मूर्खता का प्रारंभ कहां से हुआ? समलैंगिकता और लिव इन रिलेशनशिप की वर्तमान मूर्खता तक पहुंचाने का क्रम कहां से आरंभ हुआ? यदि हम इस प्रश्न पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि इसका श्री गणेश विवाह को एक पवित्र संस्कार न मानकर एक संविदा मान लेने की मूर्खता से हुआ था। विवाह को भारत ने सदा से ही एक पवित्र संस्कार माना है, एक ऐसा अटूट बंधन माना है कि जो जन्म जन्मांतरों तक चलता है। इस बंधन को प्रेम की प्रगाढ़ता से बांधने की कल्पना की गयी। वेद ने आदेश दिया है- तुम पति पत्नी एक दूसरे से वियुक्त न होओ। वेद की इस सूक्ति का निहित अर्थ है कि विवाह कोई संविदा नही है कि इसे जब चाहो तोड़ दो। यह तुम्हें एक शक्ति का सदुपयोग कर संतानोत्पत्ति करने के लिए तथा साथ साथ रहकर शुभ कार्यों के संपादन के लिए परस्पर प्रीति से बांधने की एक प्रक्रिया है। प्रीति के लिए भी वेद ने कहा है कि पति पत्नी दोनों चकवा चकवी की भांति परस्पर प्रीति करने वाले हों। अभिप्राय ये है कि पति पत्नी का मानसिक धरातल पर इतना प्रगाढ़ प्रेम हो कि उनका कोई भी कार्य एक दूसरे के बिना पूर्ण न हो। इस प्रगाढ़ प्रेम को यज्ञ प्रकट करता है। यदि दोनों पति पत्नी मिलकर यज्ञ करते हैं तो दोनों में शुभकार्यों के निष्पादन की प्रवृत्ति बलवती होती जाती है। इस सुंदर और उत्कृष्ट वैवाहिक जीवन शैली को पश्चिमी जगत ने कभी समझा नही। इसीलिए वह एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था का विकास नही कर पाया। उसने विवाह को एक अनुबंध बना दिया। जब दोनों पति पत्नी का एक दूसरे से मन भर जाये, तब छोड़ दो, अलग हो जाओ। इसका सर्वाधिक घातक परिणाम ये आया कि पश्चिमी देशों में एक आदर्श सामाजिक उन्नत अवस्था का विकास नही हो पाया। पश्चिमी जगत परिवार की परिभाषा को लेकर दुविधा में रहा। परिवार एक पति पत्नी की संतान से बने, या अगले पति से उत्पन्न या पत्नी से उत्पन्न बच्चों को लेकर भी बने, यह बात वहां आज तक भी स्पष्टï नही हो पायी । इसीलिए परिवार को पश्चिमी जगत एक पहेली समझ बैठा। फलस्वरूप पश्चिमी जगत विश्व को भी एक आदर्श वैश्विक समाज बनाने की धारणा नही दे पाया। जबकि भारत ने परिवार से लेकर विश्व तक को आदर्श व्यवस्था में बांधने की धारणा का विकास किया। भारत का परिवार पति पत्नी के परिवार से लेकर विश्व को एक परिवार मानने तक की उत्कृष्ट मानवीय अवधारणा तक विकसित हुआ।
इस विकसित अवधारणा का आधार था पति पत्नी का चकवा चकवी जैसा प्रेम भाव। आप कल्पना करें कि यदि आपके माता पिता में परस्पर स्नेह और आत्मीय भाव न होता तो क्या आप इस संसार में अपनी वर्तमान उन्नति की अवस्था को प्राप्त कर सकते थे। संभवत: कदापि नही। इसलिए माता पिता का परस्पर प्रीतिपूर्ण व्यवहार जिस प्रकार हमारे विकास में सहायक हुआ उसी प्रकार यह प्रीतिपूर्ण व्यवहार विश्व समाज का मूलाधार बन गया। इसीलिए पति पत्नी की परस्पर प्रीति को एक पवित्र संस्कार बनाने की अवधारणा का विकास भारत में किया गया। सह संस्कार विवाह संस्कार से उपजता है। इसलिए विवाह को एक पवित्र बंधन माना गया है। यही कारण है कि हमारे परिवारों में यदि पति का व्यवहार कई बार अनुचित भी है तो उसे पत्नी सहन करती है और यदि पत्नी का व्यवहार कहीं अनुचित है तो उसे पति सहन करता है।
यह सहन करने की प्रवृत्ति दलन की प्रवृत्ति नही है, ना ही अत्याचारों के सामने हथियार डाल देने की स्थिति है। जब लक्ष्य बच्चों का विकास करना हो, परिवार का संतुलन बनाकर चलना हो, और परस्पर सामंजस्य बनाकर चलना हो तो कई बार असहज परिस्थितियों का इसी प्रकार सामना करना पड़ता है। ऐसा नही हो सकता कि थोड़ी सी विषमता आयी और आप टाटा करके भाग लिये। इसी स्थिति से समाज में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। अव्यवस्था फैलती है और समाज में नई नई विसंगतियों का विकास होता है। क्योंकि जब आप अपने साथी का त्याग कर किसी और के प्रति आकर्षित होते हैं तो इससे उस किसी और का जीवन प्रभावित होता है। इस प्रकार दो परिवारों में कलह उत्पन्न होता है। इससे दो परिवारों के कम से कम छह बच्चे प्रभावित होते हैं। बात यहां भी नही रूकती जिसके प्रति आप अपने जीवन साथी को त्यागकर आकर्षित हुए वह यदि किसी और के प्रति आकर्षित हो जाये तो बीमारी तीसरे परिवार में चली जाती है। इस प्रकार सारा सामाजिक ताना बाना ही दूषित हो जाता है। इसीलिए आदर्श स्थिति यही है कि आप थोड़े बहुत कष्टों को सहन करके अपने ही परिवार में संतुष्टï रहें।
भारत के शिक्षित वर्ग ने जब से विवाह को पवित्र संस्कार न मानने की भूल की है तो उसका स्वाभाविक परिणाम ये आया है कि तलाकों का एक अनवरत क्रम आरंभ हो गया। आज न्यायालयों में परिवार और विवाह विच्छेद के जितने वाद लंबित हैं उनके लिए हमारी एक गलती ही अधिक उत्तरदायी है कि हमने अपने विवाह संस्कार की धारणा को संविदा मानकर विद्रूपित अवस्था तक पतित कर दिया। तलाक का यह रोग संक्रामक रूप में देश में वहां अधिक फेेल रहा है जहां ब्रिटिश काल से चली शिक्षा का प्रचलन अधिक है और जहां ब्रिटिश काल की ही न्याय प्रणाली को व्यवहार में अपनाया जा रहा है। हमारे यहां आज भी गांव देहात में लड़की वालों का ही पक्ष अधिक पीडि़त माना जाता है, और विवाह विच्छेद की स्थिति ना आये इसके लिए वर पक्ष पर सगे संबंधी मित्रगण और सामाजिक लोग सभी मिलकर दबाब डालते हैं। साथ ही हर संभव प्रयास करते हैं कि पति पत्नी के पारस्परिक वैमनस्य को समाप्त किया जाए। कुछ स्वयंसेवी संगठनों के लोग भी इसी प्रकार की सामाजिकता को निभाकर समस्याओं का समाधान निकालते हैं। जबकि कानून की स्वयं में मान्यता है कि विधि को लोगों की भावनाओं के आधार पर कानून की भाषा से अलग कुछ करने के लिए बाध्य नही किया जा सकता। जबकि हमारा मानना है कि कानून को भावनाओं का सम्मान करते हुए भी कार्य करने का अभ्यासी होना चाहिए। परंतु कानून भाव प्रधान हो नही सकता। क्योंकि भाव अदृश्य होते हैं। इसीलिए ऐसा कोई भी कानून न तो बना है और न बन सकता है कि जो अदृश्य जगत में होने वाली आपराधिक वृत्ति या कार्यों को समझ सके और उनका उपचार कर सके। इस अवस्था का अवलोकन केवल हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाकर ही किया जाना संभव है। इसीलिए तलाक जैसे विषय पर कानून निर्ममता का प्रदर्शन तो कर सकता है, परंतु आत्मीय भाव का प्रदर्शन करना उसके वश में नही है। इसका तात्पर्य यही है कि सभ्य समाज की डींग मारने वाला यह समाज अभी भी कानून को पूर्णता प्रदान करने में असमर्थ ही सिद्घ हो रहा है। परिवार से लेकर राष्ट्र तक की ईकाईयों को प्रेम नाम का धागा दृढ़ता से बांधता है। परिवार को माता पिता अपने प्रेम से बांधकर रखते हैं। परिवार से राष्ट्र तक को इस प्रकार प्रेम के धागे से बांधे रखने की हमारे ऋषियों की यह अनोखी खोज थी। परिवारों का कलह राष्ट्र को बिनाश की ओर ले जाता है। राष्ट्र की भावनात्मक एकता विभिन्न संप्रदायों की पारस्परिक सहनशीलता पर टिकी होती है। पति पत्नी दोनों परस्पर जितना अधिक सामंजस्य बनाकर रहेंगे उतना ही अच्छा प्रभाव इनके बच्चों पर पड़ेगा। जिससे परिवार की एकता को बल मिलेगा। इसका प्रभाव देश के संप्रदायों पर पड़ेगा और वो परस्पर स्वभावत: मिलकर रहने का प्रयास करेंगे। इसलिए विवाह विच्छेद समस्या का कोई समाधान नही है अपितु यह तो स्वयं में एक और नई समस्या है। जिसकी ओर हमारा आजका युवा वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। जिधर से हमें उसे रोकना चाहिए उधर हम उसे बढऩे के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
समस्या का समाधान है कि पुरूष को नारी की भांति सहनशील बनाया जाए। घरेलू हिंसा करने से वह बाज आये। महिलाएं छोटी मोटी घटनाओं को न्यायालय में ले जाकर उठाने में शीघ्रता न करें और न्यायालय सामान्य बातों को लेकर नई नई परिभाषाएं और नये नये अर्थ न निकालें। जैसे दो बालिग यदि साथ नही रहना चाहते तो यह उनका अधिकार है कि वह साथ साथ ना रहें। ऐसी परिभाषा करने से पूर्व यह विचार किया जाए कि स्वास्थ्य को सही रखने के लिए भी जिस प्रकार कुछ नियमों का ध्यान रखना पड़ता है उसी प्रकार समाज को सही रखने के लिए भी कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। यथा प्रात:काल शीघ्र उठना, व्यायाम करना, सुबह पानी पीना, शौच जाना नित्य स्नान करना आदि। न्यायालय या कोई भी बुद्घिजीवी व्यक्ति न्याय की परिभाषा के अंतर्गत रहते हुए सभी नागरिकों से क्या यह भी कह सकते हैं कि आप प्रात:काल देर तक सोयें, व्यायाम न करें, पानी न पियें, शौच न जायें, स्नान न करें, क्योंकि इन्हें न करना आपका अधिकार है। यदि आप ऐसा नही करेंगे तो स्पष्ट है कि आप अस्वस्थ हो जायेंगे। इसलिए आपसे अपेक्षा की जाती है कि अपनी स्वतंत्रता को आपको कुछ सीमित करना पड़ेगा। तभी आप अपनी स्वतंत्रता का सही उपभोग कर पाएंगे। इसलिए समाजहित में विवाह विच्छेद को अति सीमित किया जाए। विवाह विच्छेद की वर्तमान विकृत अवस्था यदि विवाह को संविदा मानने की भूल का परिणाम है, तो इस विवाह विच्छेद की अगली अवस्था का दुष्परिणाम लिव इन रिलेशनशिव की मूर्खतापूर्ण अवधारणा का अस्तित्व में आना है।
यह लिव इन रिलेशनशिव की धारणा यहां एक सामाजिक विकृति बनकर पांव पसार रही है। इसीलिए भारत के सभी धर्माचार्य प्रमुखों ने इस नई अवैज्ञानिक और अतार्किक अवधारणा का जिस प्रकार कुछ समय पूर्व लिव इन रिलेशनशिप पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले पर मुखर विरोध किया था। उस पर हमारी सरकार को ध्यान देना चाहिए। यह एक अच्छा अवसर है कि जब देश के सभी संप्रदायों ने किसी बात पर सहमति बनाकर उसका विरोध किया है। इस विरोध को हमारी सरकार समझे और तदानुसार इस पर एक कानून का निर्माण करे। कानून के विषय में यह बात सदा ध्यान रखनी चाहिए कि ये चाहे कितना ही जनहितकारी क्यों न हो, फिर भी यह कुछ लोगों का प्रिय नही होता। चोर को चोरी से रोकने का कानून सदा अनुचित लगता है। परंतु जनहित में सरकार को ये कानून बनाना ही पड़ता है। इसी प्रकार लिव इन रिलेशनशिप की नई पाशविक प्रवृत्ति को रोकने के लिए समाजहित में और राष्ट्रहित में सरकार को कानून का निर्माण करना चाहिए कि इस प्रकार की प्रवृत्ति को विधि विरूद्घ माना जाएगा। हमें स्वस्थ रहने के लिए कड़वी गोली खानी पड़ती है, उन्नति करने के लिए कड़ा प्रयास करना पड़ता है, सफलता के लिए कड़ा परिश्रम करना पड़ता है परीक्षा में अच्छे अंक लेने के लिए रात को जागकर पढऩा पड़ता है, और शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक अच्छे नागरिक के कत्र्तव्यों का पालन करना पड़ता है। इसलिए यौन संबंधों के लिए भी कुछ वर्जनाओं का पालन करना हमारे लिए अनिवार्य है, साथ ही उसकी एक प्रक्रिया है और एक अवस्था है, हमें उसी प्रक्रिया और अवस्था से निकलकर समाज की व्यवस्था को सही बनाये रखने के लिए प्रयास करने चाहिए। क्योंकि हमारे ऊपर एक सुसंस्कृत समाज की संरचना करने का महती दायित्व है।
मनुस्मृति में आया है :-
गरूणाअनुमत: स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि।
उद्वहेत द्विजो भार्या सवर्णा लक्षणाव्निताम।।
अभिप्राय है कि द्विज बालक अपनी शिक्षा समाप्त कर विधि अनुसार सवर्ण और लक्षणों वाली लड़की से विवाह करे और गृहस्थ धर्म का पालन करे। सवर्ण का अर्थ यह नही कि वह उच्च जाति की लड़की से विवाह करे जैसा कि आजकल सवर्ण का अर्थ लगाया जाता है। अपितु सवर्ण का अर्थ है कि वह लड़का जिस वर्ण का है, जिस कार्य व्यापार में उसकी रूचि है, उसी कार्य व्यापार की रूचि वाली लड़की से विवाह करे। मनु वर्ण व्यवस्था के प्रतिपादक थे-वर्तमान जाति व्यवस्था के नहीं। इसलिए आज भी हमें ये ही करना चाहिए कि हमारे युवा और युवती अपना जीवन साथी चुनकर माता पिता की सहमति से अपना विवाह करें, और फिर गृहस्थ धर्म का पालन करें। समाज के वर्जित संबंधों को पवित्र बनाकर रखें और समाज की व्यवस्था को तोडऩे में नही अपितु उसे बनाये रखने में सहयोग दें। तलाक की ओर बढऩा युवाओं के अंदर आत्मविश्वास और धैर्य की कमी का प्रतीक है। उन्हें एक सुव्यवस्थित परिवार और संसार बनाने के लिए अपने आप कुछ नियमों में ढलना पड़ेगा। उन नियमों को अपने ऊपर वर्जना ना समझकर अपने लिए मर्यादा पथ मानना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत