सिद्धार्थ शंकर गौतम
वर्तमान पीढ़ी के लिए गांधी दर्शन और उनके आदर्शों पर चलना ठीक वैसा ही है जैसे नंगे पैर दहकते अंगारों पर चलना। चूंकि गांधी द्वारा दिखाया गया सत्य और नैतिकता का मार्ग अत्यंत दुष्कर है व बदलते सामाजिक व आर्थिक ढांचे में खुद को समाहित नहीं कर सकता लिहाजा यह उम्मीद बेमानी ही है कि अब गांधी के विचारों और आदर्शों को दुनिया अपनाएगी। यह अत्यंत कटु सत्य है किन्तु इससे मुंह भी तो नहीं फेरा जा सकता। गांधीवाद को अपने जीवन का सार मानने वाले ठेठ गांधीवादी भी आज इसे ढोते नजऱ आते हैं। तब कैसे हम कल्पना कर सकते हैं कि युवा पीढ़ी उन्हें मन से स्वीकार करेगी ही? किसी ने सत्य ही कहा था कि आने वाली पीढ़ी को शायद ही यह गुमान होगा कि एक हांड-मांस का कोई व्यक्ति भारतभूमि पर अवतरित होगा जो बिना रक्त की बूंद गिराए अंग्रेजी हुकूमत को देश छोडऩे पर मजबूर कर देगा। आज गांधी किताबों तक सिमट कर रह गए हैं या अधिक हुआ तो 30 जनवरी और 2 अक्टूबर को किसी पार्क या चौराहे पर उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण कर नेता अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। हालांकि इसमें दोष नेताओं का भी नहीं है। आज तक किसी आम आदमी को गांधी जयंती या गांधी पुण्यतिथि पर उनकी मूर्ति के आसपास भी देखा गया है? शायद नहीं। आम आदमी को गांधी से अधिक अपने परिवार के भरण-पोषण की चिंता है। एक ऐसे देश में जहां सरकारी कार्यालयों में गांधी की प्रतिमा के ठीक नीचे बैठा अधिकारी-कर्मचारी गांधी के आदर्शों की रोज़ हत्या करता हो, जनता गांधी जयंती या पुण्यतिथि को अवकाश का भरपूर लाभ उठाती हो, गांधी के नाम पर जमकर वोट-बैंक की राजनीति की जाती हो; वहां गांधीदर्शन और उनके आदर्शों की बात करना खुद उनका ही अपमान है। जिस व्यक्ति ने अपनी पूरी जिंदगी देश की स्वतंत्रता के लिए झोंक दी उसे याद करने या नमन करने के लिए हमारे पास मात्र 2 ही दिन हैं।
वैसे तो भारत में गांधी का नाम जपकर स्वयं के हित साधने वाले बहुतेरे लोग व समूह मिल जायेंगे किन्तु उनकी शिक्षा को आत्मसात कर उसे सार्वजनिक जीवन में उतारने वाला विरला ही कोई दिखाई देगा। क्या यही हमारे देश और समाज में गांधी की स्वीकार्यता है? क्या अपने कर्तव्यों की इतिश्री के लिए ही हम गांधी को थोडा बहुत याद करते हैं ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी हमें स्वार्थी न कहे? अपने अंतर्मन में झांके तो उत्तर मिलेगा हां। दरअसल गांधी को भुलाने और दिन विशेष तक सीमित करने में हमारा ही हाथ रहा है। चूंकि प्रतिस्पर्धा के युग में तमाम आदर्शों की बलि चढ़ गई है और जीवन यापन के लिए समझौता करना पड़ रहा है लिहाजा गांधी याद आएं भी तो कैसे? और यदि भूले बिसरे याद आते भी हैं तो हम उनके आदर्शों और नमन करते हैं और अपनी उसी दुनिया में खो जाते हैं जहां गांधीवाद को वर्तमान परिपेक्ष्य में कुंठा से ग्रसित दिमाग की उपज माना जाता है। आज यदि गांधी जिंदा होते तो सच में अपने आदर्शों को दम तोड़ते देख आंसू बहा रहे होते।
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