की रचना उस दौर में हुई, जब भारत सरकार में अंग्रेजी राज और उसके अत्याचार चरम पर थे। उनके उपन्यास में तत्कालीन घटनाएं सजीवता के साथ चित्रित की गयी हैं। प्रेमचंद ने अपने समय में साहित्य और समाज के बीच एक मजबूत सेतु की भूमिका निभायी, जिससे आम आदमी के मन में भी साहित्य के लिए भरोसा पैदा हुआ। प्रेमचंद ने अपना साहित्य मानव जीवन के उत्थान को ध्यान में रखते हुए लिखा।
लोक संस्कृति के ऐतिहासिक संदर्भों एवं परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए प्रेमचंद्र ने ग्रामीण जीवन की अनेक प्रवृतियां, सादगी और उनके जीवन दर्शन को अपने उपन्यास में अभिव्यक्त किया है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान में देश के किसानों के जीवन और उनके संघर्ष को मार्मिक संवेदनाओं के साथ चित्रित किया है। गोदान उपन्यास में किसान की नैया भूख और गरीबी के बीच झूलती रहती है। मगर फिर भी वह जरा भी विचलित नहीं होता, वह अपने आपको परिस्थितियों से घिरा नहीं मानता। गोदान में होरी का चरित्र भारतीय किसान को बड़ी ही सहजता से निरूपित करता है। गोदान में होरी की मृत्यु एक प्रतीक के रूप में ही है। जो किसान संस्कृति की अमरता और शाश्वतता के लिए चिर संघर्ष की चेतना का उद्घोष करता है। इसलिए गोदान उपन्यास का विश्व साहित्य मे एक महत्वपूर्ण स्थान है। गोदान में प्रेमचंद ने एक किसान को उपन्यास का नायक बनाकर प्रस्तुत किया है। गोदान भारतीय जीवन साहित्य की अनुपम कृति है।
प्रेमचंद चाहते थे कि देश की सभी माताएं अपने बेटों को वीरोचित संस्कार दें। प्रेमचंद ने अपने नारी पात्रों में देशभक्ति का एक उच्चतम शिखर दिखाया है। रंग भूमि में जान्हवी को यह मंजूर नहीं था कि उनका बेटा वीरों जैसी जिंदगी की बजाय प्रेम संबंधों में अपना ध्यान लगाए। विनय द्वारा सोफिया के नाम पत्र लिखा देखकर वह सोफिया को धिक्कारती हुई उससे कहती है मैं विनय को ऐसा मनुष्य बनाना चाहती है जिस पर समाज को गर्व हो। मैं अपने बेटों को सच्चा राजपूत बनाना चाहती हूं। आज वह किसी की रक्षा के निमित अपने प्राण दे तो मुझसे अधिक भाग्यवती संसार में न होगी।
प्रेमचंद्र सबसे पहले उपन्यासकार है, जिन्होंने उपन्यास साहित्य को तिलिस्मी दुनिया से बाहर निकाला और अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिकता के साथ चित्रण किया। प्रेमचंद एक सच्चे समाज सुधारक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को सुधारने का प्रयास किया। प्रेमचंद ने अपने पात्रों का चुनाव समाज के उपेक्षित वर्ग से अधिक किया है। उन्होंने अपनी कहानियों में भारत के वंचित शोषित, दलित, पिछड़े और गरीब किसानों के लिए संघर्ष वर्णित किया है। उनकी कहानियां दलितों व स्त्रियों के दु:खों को उजागर ही नहीं करती, बल्कि उसे मार्मिक भी बना देती हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य जगत में कहानी कला को अक्षुण्ण बनाये रखने वाली कहानीकारों में प्रेमचंद्र अग्रणी है। प्रेमचंद का लेखन उनके इस कथन को पूरी तरह से चरितार्थ करता है कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
(लेखिका विभागाध्यक्ष व वरिष्ठ साहित्यकार हैं)
डॉ. वंदना सेन
पीजीवी कॉलेज, जीवाजीगंज
लश्कर ग्वालियर मध्यप्रदेश
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