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वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-37

भारतीय संस्कृति, दयानंद और संविधान के मूल अधिकार
गतांक से आगे 
संसार में क्षुद्र से क्षुद्र कोई ऐसा प्राणी न मिलेगा, जो अपनी गतिविधि में प्रतिबंध को पसंद करे। सभी चाहते हैं कि उनकी गति निर्वाध रहे। वेद में मार्ग के संबंध में प्रार्थना है कि वह अनृक्षर अर्थात कांटों से रहित हो। कांटे मार्ग की बाधा हैं। बाधा से रहित मार्ग प्रशस्त माना जाता है, और प्रशस्त होता भी है। ऐसी स्थिति में स्वराज्य की कामना अस्वाभाविक नहीं, अत: अपराध भी नही। जो दूसरे की गतिविधि में प्रतिबंध लगाता है, जब कभी उसकी गतिविधि पर प्रतिबंध लगता है, तब उसे ज्ञात होता है कि स्वाधीनता स्वतंत्रता स्वराज्य क्या वस्तु है।
शोषण के विरूद्घ अधिकार
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 23 मानव के साथ दुव्र्यवहार और बलात श्रम की मनाही करता है।
अनुच्छेद 24-14 वर्ष से कम आयु के किसी बच्चे को फैक्ट्री या खान में काम करने के लिए नही लगाया जाएगा और न किसी अन्य जोखिम के काम पर लगाया जाएगा। यह मौलिक अधिकार अंशत: वेद और ऋषि के चिंतन के अनुकूल है। वैदिक व्यवस्था का समर्थन करते हुए महर्षि दयानंद इस बात के प्रबल पक्षधर थे कि सभी बच्चों को शिक्षा का समान अवसर उपलबध होना चाहिए। किसी के लिए भी शिक्षा का द्वार बंद न रहने पाये। सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। क्योंकि बच्चे किसी भी राष्ट्र की अमूल्य धरोहर होते हैं। उनके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना अथवा व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण अवसर उपलब्ध कराना राज्य का पावन और अनिवार्य दायित्व है। इसलिए किसी भी प्रकार का शोषण न होने देना सुनिश्चित करना भी राज्य का ही दायित्व है।
आजकल की शिक्षा जो हमारे कान्वेंट स्कूल दे रहे हैं-ये शिक्षा पूंजीवादी व्यवस्था की जनक है। पूंजी कमाना विद्यालयों का लक्ष्य है। परिणामस्वरूप बहुत कम बच्चे अच्छी शिक्षा ले पाने में समर्थ हो पाते हैं। अधिकांश अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। जो बच्चे अच्छी शिक्षा से वंचित रह गये उनका शोषण किसी ना किसी रूप में वही बच्चे करते हैं जो उनके साथ रहकर अच्छी महंगी शिक्षा लेकर आगे बढ़ गये थे। इस प्रकार आजकल की शिक्षा संवदेना शून्य मानव समाज का निर्माण कर रही है। आप इस बात को यूं समझ सकते हैं कि मानो दो बच्चे हैं एक गरीब का है और दूसरा धनी का है। पहला बच्चा अपनी गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित रह जाता है, दूसरा बच्चा पहले बच्चे को पांचवीं छठी कक्षा से वंचित रह जाता है, दूसरा बच्चा पहले बच्चे को को पांचवीं छठी कक्षा से छोड़कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करता है और आगे चलकर डॉक्टर बन जाता है। तब पहले वाला बच्चा अपने सहपाठी के पास आता है किसी नौकरी की खोज में। दूसरा बच्चा पहले बच्चे को अपना नौकर बनाकर रख लेता है। उससे बलात श्रम लेता है और वेतन के नाम पर बहुत कम वेतन उसे देता है। ये है आज की शिक्षा प्रणाली की देन।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज संवेदनशील और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण करने के समर्थक थे। अनिवार्य शिक्षा के ऋषि के सिद्घांत को हमारे द्वारा अपनाया जाना चाहिए। वास्तविक अर्थों में शोषण तभी समाप्त होगा जब हम संवेदनशील मानव समाज का निर्माण करने में सफल हो जाएंगे। संविधान के इस मौलिक अधिकार का शीर्षक संवेदनशील मानव समाज की स्थापनार्थ शोषण के विरूद्घ होना चाहिए। इतना होने से इस संवैधानिक अधिकार का मंतव्य स्पष्टï हो जाएगा। वर्तमान शीर्षक इस अनुच्छेदों का मंतव्य स्पष्टï नही कर रहा है।
स्वामी अग्निवेश लिखते हैं-महर्षि दयानंद अनिवार्य शिक्षा के तथा शिक्षा के क्षेत्र में राजकीय हस्तक्षेप के समर्थक थे। समाजवाद का मूल सिद्घांत है सबको उन्नति के समान अवसर प्रदान करना। इस दिशा में अनिवार्य शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कदम है, पर इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि विद्यार्थी के शिक्षाकाल का संपूर्ण व्यय राष्ट्र वहन करे और सभी विद्यार्थियों को बिना किसी भेदभाव के समान सुविधायें नि:शुल्क प्राप्त हों। इस संबंध में निर्देश करते हुए महर्षि तीसरे समुल्लास के प्रारंभ में कहते हैँ कि पाठशाला में सबको तुल्य, वस्त्र, खान पान, आसन दिये जायें, चाहे वह राजकुमार या राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की संतान हो, सबको तपस्वी होना चाहिए। वर्तमान में पूंजीवादी व्यवस्था में हम देखते हें कि अमीरों के बच्चे तो पब्लिक स्कूलों में या कान्वेंट में जाते हैं, बाद में वो विदेशों में भी जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, और जीवन में उन्नति करते जाते हैं। जबकि दूसरी ओर गरीब माता पिता के बच्चे बचपन से ही अपने माता पिता के साथ मजदूरी करते हैं, और यदि वे पढऩे भी जाते हैं तो फीस पुस्तक व्यय आदि के अभाव में उनकी पढ़ाई रूक जाती है, उनकी योग्यता कुठिंत हो जाती है और अपनी अविकसित प्रतिभा के कारण के जीवन की दौड़ में अभिजात वर्ग के युवकों से पिछड़ जाते हैं। इस विषमता को मिटाने का यही रास्ता है, कि सब बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य तथा नि:शुल्क हो, ताकि उनकी योग्यताओं के विकास का उन्हें समुचित अवसर मिल सके।
सरकारी नीति दोषपूर्ण
आज देश की सरकारों की नीतियां दोषपूर्ण हैं। इन नीतियों के कारण अनिवार्य शिक्षा का सपना साकार नही हो पाया है। गरीबों के बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने वाली व्यवस्था ने जिस प्रकार अपना शिकंजा कसा है उससे निर्धन और भी निर्धन हो जा रहा है जबकि धनी और भी धनी होता जा रहा है। ये सामाजिक विषमता कृत्रिम है, जो मानव का मानव द्वारा शोषण करने की नीति का ही परिणाम है। इसलिए वैदिक व्यवस्था और महर्षि दयानंद सबको अनिवार्य शिक्षा दिलाने के समर्थक हैं। इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था से ही कर प्रकार के शोषा का अंत होना संभव है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
भारतीय संविधान का अनुच्छे 25 अंत:करण की और किसी भी धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। अनुच्छेद 27 किसी व्यक्ति को कोई ऐसा कर देने के लिए विवश न करने की व्यवस्था करता है कि जिसके लेने से किसी विशेष पंथ को बढ़ावा या प्रोत्साहन मिले। किसी ऐसी शिक्षण संस्था में जिसका कुल खर्च राजकोष से चलता हो धार्मिक शिक्षा संविधान के ये अनुच्छे वास्तव में सर्व संप्रदाय समभाव की नीति के उद्घोषक हैं। राजनीतिज्ञों ने चाहे इस नीति के जो अर्थ निकाले हों परंतु इनके पीेछे का सत्य यही है कि सभी लोगों में पारस्परिक सौमनस्यता बनी रहे। इसका अर्थ है कि हम संप्रदाय को लेकर झगड़ें नही और समाज में किसी भी प्रकार की वैमनस्यता को जन्म न दें। हमारा दृष्टिïकोण ऐसा हो कि हम मानवता के न्यूनतम सांझा कार्यक्रम को निर्धारित कर मानव समाज के निर्माण के लिए सक्रिय और सचेष्टï रहें। यह वैदिक उदात्त भावना ही इन संवैधानिक अनुच्छेदों की आदर्श है। मानव के लिए मुख्य बात है कि अंत:करण की शुद्घता और पवित्रता की प्राप्ति कर जीवन को मोक्षभिलाषी बनाना। अंत:करण की शुद्घता ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय चिंतन और ईश्वरी वाणी के अध्ययन से ही संभव है वेद और सृष्टिï नियमों के अनुकूल चलने वाला व्यक्ति किसी भी प्रकार के विज्ञान, किसी सांप्रदायिक सोच या मान्यता केा बाधित नही करता अपितु ऐसे चिंतन को हल्का करता है। मानव भीतर से पवित्रता का अनुभव करता है। ऐसा पवित्र हृदयी व्यक्ति किसी व्यक्ति विशेष की शिक्षाओं से प्रभावित होकर किसी संप्रदाय को मानने वाला हो सकता है, परंतु उसका हृदय संकुचित नही हो सकता। वह ज्ञान की निर्मल धारा में गोते स्वयं तो लगाएगा ही साथ ही अन्य लोगों को गोते लगाने के लिए प्रेरित भी करेगा। अंत:करण की इसी पवित्रता से सर्व संप्रदाय समभाव का सृजन होगा। जिसकी अंतिम परिणित होगी संप्रदायों का नितांत अभाव और एक धर्म मानवता की स्थापना। सभ्य समाज की निर्मिती के लिए इसी आदर्श को हमारे यहां प्राचीन काल से ही प्राप्तव्य माना गया। संविधान के उपरोक्त प्राविधान भी इसी दृष्टिïकोण से रखे गये। इन संवैधानिक प्राविधानों का निहित अर्थ यही है। परंतु इन्हें यहां संप्रदायों के बाहरी स्वरूपों को और भी अधिक पैना करने के लिए प्रयोग किया गया है।
जिससे हम अंत:करण की अपवित्रता से भरकर असभ्य समाज का निर्माण कर रहे हैं। साम्प्रदायिक वैमनस्य की दीवारें गिरी नही हैं अपितु और भी ऊंची हो गयी है। जिनके भीतर मानव और उसका अंत:करण छटपटा रहे हैं। ‘पिंजरे के पंछी रे तेरादर्द न जाने कोय’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। मानव बिलख-बिलख कर रो रही है। अस्तु।

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