पाकिस्तान की बेटी मानवाधिकार कार्यकर्ता और लड़कियों में शिक्षा की अलख जगाने वाली 14 साल की मलाला यूसुफजई पर तालिबान ने जो गोली मारी है, वह मलाला के साथ ही इसलाम के बुनियादी उसूलों पर भी चली है। इसलाम लड़कियों को शिक्षा हासिल करने का अधिकार देता है, जिसे रोकना किसी भी सूरत जायज नहीं है। दूसरी बात यह कि अपने को इसलाम का अलंबरदार मानने वाले तालिबान ने किन इसलामी उसूलों के तहत एक मासूम बच्ची पर जानलेवा हमला किया है? मलाला 2009 से ही तालिबान की आंख का कांटा बनी हुई थी, जबसे उसने तालिबान की शिक्षा विरोधी नीति का विरोध शुरू किया था। कट्टरपंथी ताकतें उन लोगों से हमेशा से ही डरती रही हैं, जो लोगों में जागरूकता लाने की कोशिश करते रहे हैं। ऐसा हर दौर में हुआ है, हालांकि तरीके बदलते रहे हैं। मलाला के पक्ष में जिस तरह से पाकिस्तान का बच्चा-बच्चा उठ खड़ा हुआ है, उससे पता चलता है कि वे तालिबान के उस इसलाम से लोग कितना आजिज आ चुके हैं, जो कहीं से भी इसलाम का हिस्सा नहीं है, लेकिन वह हिंसा के बल पर उसे जबरदस्ती लोगों पर थोपना चाहते हैं। अच्छी बात यह है कि पाकिस्तान के 50 से ज्यादा मौलवियों ने तालिबान की गैरइसलामी हरकतों के खिलाफ फतवा जारी करके जारी अपनी जिम्मेदारी का सबूत दिया है। लेकिन बात इतनी भर नहीं है। अब दुनियाभर के इसलामी दानिश्वरों को यह तय करना पड़ेगा कि इसलाम को बदनाम करने वाली ताकतों से कैसे निपटा जाए। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसलाम को बदनाम करने में कुछ गैरजिम्मेदार गैरमुसलिम ही नहीं, खुद मुसलमान भी आगे हैं। जब कोई इसलामी पवित्र स्थलों की गलत तस्वीर बनाकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर डालता है, तो उसके खिलाफ जबरदस्त हिंसक प्रदर्शन होता है। ‘इनोसेंस ऑफ मुसलिम्स’ के खिलाफ दुनियाभर के मुसलिम सड़कों पर उतर आते हैं और कई बेगुनाह लोगों की जान चली जाती हैं। सबसे पहले तो यह कि जिस तल्ख तेवरों के साथ विरोध प्रदर्शन किया जाता है, क्या वह इसलामी तरीका है? हिंसक विरोध प्रदर्शन के दौरान किसी की जान चली जाए, क्या इसकी इसलाम इजाजत देता है? ऐसे वक्त में मुसलमान यह भूल जाते हैं कि इसलाम की रक्षा के नाम पर वह इसलाम का नुकसान ही कर रहे होते हैं। यह भी भूल जाते हैं कि कटाक्ष किया ही इसलिए जाता है, जिससे उनमें गुस्सा पनपे और वह सड़कों पर निकलें, जिससे उन्हें एक बार फिर कठघरे में खड़ा किया जा सके। इस तरह जाने-अनजाने साजिश का शिकार मुसलिम अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। यह ठीक है कि जिस तरह इसलाम पर वार किए जा रहे हैं, वे असहनीय हैं, लेकिन यदि उनका शालीनता से जवाब दिया जाए और संयम रखा जाए तो यकीनन इसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। यदि ‘इनोसेंस ऑफ मुसलिम्स’ पर इतनी तल्ख प्रतिक्रिया नहीं आती, तो बहुत ज्यादा घटिया वह फिल्म कहीं कूड़े के ढेर पर पड़ी नजर आती। हजरत मोहम्मद साहब का चरित्र इतना ऊंचा है कि उसे कोई घटिया फिल्म दागदार कर भी नहीं सकती। अब फिर मलाला पर आते हैं। उस पर किसी गैरजिम्मेदार गैरमुसलिम ने हमला नहीं किया है, मुसलमानों ने किया है। उलेमा मान चुके हैं कि हमला सरासर गैरइसलामी है। सवाल यह है कि जब खुद मुसलमान इसलाम की तौहीन करें, तो उसका विरोध शिद्दत के साथ क्यों नहीं होता? मलाला पर गोली इसलिए चली, क्योंकि वह इसलाम के बुनियादी उसूल, शिक्षा ग्रहण करने के लिए लड़कियों को जागरूक कर रही थी। वह धर्मनिरपेक्षता की हामी थी। धर्मनिरपेक्षता भी इसलाम का ही हिस्सा है। यह बात तालिबान को मंजूर नहीं थी। भारत की बात करें, तो जरा-जरा सी बात पर सड़कों पर निकल आने वाले मुसलिम मलाला मामले पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? किसी उलेमा का भी इस संदर्भ में कोई बयान अब तक नहीं आया है। उर्दू मीडिया की भी यही हालत है। पिछले दिनों हुए कुछ इसलाम विरोधी मामलों पर उर्दू मीडिया बहुत ज्यादा मुखर रहा था, लेकिन मलाला मामले पर उदासीनता बरतना समझ से परे है। क्या दुनियाभर में इसका यह संदेश नहीं जाएगा कि भारत के मुसलमान भी मलाला मामले में तालिबान के साथ खड़े हैं? यही वक्त है, जब तालिबान जैसे इसलाम दुश्मनों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ी जा सकती है। पाकिस्तान की अवाम मुखर है। इसमें भारत ही नहीं, दुनिया भर के मुसलमानों की आवाज भी शामिल हो जाए।तो अमेरिका द्वारा खड़े किए गए उस तालिबान की कमर तोड़ी जा सकती है, जिसने इसलाम की छवि धूमिल करने का ही काम किया है। तालिबान उन ताकतों का खिलौना है, जो इसलाम दुश्मनी में सबसे ज्यादा आगे रहती हैं। तालिबान की क्रूरता की ओर से आंखें मूंदने का मतलब अमेरिका की नीतियों का समर्थन करने जैसा ही होगा। इस बात को वक्त रहते समझ लिया जाए, तो बेहतर होगा।
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