गतांक…………
क्षितीज वेदालंकार जी लिखते हैं ‘सबसे अधिक गड़बड़ी धर्म और मजहब सम्प्रदाय तथा पंथों और सम्प्रदायों को एक ही समझने की भूल से हुई है।” धर्म न रिलीजन है, न मजहब है, न पंथ है, न संप्रदाय। धर्म तो ऐसे शाश्वत सिद्घांतों का नाम है, जिनसे मानव जाति परस्पर सुख और शांति से रहती हुई जीवन को ऊंचाई की ओर ले जा सके। धर्म नैतिकता और आचरण प्रधान है, मान्यता प्रधान नही। धर्म व्यक्ति केन्द्रित नही है, सदाचार केन्द्रित है। धर्म बाह्य आडंबर या कर्मकाण्ड नही। वह व्यक्ति का अपने सारे समाज को व्यवस्थित रखने का आदर्श है। धर्म का नाम धर्म है ही इसलिए कि वह सारी प्रजा को धारण करता है-धर्मों धारयते प्रजा:। इसके साथ ही जनेऊ, तिलक, दाढ़ी, चोटी या बुरका, या खतना या कोई भी बाहरी चिन्ह धर्म का अंग नही है। वे विशिष्ट वर्गों की पहचान की निशानियां हो सकती हैं, परंतु उनका धर्म से कोई वपास्ता नही है। इसलिए नीतिकारों ने यह भी स्पष्ट कहा है-न लिंगधर्म कारणम कोई बाहरी चिन्ह धर्म का कारण नही होता।
महर्षि दयानंद इसी प्रकार की आदर्श सामाजिक व्यवस्था के प्रतिपादक और पक्षधर थे। कदाचित यही उद्देश्य हमारी संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों द्वारा इन अनुच्छेदों को संविधान में रखवाने का था। सेमेटिक संप्रदायों की विखंडनवादी सोच और नीतियों को वह लागू नही करना चाहते थे, अपितु इन्हें विलीन करना चाहते थे। संभवत: हम संविधान की भावना को समझ नही पाए। यही कारण है कि पिंजरे का पंछी (संविधान की आत्मा) पीड़ा से तड़प रहा है।
महर्षि दयानंद के विचार
महर्षि दयानंद देश में एक मत, एक विचार, एक भाषा, एक धर्म के विचार को लागू करना चाहते थे। वह मूर्ति पूजा को विभिन्न मत, पंथ और संप्रदायों की जननी मानते थे। यही कारण था कि देश में एकता का अभाव होकर विभिन्नताएं उत्पन्न हो गयीं। संविधान के उपरोक्त अनुच्देद अपनी मूल भावना के अनुरूप इन विभिन्नताओं को यद्यपि समाप्त करना चाहते हैं, परंतु इन अनुच्छेदों से ऐसा भी प्रतिध्वनि होता है कि जैसे ये अनुच्छेद ही विभिन्नताओं में एकता तलाशने की गलती हमसे करा रहे हैं। इसका अभिप्राय है कि ये अनुच्छेद स्वयं में अस्पष्ट है। जैसे अनुच्छेद 25 आपको किसी भी धर्म को अपनाने की छूट देता है। इससे लगता है कि धर्म बहुत से होते हैं, और आप उनमें से जिसे चाहें उसे अपने लिए चुन सकते हैं। यदि इस अनुच्छेद में धर्म के स्थान पर कोई संप्रदाय या पूजा पद्घति अपनाने की छूट देने की बात कही जाती तो बात समझ में आ सकती थी। मूर्ति पूजा को विश्व के बड़े बड़े विद्वानों ने लोगों में परस्पर विभाजन कराने वाली कहा है।
इसीलिए महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा-मूर्ति पूजा सीढ़ी नही किंतु एक बड़ी खाई है, जिसमें गिरधर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है पुन: उस खाई से निकल नही सकता, किंतु उसी में मर जाता है। महर्षि का मानना था-जिन मत मतांतरों को मैं छिन्न भिन्न करना चाहता हूं, उनकी जड़ ही मूर्ति पूजा है और जब तक जड़ न काटी जाए वह संभव नही कि केवल शाखों के काटने से पाप रूपी वृक्ष उखड़ जाए। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ भी हमें महर्षि दयानंद से ही ठीक ठीक मिलता है। उन्होंने कहा है-जो पक्षपात रहित न्यायाचरण, सत्य भाषाणादि युक्त, ईश्वराज्ञा वेदों से अविरूद्घ है, उसको धर्म और जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण, मिथ्या-भाषाणादि, ईश्वराज्ञा भंग वेद विरूद्घ है, उसको अधर्म मानता हूं।
महर्षि दयानंद के इस कथन से स्पष्टï होता है कि धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ है पक्षपात रहित न्यायपूर्ण आचरण करने के लिए सबको स्वतंत्र छोडऩा। संप्रदाय, जाति, वंश, क्षेत्र, प्रांत, भाषा लिंग आदि पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर जो न्याय दिया जाता है, उसे न करना ही धर्म की स्वतंत्रता है। यदि इसके विपरीत हमारा आचरण है तो समझना चाहिए कि हम धर्म की हत्या कर रहे हैं या धर्म का गला घोंट रहे हैं। संविधान के उपरोक्त अनुच्छेदों का यदि यही अर्थ निकाला जाए तो ये अनुच्छेद वेद के आदेश और महर्षि के संदेश का अक्षरश: पालन करते कराते प्रतीत होते हैं। हम धार्मिक कार्यों का प्रबंध करकें तथा किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह को उत्पीडि़त, शोषित या अपमानित ना करें।
जिन लोगों ने अपने अपने सम्प्रदायिक शासन काल में एक दूसरे संप्रदाय को या उसके मानने वालों को मिटाने के दृष्टिकोण से उनसे धार्मिक कर लिया, उनका वह कृत्य अशोभनीय था, यह परंपरा अब लोकतांत्रिक युग में समूल नष्ट होनी अपेक्षित है।
हमारा संविधान मानवतावाद का पोषक है। वह किसी भी संप्रदाय या व्यक्ति को समाप्त करने की धमकी नही देता, ना ही ऐसा करने के लिए किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति के समूह को आदेशित करता है। संविधान हमें कदम कदम पर हर व्यक्ति और व्यक्ति समूहों के हितों की रक्षा करता हुआ प्रतीत होता है। यह दृष्टि वेदों की देन है। जो इस देश की माटी की सोंधी सुगंध में इस प्रकार रच बस गयी है कि उसे इससे अलग नही किया जा सकता। भारत के इस मानवतावाद ने भारत में एक सार्वभौम धर्म की स्थापना करायी। यह सार्वभौम धर्म (सारे भूमंडल के प्राणियों के साथ पक्षपात रहित न्यायपूर्ण आचरण करने वाला) वैदिक धर्म ही है। महर्षि दयानंद कहते हैं चूकि ईश्वर एक है, अत: धर्म भी एक है, और ये वेद धर्म है। पांच हजार वर्ष पूर्व वैदिक धर्म के अलावा और कोई धर्म नही था। महर्षि दयानंद जी का मानना था मैं ऐसे धर्म में विश्वास करता हूं जो सार्वभौम है और जिसके सिद्घांत सभी मनुष्य सत्य रूप से स्वीकार करते हैं।
इस सार्वभौम धर्म से संप्रदायों का जन्मजात वैर है। सम्प्रदाय इस सार्वभौम धर्म के रूप में छदमवेश धारण करके हर समय मानव और मानव समाज का अहित करते रहे हैं। सम्प्रदाय व्यक्ति की मिथ्या महत्वाकांक्षाओं निहित स्वार्थों और स्वमताग्रही स्वभाव के कारण जन्म लेते हैं। इसलिए ये मूलत: किसी अन्य सम्प्रदाय का अहित करने के लिए ही जन्म लेते हैं। सार्वभौम धर्म व्यक्ति के अंत:करण को शुद्घ और पवित्र रखता है। इसी धर्म से अनुप्राणित राष्ट्रधर्म (राजनीति) भी लोगों को उन्नत मानव समाज का निर्माण करने के लिए अनुप्रेरित करता है।
इसलिए ऐसे सार्वभौम धर्म की स्थापना करना और उसे भारतीय राजनीति का आदर्श बना देना हमारे संविधान का वास्तविक उद्देश्य जान पड़ता है। भारत की वर्तमान दिशाहीन और पथभ्रष्ट राजनीति को वेदसंगत भारतीय संविधान की इस भावना का सम्मान करना चाहिए।
मोक्ष का साधन धर्म है
धर्म का अर्थ करते हुए वेद कहता है :-
‘इन्द्रो जातो मनुष्येष्वन्तर्धर्मस्तप्त श्चरित शोशुचान:”
मनुष्यों में उत्पन्न होकर, अत्यंत दीप्तिमान होकर तपस्या करता हुआ इंद्रजीव जब विचरता है, तब वह धर्म है, अर्थात मनुष्य योनि में आकर ज्ञान, वैराग्य, और तप से युक्त जीव धर्म कहलाता है। इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि अंत:करण की पवित्रता शुचिता पूर्ण तपस्वी जीवन की प्रतिपादक है। ज्ञान, वैराग्य और तप ये मोक्ष के साधन हैं। मोक्ष मानव जीवन का परम ध्येय है। वेद ने आगे कहा है-
धर्मस्य तपसा व्रतेन यशस्यव:
अर्थात तपस्वी वैराग्यवान, जीव का यशस्विता पूर्ण जीवन इस प्रकार इहलोक और परलोक दोनों की व्यवस्था को सुव्यवस्थित करता है। धर्म विकृतियों को विसंगतियों को और प्रत्येक प्रकार की विषमताओं को चुन चुनकर समाप्त करता है। ऐसे धर्म की स्वतंत्रता यदि हमारा संविधान हमें प्रदान करता है तो समझो कि ऐसा संविधान जीवन प्रदायक ही नही अपितु मोक्षप्रदायक भी कहा जाएगा।
तप अशुद्घि का नाश करता है। तप हमें उच्चतम दिव्यता और महानता प्रदान करता है और यह तप हमें धर्म से प्राप्त होता है। द्वंद्वों को सहन करना और उनके बीच रहकर भी अपने कत्र्तव्य पथ पर आरूढ़ रहना ही तपस्वी जीवन का प्रतीक है। ऐसे उत्कृष्ट मानवीय समाज की रचना करना हमारे संविधान का उद्देश्य है, इसलिए संविधान ने व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान की है। आज संविधान की इस वेदसंगत भावना को इसी अर्थ और संदर्भ में ग्रहण करने की आवश्यकता है। क्रमश: