आज भारत में ‘कपिल’ संत नही हैं, बल्कि आज का कपिल भ्रष्ट राजनीति का ‘सिम्बल’ (सिब्बल) है। वह स्वयं राज कर रहा है और राजनीति की दलदल में आकण्ठ डूबा है। उसके पास मुहर भी है और मोहरें भी हैं। उसे किसी से मांगने की आवश्यकता नही है। राजा उसका अपना है इसलिए देश का खजाना (प्राकृतिक संसाधन) उसके अपने पास है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा मांगी गयी राय ‘प्रेजीडेंसियल रेफरेंस’ को कांग्रेस के कपिल सिब्बल सरकार के हक में आयी बता रहे हैं और इस बात पर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं कि इसमें सरकारी नीतियों को उचित ठहराया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्राकृतिक स्रोतों के बंटवारे पर जो अपनी राय महामहिम को भेजी है। वह एक दम तर्क संगत है। जिसमें स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रीय स्रोतों का बंटवारा केवल जनता की भलाई के लिए ही संविधान की धारा 14 में उल्लेखित नागरिकों के मध्य बराबरी के सिद्घांत के आधार पर ही हो सकता है। पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यदि सरकार कोई ऐसी नीति बनाती है जो संविधान के इस अनुच्छेद में दिये बराबरी के अधिकार के सिद्घांत के विपरीत हो तो न्यायालय उसे निरस्त भी कर सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय की इस राय पर सरकार की ‘कपिल एण्ड कंपनी’ खुश हो रही है। क्योंकि दो मोहरों की बजाए चार और चार से आठ अंत में आठ से सारा राज्य मानो कपिल एण्ड कंपनी को मिलने वाला है। लाभ देखकर लोभ बढ़ता जा रहा है। इसलिए मान्यवरों की बांछें खिल रही हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की राय में जनहित सर्वोपरि है और सरकार से अपेक्षा की गयी है कि वह कपिल के संत स्वभाव की उपासिका बने। वह देश की संपत्ति की निष्ठावान न्यासी है, उसकी स्वामी नही है। देश की संपत्ति पर अधिकार देश की जनता का है। इसलिए सरकार एक निष्ठावान न्यासी की भांति संपत्ति की सुरक्षा और संरक्षा के अपने दायित्व को समझे।
हमारे यहां लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की गयी है। इसमें शासक वर्ग जनता का प्रतिनिधि होता है, वह उनका स्वामी नही होता है। जनता की भावनाओं का सम्मान करना सरकार का पहला कत्र्तव्य होता है। देश की जनता नही चाहती कि देश के प्राकृतिक स्रोतों से अनुचित छेड़छाड़ की जाए और उन्हें मनमाने ढंग से यथाशीघ्र समाप्त कर दिया जाए। प्राकृतिक संसाधन सुरक्षित और संरक्षित रखने आवश्यक होते हैं। ये देश भारत सृष्टि प्रारंभ से है और सृष्टि अंत तक रहेगा। इसके प्राकृतिक संसाधनों को आप लाभ और लोभ के चक्कर में दस-बीस वर्षों में समाप्त करने की मूर्खता नही कर सकते। जैसा कि सरकार करती जा रही है। जापान दुनिया का एक ऐसा देश है जो अपना कच्चा माल किसी को नही देता। वह उसे अपने लिये रखता है और तैयार करके दूसरों को देता है। इसी कारण जापान एक मजबूत अर्थव्यवस्था के रूप में हमारे सामने है। जबकि हमारे नेतागण प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करते जा रहे हैं। देश का शासक वर्ग सत्ता की शराब में झूम रहा है और बिना दूर भविष्य की सोचें प्राकृतिक स्रोतों का बंटवारा आवंटन के माध्यम से करके बहती गंगा में डुबकी लगाने की सोच से ग्रसित है। इनका आचरण प्राकृतिक संसाधनों अथवा स्रोतों के विषय में कुछ वैसा ही है जैसा कि एक उस शराबी का होता है जो अपने पूर्वजों के द्वारा जोड़ी गयी संपत्ति में से थोड़ी-थोड़ी बेचता रहता है और पी-पीकर संपत्ति को बर्बाद कर डालता है। प्रकृति ने जो खजाना भारत वर्ष को दिया है। उसी के कारण वह कभी सोने की चिडिय़ा कहलाता था। जिसे अंग्रेजों ने और उनसे पहले मुस्लिम आक्रांताओं ने जी भर कर लूटा था। बाकी जो बचा उसे अब हमारे अपने ‘लुटेरे’ लूट रहे हैं। जो रक्षक बनाये गये थे वही अब हमारे भक्षक बन चुके हैं। वास्तव में भारत के लोकतंत्र की खराबी का पेंच भी इसी खराब सोच में छिपा है। क्योंकि लोभ की वृत्ति से धन संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ रही है। परिणाम स्वरूप देश में राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और धनपति मिलकर एक ऐसा दुश्चक्र चला चुके हैं कि उससे देश का निकलना निकट भविष्य में असंभव सा जान पड़ता है। अधिकारी वर्ग ने अपने कुछ खास लोगों को प्रॉपर्टी डीलर बनाकर मैदान में उतार दिया है। न्यायालय में तैनात पीठासीन अधिकारियों तक के संपर्क ऐसे लोगों से हैं जो विवादित संपत्तियों को खरीद रहे हैं और उन्हें न्यायालयों में अधिकारी अपना संरक्षण दे रहे हैं। न्यायालयों में लंबित वादों को निपटाने का यह एक तरीका खोजा गया है। इसमें विवादित संपत्ति के एक पक्षकार से न्यायालयों में तैनात पीठासीन अधिकारी का खास आदमी बात करता है और उसे चवन्नी में खरीदने का मन बनाता है। बाद में अधिकारी उस खास आदमी को मौका पर कब्जा दिलवाता है उसके लिए प्रशासनिक मशीनरी का प्रयोग किया जाता है। बाद में दूसरे पक्ष को उत्पीडऩ का शिकार बनाया जाता है, या उसे भी चवन्नी देकर शांत किया जाता है। बाकी बचे पचास पैसे को अधिकारी और उसके व्यक्ति निगलते हैं। इस प्रचलन के घातक परिणाम आ रहे हैं। लाभ के चक्कर में लोभ बढ़ रहा है और न्याय प्रक्रिया बाधित और कुंठित हो रही है। जिससे सामाजिक न्याय से व्यक्ति वंचित होता जा रहा है। राजनीतिक न्याय यदि बराबरी की अपेक्षा करता है तो सामाजिक न्याय भी बराबरी की ही वकालत करता है, लेकिन जब न्याय को शीर्ष पर बैठे न्यायाधीशों (सत्ताधीश भी न्यायधीश ही है) ने ही ध्वस्त करना आरंभ कर दिया हो तो नीचे वालों से तो ऐसी स्थिति में अपेक्षा ही क्या की जा सकती है? कोयला ब्लॉक आवंटन के प्रकरण में काली सरकार के काले कारनामे स्पष्टï बता रहे हैं कि इसमें जनहित की उपेक्षा की गयी है और किन्हीं खास लोगों को उसी प्रकार लाभ पहुंचाने का प्रयास किया गया जिस प्रकार अपने किसी खास प्रापर्टी डीलर को लाभ पहुंचाने के लिए न्यायालयों में या अन्य प्रशासनिक कार्यालयों में तैनात अधिकारी वर्ग कार्य करता है। इस प्रकार सदिच्छा का अभाव कोयला ब्लॉक आवंटन में दिखायी देता है। जनहित के दृष्टिगत ही प्राकृतिक स्रोतों का बंटवारा करने की राय सरकार के लिए देकर न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि यदि ऐसा नही होता है तो न्यायालय ऐसे आवंटन या बंटवारे को निरस्त भी कर सकता है। यही न्याय है और शासन का यह कार्य ही राष्ट्रधर्म की श्रेणी में आता है। इसलिए न्यायालय ने न्यायसंगत और धर्मसंगत कत्र्तव्य धर्म का निर्वाह करने के लिए सरकार को सचेत किया है। इसकी व्याख्या इसी प्रकार की जानी चाहिए। सरकार के प्रबंधकों को अपने आपको संवारने और सुधारने के लिए तैयार रखना चाहिए। गलत को गलत मानने और जानने का साहस दिखाना चाहिए, यही मानव धर्म भी है और यही राजधर्म का पहला और अंतिम वाक्य है।
मुख्य संपादक, उगता भारत