सब्सिडी कटौती बनाम राजनीति
रसोई गैस के सब्सिडीयुक्त सिलेंडरों की संख्या एक साल में सीमित कर छह करने के केंद्र के निर्णय के बाद जो राजनीति चली आ रही है, उसने इतने संवेदनशील मुद्दे की गंभीरता को खत्म कर दिया है। ऐसा करते हुए लगभग सभी पार्टियों ने खुद को हल्का साबित कर दिया। सबसे पहले यह काम कांग्रेस ने किया। लगातार सैकड़ों हजार करोड़ के घाटे का हवाला देते हुए उसने इस बार दृढ़ता से निर्णय भी कर लिया। दृढ़ता इस रूप में कि उसने उन ममता की परवाह भी नहीं की जिनसे डर कर उसने रेल बजट में बढ़ा हुआ किराया वापस ले लिया था। ममता के समर्थन वापस लेने पर भी उसने कदम पीछे नहीं खींचे। लेकिन इसके बाद उसने जो कुछ किया, वह कोरी राजनीति के सिवा कुछ नहीं था। कांग्रेसशासित नौ राज्यों में सब्सिडीयुक्त सिलेडरों की संख्या छह से बढ़ाकर नौ करना ऐसा ही राजनीतिक कदम रहा। इससे उसकी यह दलील बेमानी साबित हो गई कि सब्सिडीयुक्त सिलेंडरों की संख्या सीमित करना देश के लिए जरूरी है। क्यों?, इसलिए कि अब उससे जनता पूछ रही है कि क्या कांग्रेस शासित नौ राज्य देश के हिस्से नहीं हैं?, क्या वहां सब्सिडी वाले तीन सिलेंडरों का बोझ झेलने से होने वाला नुकसान उन प्रदेशों की आर्थिक व आधारभूत स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगा?, उसके पास इसका भी जवाब नहीं कि उसके इस निर्णय का वाणिज्यिक औचित्य क्या है?, उसने इसके लिए क्या फार्मूला या आधार अपनाया है? और इन राज्यों में नुकसान की भरपाई की क्या व्यवस्था की है? और यह भी कि यदि इस बोझ की भरपाई का फार्मूला उसके पास था, तो इसे पूरे देश में क्यों नहीं लागू किया जा सकता था तथा यह भी कि संपूर्ण राष्ट्र में यह संभव नहीं था तो क्या बुद्धिमतापूर्ण और न्यायसंगत कदम यह नहीं होता कि कांग्रेस शासित नौ राज्यों को दी जा रही विशेष छूट का ही बंटवारा पूरे देश में हो जाता। अर्थात इन नौ राज्यों में सब्सिडीयुक्त तीन अतिरिक्त सिलेंडर देने के स्थान पर देश के सभी 28 राज्यों व सात केंद्र शासित प्रदेशों में एक-एक अतिरिक्त सिलेंडर दे दिया जाता। इससे सिलेंडर में किसी भी तरह के भार से मुक्त परिवारों की संख्या 45 प्रतिशत से बढ़कर 55-60 प्रतिशत हो जाती और शेष 40-45 प्रतिशत कुटुंबों पर से भी गैर सब्सिडीयुक्त सिलेंडरों का भार कम हो जाता। सिलेंडर की इस राजनीति में अन्य पार्टियां भी पीछे नहीं रहीं। ममता बनर्जी का वक्तव्य कि साल में 24 सिलेंडर सब्सिडी वाले मिलने चाहिए, इसी श्रेणी में आता है और सोचने को विवश करता है कि देश की राजनीति और राष्ट्र के संचालन में अहम भूमिका निभा रहीं और प. बंगाल में कम्यूनिस्टों को सत्ताच्युत करने की ऐतिहासिक उपलब्धि अपने नाम करने वालीं नेता के मुंह से ऐसे बयान कैसे निकल रहे हैं। सालों तक रेल मंत्रालय संभाल चुकीं यह नेता इस गणित को कैसे नकार रही हैं कि उनका सुझाव मान लिया गया तो सब्सिडी युक्त सिलेंडरों की सीमा से जो लगभग 30 हजार करोड़ रूपए बचने जा रहे हैं, वे बचना तो दूर उलटा देश को 30-40 हजार करोड़ रूपए और सालाना नुकसान झेलना पड़ेगा। उधर भाजपा भी बिलकुल इसी ढर्रे पर। निर्णय कांग्रेसनीत सरकार का है तो विरोध करना ही जैसे उसका परम धर्म है। इसीलिए उसकी ओर से वक्तव्य आया कि भाजपा सत्ता में आई तो सब्सिडीयुक्त सिलेंडरों की सीमा नहीं रहेगी। अर्थात देश फिर आज से पहले की स्थिति में आ जाएगा सब्सिडीयुक्त सिलेंडरों पर साठ हजार करोड़ रूपए से ज्यादा के घाटे वाली स्थिति में। यह दुर्भाग्य है कि इन पार्टियों ने व्यावहारिक विकल्प नहीं सुझाए। किसी ने यह नहीं कहा कि सब्सिडीयुक्त सिलेंडरों की सीमा के सदस्यों की संख्या के आधार पर तय होनी चाहिए। चार सदस्यों के परिवार को छह और छह सदस्यों वाले कुटुंब को सात या आठ सिलेंडर दिए जाने चाहिए। किसी ने यह कहने की चेष्टा भी नहीं की कि दोहरे कनेक्शनों के सर्वे और उस पर रोक के साथ ही इसका भी सर्वे होना चाहिए कि कितने लाख घरेलू सिलेंडरों की गैस रोज व्यापारिक, व्यावसायिक, औद्योगिक और ऑटोमोबाइल में खत्म हो रही है। किसी ने इसे रोकने के सख्त कदम उठाने को प्रेरित भी नहीं किया और यह सुझाव देने का हौसला भी नहीं किया कि घरेलू सिलेंडर के व्यावसायिक दुरूपयोग पर उपयोगकर्ता, आपूर्तिकर्ता और जिम्मेदार एजेंसी के कर्ताधर्ता को प्रतीकात्मक रूप से एक दिन जेल की सजा का प्रावधान लागू कर दिया जाए तो यह गैस का दुरूपयोग रोकने में क्रांतिकारी साबित हो सकता है।
वास्तव में सब्सिडी को हमारे राजनेताओं ने अपने लिये वोट बैंक का एक अच्छा हथियार बनाने का प्रयास किया है। इससे विकास कार्य ठप्प हुए हैं, और विकास का लाभ जिन लोगों को या देश के जिन अंचलों को मिलना चाहिए था, उन्हें नही मिल पाया है। सब्सिडी वास्तव में अपने अपने मतदाताओं के लिए राजनीतिक दलों की एक रिश्वत है, जिसे लोकतंत्र में भ्रष्टाचार होते हुए भी भ्रष्टाचार नही माना जाता। जबकि इसके विषय में स्पष्ट नीति अपनाने की आवश्यकता है जिस पर जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी निर्णय लिया जाना चाहिए।