ढोल का पोल खुल गया है। यह कहावत बिहार में चरितार्थ हो रहा है। नीतीश कुमार के सुशासन के गुब्बारे में लगता है कि पिन लग गई है। ऐसा इसलिए कि मजबूत किलेबंदी के बावजूद नीतीश कुमार की लोकप्रियता के मिथ आजकल राष्ट्रीय मीडिया में टूट कर बिखर चुका है। इसकी पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार थी। नियोजित शिक्षकों ने बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का काम भर किया है। वे जगह-जगह नीतीश की सभाओं में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। चप्पलें उछल रहे हैं, चप्पलें दिखा रहे हैं। शुरुआत में स्वयं नीतीश ने और सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। नीतीश ने आक्रोशित शिक्षकों को धमका कर मामले की अनदेखी करनी चाही। उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि ‘यदि हमारे कार्यकर्ता इन विरोधियों पर टूट पड़ें तो इनका कचूमड निकल जायेगा।’ हालांकि बाद में इन आक्रोशित शिक्षकों के साथ विभिन्न मांगों के साथ जब दूसरे लोग भी दरभंगा, बेगुसराय, खगडिय़ा में एकजुट हो गये तो जनता पर दमनात्मक कारवाइयां शुरू हो गईं। खुद जद।यू के विधायक पूनम यादव के पति, रणवीर यादव ,जिन पर दर्जनों अपराधिक मामले दर्ज हैं। ने कार्वाइन लहराकर, लाठियां भांजकर आन्दोलनकारियों को डराया। इसके बाद सुपौल और अररिया में मुख्यमंत्री के पहुँचने के पहले गिरफ्तारियां शुरू की गईं। निर्दोष जनता को हाजत में बंद किया गया, जबकि ऐसी एहतियातन गिरफ्तारियों में लोगों को हाजत में बंद नहीं किया जाता है। उधर कानून हाथ में लेने वाला विधायक-पति खुलेआम घूम रहा है। नीतीश कुमार इन विरोध प्रदर्शनों में विरोधियों की साजिश देखते-देखते जनता से ही सीधे टकराव की मुद्रा में आ गये हैं। इस टकराव की जगह उन्होंने विरोध प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि पर गौर किया होता तो शायद उन्हें अपने द्वारा विकास के बनाये गये छदम के भीतर शहरों के खास्ता हाल मुख्यमार्ग दिखाते, जिसे बिहार प्रवास के दौरान जगह-जगह घूमते हुए इस लेखक को आसानी से दिखे। अपराधमुक्त बिहार के छद्म के भीतर उन्हें दिखती औरंगाबाद, बिहटा, मुजफ्फरपुर में हो रही जनप्रतिनिधियों की हत्याएं। जंगलराज से मुक्ति के छद्म के भीतर उन्हें दिखते दिन-प्रतिदिन होने वाले बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, जो राजधानी पटना में भी उतना ही आम है, जितना नालंदा, बेतिया, मुज्ज्फ्फरपुर या भागलपुर में । हद तो तब हो गई है जब पुलिस थानों में या पुलिस वालों के द्वारा महिलायों पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। ऐसा तब होता है जब या तो शासक के शासन का इकबाल समाप्त हो चुका होता है या तब जब इन घटनाओं को शासक के द्वारा अभय प्राप्त हो। नीतीश कुमार ने जनता से सीधे अदावत की जगह अपनी नीतियों के पुनर्मूल्यांकन का चुनाव लिया होता तो शायद उन्हें इन बढ़ते अपराधों का एक कारण हर तीन पंचायत पर दारू के सरकारी ठेके समझ में आते, जिन्होंने गाँव स्तर पर अपना नेटवर्क बना रखा है।
बिहार में मनरेगा के पैसों में लूट है, वृक्षारोपण के नाम पर यहाँ से लेकर वहां तक लूट तंत्र प्रभावी है, शौचालय योजनाओं के तहत कमीशनखोरी का बाजार गर्म है। बी।पी।एल-ए।पी।एल कार्ड में व्यापक धांधली है। पिछले सात सालों में भ्रष्टाचार एक सुनियोजित कार्यप्रणाली के तौर पर फल-फुल रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता डा। मुकेश कहते है कि लूट का नहीं वसूली का विकेंद्रीकरण हुआ है। शिक्षकों को तो 5 हजार से 8 हजार तक के माहवारी कान्ट्रेक्ट पर रखा गया है लेकिन विद्यालयों में खिचडी, सायकल, पोशाक योजनायें वसूली और कमीशन खोरी के माध्यम बन गये हैं। सुनियोजित तरीके से सरकारी शिक्षा-तंत्र ध्वस्त हो रहा है। नियोजित शिक्षकों के ये विरोध कोई अचानक से उभरे विरोध नहीं है। वेतन की अपमानजनक असमानता के कारण विद्यालयों में शिक्षा व्यवस्था चरमराई हुई है। फेसबुक पर नियोजित शिक्षकों के एक पेज में शिक्षकों ने कैप्शन बना रखा है कि शिक्षक नहीं हमें चपरासी बना दो।
गौरतलब है कि नियोजित शिक्षकों से ज्यादा वेतन उनके विद्यालय के चपरासी उठाते हैं। अपनी दुर्दशा पर ये आंदोलित शिक्षक अब आक्रोश मिश्रित व्यंग्य के भाव में हैं। बिहार सरकार के द्वारा हालिया व्यवस्था नियोजित शिक्षकों के लिए पेंशन पर शिक्षक व्यंग्य करते हैं कि यदि जवानी में कुपोषण से बच गये तो बुढ़ापा मजे में कटेगा। अपनी पीठ थपथपाती सरकार के प्रबंधन का आलम यह है कि साल के शुरुआत में नियुक्त हुए 34000 शिक्षकों को पिछले 8 महीने से कोई भुगतान नहीं हुआ है।
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