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डॉ डी के गर्ग
भाग-१
पौराणिक मान्यता :श्रीकृष्ण जी के 16 कलाओं से युक्त थे। श्रीकृष्ण जी में ही ये सारी खूबियां समाविष्ट थी। कृष्ण की ये वो 16 कलायें हैं, जो हर किसी व्यक्ति में कम या ज्यादा होती हैं।ये कलाये है-1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।
विश्लेषण:
पूरे विषय को समझने के लिए सबसे पहले जीव और परमात्मा का भेद समझना जरुरी है -पहले ये तथ्य भली भांति समझ ले की परमात्मा सर्वशक्तिशाली , सर्वगुणसम्पन्न,जन्म मरण से रहित और परम है। ईश्वर एक महान रचनाकार है,वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है जो जीव की कल्पना से भी बाहर है।जबकि जीव जन्म मरण के बंधन में फसा हुआ ,कर्म करने के लिए पैदा हुआ है और जीवन काल सीमित होने के कारण वह कुछ ही कलाओ में निपुण हो पाता है। यही कारण है की जीव कितना भी विद्वान , बुधिमान, लेखक ,जादूगर या वैज्ञानिक ही क्यों ना हो लेकिन जीव ईश्वर कभी भी नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे। इसीलिए जीव अपनी प्रारंभिक बुद्धि का प्रयोग करके ज्ञान अर्जित करता है। उसकी प्रथम शिक्षक माँ ,पिता और फिर आचार्य होते है।आचार्य उसको अधिकांश कलाओं में पूर्ण निपुण बनाने का प्रयास करते है।
इससे ये स्पष्ट हुआ की जीव कितना भी विद्वान क्यों न हो,ईश्वर की जगह नही ले सकता।
दूसरा बिंदु जिस पर ध्यान देने की जरुरत है –१)जगत में तीन द्रव्य,(जिन्हें पदार्थ, तत्व अथवा वस्तुएं भी कहते हैं )अजर ,अमर होती है। जो जगत के कारण हैं। इन तीनों में से किसी एक के बिना भी जगत का निर्माण नहीं हो सकता। अगर यह तीन है तो जगत का निर्माण संभव है। पहला ,जगत बनाने वाला परमात्मा है जो दूसरे तत्व प्रकृति से तीसरे तत्व जगत और शरीर का निर्माण करता है। शरीर में आत्मा का निवास कराता है। और ये आत्मा भी अजर,अमर है।
उक्त तीन द्रव्यों में से दो द्रव्य आत्मा और परमात्मा चेतन द्रव्य हैं। प्रकृति अथवा प्रकृति जन्य पदार्थ सभी जड़ हैं। जैसे हमारा मन जड़ पदार्थ है क्योंकि वह प्रकृति से उत्पन्न है ।हमारी बुद्धि जड़ पदार्थ है क्योंकि वह प्रकृति से उत्पन्न है ।हमारी इंद्रियां प्रकृति से उत्पन्न है इसलिए वे भी जड़ है ।हमारा पूरा शरीर जो पांच तत्व से बना है , वह भी प्रकृति जन्य है, इसलिए वह जड़ है। इसलिए शरीर नाशवान एवं परिवर्तनशील होता है। लेकिन आत्मा जब तक इस जड़ शरीर में निवास करती है तो वही आत्मा इस जड़ शरीर को चलाती है।
परंतु परमात्मा पूरे ब्रह्मांड को चलाता है।
प्रकृति स्थान घेरती है क्योंकि उसमें परमाणु होते हैं। लेकिन आत्मा और परमात्मा स्थान नहीं घेरते क्योंकि उनके अंदर परमाणु नहीं होते।
परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है और आत्मा केवल एक देशीय अर्थात एक शरीर में रहने वाली होती है। परमात्मा सर्वज्ञ है,सर्वत्र है, सर्वांतर्यामी है, वही आत्मा अल्पज्ञ है।
परमात्मा सर्वशक्तिमान है ,इसके उलट आत्मा सर्वशक्तिमान नहीं है। लेकिन परमात्मा सर्वशक्तिमान होते हुए भी दूसरा परमात्मा पैदा नहीं कर सकता , और अन्य आत्मा पैदा नहीं कर सकता, तथा प्रकृति पैदा नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा परमात्मा और प्रकृति यह तीनों तत्व हमेशा से है और हमेशा रहेंगे।
२)अब यहाँ हम वैदिक ग्रंथों का उदहारण देकर सिद्ध करेंगे की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :
यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा। प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी। (यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)
अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।
यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और ये बताया है की दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव यानी मानव ये कार्य कभी नहीं कर सकता है क्योंकि जीव अल्पज्ञ है ,पूर्ण नहीं है तथा वह एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है।
जीव मानव को गृहाश्रम की इच्छा के अतिरिक्त ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान द्वारा प्रेरणा दी है ।लेकिन जीव के लिए ये इतना आसान नही,जैसा की लगता है,कुछ बिरले ही कुछ कलाओं तक पहुंच पाते हैं।
ऐसा पुरुष उस परम पुरुष की उपासना द्वारा ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर लेता है , ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते थे।