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डॉ डी के गर्ग
प्रचलित पौराणिक कथा : भगवान शिव को पाने के लिए देवी पार्वती ने कठिन तपस्या की। भोलेनाथ ने कहा कि वे किसी राजकुमार से शादी करें क्योंकि एक तपस्वी के साथ रहना आसान नहीं है। पार्वती की हठ के आगे अंतत: शिव पिघल गए और दोनों का विवाह हुआ।
मान्यताओं के अनुसार, फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को शिव विवाह हुआ था, इसलिए इस दिन महाशिवरात्रि मनाई जाती है। शिव पुराण की रुद्र संहित के अनुसार, शिव जी का विवाह मार्गशीर्ष माह की कृष्ण पक्ष की द्वितीया (नवंबर-दिसंबर) तिथि को हुआ था।
कुछ का मानना है कि शिवलिंग में शिव और पार्वती दोनों समाहित हैं, दोनों ही एक साथ पहली बार इस स्वरूप में प्रकट हुए थे। इस कारण महाशिवरात्रि को भी शिव-पार्वती विवाह की तिथि के रूप में मनाया जाता है। महाशिवरात्रि पर संपूर्ण सनातनी शिव विवाह के रूप में उत्सव मनाते हैं।
विश्लेषण : शिव कौन हैं? क्या वे भगवान हैं? या बस एक पौराणिक कथा? शिव पुराण के अनुसार, महाशिवरात्रि को शिव विवाह हुआ ही नहीं था। महाशिवरात्रि मनाने का रहस्य और शिव विवाह का मुहूर्त रहस्य भिन्न-भिन्न है।
इस कथा में चार मुख्य शब्दों का भावार्थ खोजना चाहिए –शिव , पार्वती, विवाह और तपस्या ll
शिव : शिव ईश्वर को कहते है ,जो पशुपति हैं, अर्थात सृष्टि के सभी जीवों को बनाने ,उनकी रक्षा करने और उनको प्राण देने वाला हैं। यहाँ तक की मनुष्य से लेकर सारे जानवर, कीड़े-मकोड़े आदि ईश्वर ने बनाये जिसका एक नाम शिव भी है। यद्यपि शिव नाम के एक हिमालय के राजा भी हुए थे ,वे शरीरधारी महापुरुष थे । उनका ज्यादा इतिहास नहीं मिलता है।
पार्वती : पार्वती महाराजा शिव की पत्नी का नाम था ,पर्वतो में रहने वाली रानी का अलंकारिक नाम पार्वती भी है। महाराजा शिव से पार्वती को दो पुत्र हुए – गणेश और कार्तिकेयन। पार्वती शब्द के अन्य भी भावार्थ है । पार्वती प्रकृति को भी कहते हैं और प्रकृति से सर्व प्रथम महत्त्व पैदा होता है महत्त्व से अहंकार से ज्ञानेन्द्रिया इस प्रकार चौबीस तत्व होते हैं जो आत्मा के बन्धन का कारण संयम नहीं होने पर दुर्गति व मुक्ति से दूर चला जाता है।
तपस्या : शरीर को तोडना ,मोड़ना , एक पैर पर खड़े रहना ,भूखा रहना कोई तपस्या नहीं है ,बल्कि सांसारिक कर्मो से भागना है। लोगों ने तप का अर्थ नहीं समझा। कोई अपना हाथ ऊपर उठाकर खड़े रहने को तप मानते हैं। कोई काँटों पर लेटे रहने को तप मानते हैं। कोई गढ़ा खोद कर उसी में बैठे रहने को तप मानते हैं। कोई गर्मी में चारों ओर अग्नि जलाकर उसमें बैठे रहने को तप कहते हैं। ये सब तप के विकृत, दूषित और भ्रष्ट रुप हैं।
तप की कई परिभाषाएँ की गई हैं। योग दर्शन और गीता के अनुसार―
‘द्वन्द्वसहनं तप:’ अर्थात् द्वन्द्वों को सहन करना तप कहलाता है।
धर्म, सत्य और न्याय-मार्ग पर चलते हुए विघ्न-बाधाओं, कष्ट-क्लेशों, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, हर्ष-शोक और मान-अपमान, उत्थान-पतन, जन्म-मृत्यु को समभाव से सहन करना ही तप कहलाता है।
गीता में गुणों की दृष्टि से तीन प्रकार का तप बताया गया है―सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तप। जो निम्न प्रकार है―
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरे:।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते।।―(गीता १७ । १७)
भावार्थ―फल की इच्छा न करने वाले, योग में लगे हुए मनुष्यों से और उत्कृष्ट श्रद्धा से तपाया गया―यह तीन प्रकार का तप सत्त्वगुणी तप कहलाता है।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।―(गीता १७।१८)
भावार्थ―जो तप आदर, बड़ाई और पूजा के लिए और कपट से किया जाता है, वह रजोगुणी तप कहा गया है।
मूढग्राहेणात्मनो यत् पीडया क्रियते तप:।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाह्रतम्।।―(गीता १७।१९)
भावार्थ―जो तप मूर्खता के आग्रह से आत्मा को कष्ट देकर अथवा दूसरे को उखाड़ने के लिए किया जाता है, वह तमोगुणी तप कहलाता है
विवाह: सनातन धर्म में १६ संस्कार बताये गए है। जिनमे विवाह संस्कार १५ वा है।
ईश्वर तो निराकार है और किसी भी प्रकार के लिंग से रहित है ,सभी जीवधारियों का माता -पिता है इसलिए यदि शिव पार्वती के विवाह की बात राजा शिव और महारानी पार्वती के सम्बन्ध में है तो समझ आती है। क्योकि दोनों शरीरधारी थे लेकिन ईश्वर शिव का विवाह शरीरधारी पार्वती के साथ हुआ ये असत्य और अंधविश्वास है।
गलत परम्परा के दुष्परिणाम : किसी युवक को शिव का रूप बनाकर बघ्घी पर बैठा देते है और किसी लड़के या कन्या को पार्वती का रूप बनाकर साथ बैठा देते है। इनके आगे बाजे वाले बैंड पर फ़िल्मी धुनें निकालते है और कुछ भक्त शराब या भांग के नशे में नाचते हुए आगे चलते है। एक पंण्डित मंत्र द्वारा ईश्वर का विवाह करा देता है , देखो मनुष्य का दुस्साहस ?
२ दुसरे पंथ के लोग सनातन धर्म का मजाक करते है ।
३ वास्तविकता से दूर होते चले जा रहे है।
4.क्या ईश्वर भी विवाह करता है?ऐसा सोचना भी अधर्म है।
शिव -पार्वती विवाह का भावार्थ : उपरोक्त परिभाषाओं से आपको समझ आ गया होगा कि ये कोई वास्तविक विवाह नही है।
सनातन धर्म में विवाह एक पवित्र और अति विश्वास और प्रेम का बंधन है ,जिसको जन्म जन्मांतर तक साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है, इसी आलोक में याचक शिव रूपी मनुष्य ,ईश्वर यानी महाशिव के साथ अपनी आत्मीयता का संकल्प लेता है की वह उम्र भर पार्वती रुपी प्रकृति के साथ जीवन भर सामंजस्य बनाये रखेगा। ये एक प्रकार की शपथ है।
फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को धरती पर रात्रि को सबसे ज्यादा अन्धकार होता
है, जिसके कारण भूमि पर ऑक्सीज़न में भी उस समय कमी आती है, इसलिए इस दिन शाम को भी विशेष यज्ञ आदि करने की परम्परा रही है। जिसमे शिव यजुर्वेद के शिव संकल्प मंत्र द्वारा आहुति दी जाती है।
अलंकार की भाषा में इस प्रकार जीवन भर निभाने वाले संकल्प को शिव (मनुष्य) ,महाशिव (ईश्वर) और पार्वती (प्रकृति) के साथ मधुर मिलन यानी विवाह की उपमा दी गयी है ।
पार्वती के साथ भस्मासुर के नाच का भावार्थ है की मनुष्य एक नश्वर प्राणी है और उसका प्राकृति प्रेम तो ठीक है लेकिन यदि वह प्रकृति रूपी पार्वती से खेलने और स्वयं को उससे उच्च समझने लगेगा तो उसका विनाश निश्चित है,प्रकृति से खेलना विनाश को निमंत्रण देना है,और प्रकृति इसका बदला लेती है।आज पहाड़ों पर आ रहे भूकंप, बाढ़,और चट्टाने खिसकना आदि इसी का परिणाम है जिसके लिए मानव भस्मासुर बना हुआ है।
ये भी एक अलंकार की भाषा है,जिसका भावार्थ बहुत ज्ञान देने वाला है।
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