कुंडलियां … 36 यही जगत कौ नीम ….
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खर्च करो वैसा सुजन, जैसी आमद होय।
फैला उतने पांव भी, जितनी चादर हाय।।
जितनी चादर होय, मन भी रहता चंगा।
मन में है संतोष , तो मिले कठौती गंगा।।
संतोषी बन जीवन जियो, हो आदर्श ऐसा।
जितना ईश्वर ने दिया, खर्च करो तुम वैसा।।
107
जब तक तन में जान है, भरी ऊर्जा गात।
उद्यम और उद्योग का ,पकड़े रहना हाथ।।
पकड़े रहना हाथ , प्रभु फल अच्छा देता ।
सदा होत कल्याण , जिसने भी कर देखा।।
सराय सम संसार है, सही इसे पहचान।
प्रतिक्षण अनमोल ,जब तक तन में जान।।
108
जो भी आया जाएगा, यही जगत कौ नीम।
क्यों दूजे घर बैठकर, समय गंवा रह्यौ मीत।।
समय गंवा रह्यौ मीत, काल बन गिद्ध घूमता।
तैयारी कर निज गेह की, यह धाम तो छूटता।।
रुई से फीके रिश्ते, कभी ना इनमें रस आया।
जाना पड़ता लाजमी ,जगत में जो भी आया।।
दिनांक : 11 जुलाई 2023
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत