ललित गर्ग
भारत के सन्दर्भ में न्यूजीलैंड में मंत्री के इस्तीफे का यह उदाहरण इतना ही बताने के लिए काफी है कि कानून-कायदे सख्त हों इससे ज्यादा जरूरी यह है कि कानून सबके लिए समान भी हों। अपराध या गलती होने पर राजनेता पहले उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने पद को त्यागे।
नैतिकता, मर्यादा एवं आदर्श मूल्यों के लिये दुनिया में पहचान बनाने वाले भारत की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने लगातार नैतिकता को तार-तार किया है। नए राजनीतिक मौसम में सत्ता और दाग दोनों साथ-साथ चलते हैं, जो दुर्भाग्यपूर्ण है एवं नये बनते भारत की सबसे बड़ी बाधा है। इन हालातों में छोटे से देश न्यूजीलैंड से आई एक खबर भारतीय राजनेताओं के लिए नसीहत भरी है। वहां की न्याय मंत्री किरी एलन को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ गया। इस्तीफे की वजह यह रही कि हद से ज्यादा नशे की हालत में वाहन चलाते हुए किरी ने एक खड़ी हुई कार को टक्कर मार दी थी। जो हादसा हुआ वह यों तो सामान्य लगता है लेकिन प्रतिक्रिया के रूप में नैतिक आधार पर मंत्री ने पद छोड़ दिया, यह भारत के आधुनिक राजनेताओं के लिये एक प्रेरणा है।
भारत के सन्दर्भ में न्यूजीलैंड में मंत्री के इस्तीफे का यह उदाहरण इतना ही बताने के लिए काफी है कि कानून-कायदे सख्त हों इससे ज्यादा जरूरी यह है कि कानून सबके लिए समान भी हों। अपराध या गलती होने पर राजनेता पहले उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने पद को त्यागे। यह एक अवसर है कि न्यूजीलैंड से मिली नसीहत और नैतिकता के मापदण्डों पर भारत के राजनेता एवं सत्ता पर बैठे लोगों के लिये खरा उतरने की प्रेरणा लेने का। लेकिन ऐसा न होना एक गंभीर स्थिति है। मणिपुर में 4 मई का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें कुकी समुदाय की महिलाओं को मैतेई समुदाय के पुरुषों के एक समूह ने नग्न परेड कराया और उनके साथ दरिंदगी की। मणिपुर की घटना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि दो महिलाओं को नग्न घुमाने की घटना ने 140 करोड़ भारतीयों को शर्मसार किया है, लेकिन प्रश्न है कि वहां के मुख्यमंत्री ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद को त्यागने का उदाहरण क्यों नहीं प्रस्तुत किया।
इससे पूर्व लम्बे समय तक बृजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों से लगातार यौन उत्पीडन के आरोप लगते रहे, प्रदर्शन होते रहे, उन्होंने सचाई सामने आने तक अपने पद से त्यागपत्र क्यों नहीं दिया। जबकि उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 506 (आपराधिक धमकी), 354 (महिला की शीलता भंग करना), 354-ए (यौन उत्पीड़न) और 354-डी (पीछा करना) के तहत आरोप तय हो गए हैं। इससे पूर्व लखीमपुर खिरी में जिस क्रूर तरीके से मंत्री के बेटे ने हिंसक घटना को अंजाम दिया गया, उसकी वीडियो भी वायरल हुई। इसके बावजूद सम्बन्धित मंत्री महोदय से न तो इस्तीफा लिया गया, न एक जिम्मेदार पद पर होने की नैतिकता के निर्वहन के लिए इस मामले में न्याय होने तक स्वयं इस्तीफे की कोई पेशकश की गई।
वर्तमान दौर पर निगाह डालें तो राजनीति में संवेदना, मर्यादा और नैतिकता लगातार छिजती जा रही है। जो न केवल राजनीति पर ही सवाल खड़ा नहीं करती, बल्कि मानवीय संवेदना को भी कठघरे में लाती है। अभी तक अमीर बापों की नशे में धुत संतानों द्वारा गरीब लोगों को कुचलकर मार डालने के मामले ही सामने आते रहे हैं। लेकिन जब कभी समाज में अमीर और रसूखदार लोगों द्वारा जघन्य अपराध किये गये, तो पूरे समाज ने विरोध में उतरकर अपने सभ्य होने का प्रमाण दिया। नैना साहनी तंदूर हत्याकांड हो या नितीश कटारा मर्डर केस या निर्भया का मामला, इन मामलों पर पूरे समाज ने एकजुटता दिखाई, लेकिन लखीमपुर खीरी, बृजभूषण की घटना हमें सोचने के लिए मजबूर करती है कि मानवीय संवेदना का स्तर लगातार कम होता जा रहा है या हम एक निष्ठुर और असंवेदनशील समाज होने की दिशा में तेजी से बढ़ रहे हैं?
राजनीति में अनैतिकता तरह-तरह से पांव पसार रही है। दलबदल, नेताओं पर बदले की भावना से हो रही कार्रवाइयां भी अनैतिकता के ही उदाहरण हैं। शरद पवार के भतीजे अजित पवार के नेतृत्व में राकांपा के विधायकों द्वारा दल-बदल कर पिछले दिनों शिंदे की शिवसेना-भाजपा सरकार के साथ जाने से इस बात का पर्दाफाश हो गया है कि जो नेता चाहते हैं, वे खुद को सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच देते हैं और यह सब काम बड़ी सटीकता से किया जाता है तथा इसमें मनों का मेल, विचारधारा, सिद्धान्त, नैतिकता या व्यक्तिगत पसंद आदि जैसे कोई बहाने नहीं बनाए जाते। नैतिकता एवं मूल्यों की वकालत करने वाली भारतीय जनता पार्टी भी राजनीतिक जोड़तोड़ के लिये मूल्यों से मुंह फेरने लगी है एवं स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन के लिए जानी जाती है। प्रलोभन तथा धमकाने के लिए राज्य तंत्र एवं सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर उसने भी नैतिकता को ताक पर ही रखा है।
राजनीति में सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं और मर्यादा के हमाम में सब नंगे हैं- यह राजनीतक का एक कटू सच है। बिहार के नीतीश कुमार, पिछले वर्ष अगस्त तक जब जद (यू) ने पाला नहीं बदला था, वह मोदी का गुणगान कर रहे थे, किंतु अपने मित्र से दुश्मन और दुश्मन से मित्र बने लालू की राजद के साथ सरकार बनाने से उनका रुख बदल गया है। ऐसा लगता है राजनीति में अब नैतिकता भी जीना सीख गई है। वह आधुनिक ख्यालों में पूरी तरह स्वतंत्र, मर्यादा एवं नैतिकताविहीन विचारधारा की हो गयी है। सारे राजनेता राजनीतिक दलों के नंगे बदन को देखकर भी विचलित नहीं होते, फिर भी आम लोग या फटे कपड़ों से ढके भूखे लोगों को आशा हैं कि राजनीति की नैतिकता किसी तरह पूरी तरह ढक जाए।
लाल बहादुर शास्त्री एवं अटल बिहारी वाजपेयी की उच्च राजनीतिक परम्पराओं वाले देश में अपनी जिम्मेदारी को तय करते हुए स्वयं इस्तीफे की उम्मीद तो खैर आज के इस दौर में बेमानी ही समझनी चाहिए, क्योंकि यह वह दौर नहीं है, जब राजनेता अपने विभाग से सम्बन्धित किसी और की गलती पर भी इस्तीफा दे दिया करते थे या एक मत के लिये सरकार को गिरने देते हैं। खुद को कानून से ऊपर समझने की फितरत रखने वाले भारतीय राजनेताओं एवं मंत्रियों के लिए छोटे से देश न्यूजीलैंड से आई खबर निश्चित ही अनुकरणीय है। प्रश्न है कि न्यूजीलैंड की तरह हमारा देश कानून का सख्ती से पालन एवं नैतिक निष्ठा दिखाने में कब तक निस्तेज बना रहेगा? न्यूजीलैंड में न केवल कानून सख्त हैं बल्कि नैतिकता और मर्यादा के मामले में राजनेता दूसरे देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा सतर्क हैं। वहां की न्याय मंत्री को छोटी-सी घटना पर न केवल तीन-चार घंटे पुलिस स्टेशन में भी रहना पड़ा था बल्कि इस्तीफा भी देना पड़ा। वहां के प्रधानमंत्री ने न्याय मंत्री का इस्तीफा स्वीकार भी कर लिया है। नजीर पेश करने का यह न्यूजीलैंड में कोई अकेला उदाहरण नहीं है। इस साल के शुरू में ही वहां की तत्कालीन पीएम जेसिंडा अर्डर्न ने यह कहते हुए पद से इस्तीफे का ऐलान कर दिया था कि अब उनके पास काम करने के लिए ऊर्जा नहीं बची है। दुनिया की सबसे कम उम्र में महिला प्रधानमंत्री बनने वाली जेसिंडा ने न केवल कोरोना महामारी बल्कि अपने देश में आतंकी हमलों का बहादुरी से मुकाबला किया था। भारत जैसे देश के लिए तो ये ज्यादा सीख देने वाली हैं जहां कुर्सी पर बैठे लोगों के लिए न कानून कोई मायने रखता है और न ही नियम-कायदे। मामूली सड़क हादसों में हर कोई पहुंच की धौंस देता नजर आता है। नैतिकता की बातें तो हमारे यहां सिर्फ राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा पत्रों में ही नजर आती हैं। इतना ही नहीं, बड़े-बड़े घोटालों में नाम आने पर भी राजनेता सत्ता का रौब दिखाने से नहीं चूकते। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां राजनेता नैतिकता के आदर्श स्थापित करने वाले नहीं रहे।