ठीक इसी प्रकार व्यष्टि चित्त में पड़ा कोई प्रबल शुभ संस्कार अनुकूल वातावरण पाकर जब भोगोन्मुख होता है तो वह समष्टि चित्त से सजातीय संस्कारों को खींचता है जिनसे उसे विशेष ऊर्जा मिलती है। घोर गरीबी, विघ्न बाधाओं के बावजूद भी वह व्यक्ति ऐसे सबके आकर्षण और प्रेरणा का केन्द्र बनता है जैसे कूड़े, और कांटों के बीच कोई खिलता हुआ गुलाब हो।
यह व्यक्ति के व्यष्टि चित्र पर निर्भर करता है कि वह समष्टि चित्र से शुभ संस्कारों को खींचता है अथवा अशुभ संस्कारों को। यदि किसी का व्यष्टि चित्र शुभ संस्कारों को समष्टि चित्त से खींच रहा है तो ऐसा मनुष्य किसी भी व्यक्ति, वस्तु, घटना परिस्थिति अथवा आत्म प्रज्ञा से प्रेरित होकर आगे बढ़ता है, जैसे महात्मा बुद्घ, महर्षि देव दयानंद इत्यादि। ध्यान रहे, विषम परिस्थितियां होने के बावजूद भी ऐसा व्यक्ति सुबह के सूर्य की भांति उतरोत्तर उदीयमान होता है और अपने कर्मक्षेत्र में सफलता के शिखर पर पहुंचता है, देखने वाले हतप्रभ रह जाते हैं। लोग कहते हैं इसका कोई पिछले जन्म का शुभ संस्कार उदय हो गया है अथवा कोई पूर्व जन्म का पुण्य सामने आ गया है। भगवान ने इसकी बांह पकड़ती है। दिव्य शक्तियां इसका साथ दे रही है, ये दिव्य शक्तियां क्या है? पिछले जन्म की बुद्घि और शुभ संस्कार ही दिव्य शक्तियां हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए विकास के मार्ग स्वत: ही खुलते चले जाते हैं। उसे वैसे ही मित्र, बंधु बांधव, साधन और मार्गदर्शक गुरू मिलते चले जाते हैं जैसा उसका पूर्व जन्म का प्रबल संस्कार उसे बनाना चाहता है। इस संदर्भ में रमाचरित मानस के उत्तरकाण्ड का ये उद्घोष देखिए:-
अति हरिकृपा जाहि पै होय।
पाऊं देहि एहिं मारग सोई।।
किंतु यदि किसी के चित्त में कुसंस्कारों का प्राबल्य है तो उसे चाहे यज्ञ पर बैठाकर समझाओ अथवा अकेले में उसकी समझ में उसके ही हित की बात नही आती। जैसे पर्वतों पर चाहे कितनी भी घनघोर वर्षा हो किंतु पत्थर नम नही होते। महाभारत में स्वयं भगवान कृष्ण ने दुर्योधन को युद्घ से पहले बहुत समझाया किंतु वह पत्थर की भांति कठोर और प्रभाव शून्य होकर कहता है :- हे माधव! मैं धर्म को जानता हूं, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नही होती और अधर्म को भी जानता हूं किंतु उससे मेरी निवृत्ति नही होती। यह क्या है? यह दुर्योधन के व्यष्टि चित्त से अपने पूर्व जन्म के कुसंस्कारों को खींच रहा है, ठीक नींबू और नीम की तरह।
सहसा हम किसी व्यक्ति को देखकर कहते हैं यह तो चालाक लोमड़ी है, कौआ है, बगुला भगत है, भेडिय़ा है, जहरी नाग है, कुत्ता है, कमीना है इत्यादि, किंतु किसी को देखकर हम बड़ी श्रद्घा और स्नेह से कहते हैं यह तो कोई गऊ है, संत है, देवपुरूष है, धरती पर कोई फरिश्ता आया है, अरे किसी सरोवर का हंस आया है, बगिया में बसंत आया है। ऐसा हम क्यों कहते हैं? क्योंकि हमारे चित्त में पूर्व जन्मों के संस्कार भी विद्यमान होते हैं, जो कहीं न कहीं हमारे व्यवहार से परिलक्षित हो जाते हैं, जिनका यह समाज बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन और मूल्यांकन करता है और व्यक्ति को वैसी ही संज्ञा दे देता है। चाहे वह सामान्य नागरिक हो अथवा शीर्षस्थ पद पर आसीन हो। कहने का अभिप्राय यह है कि सृष्टि में केवल मनुष्य को छोड़कर सभी योनियां भोग योनियां हैं जबकि मनुष्य योनि, कर्म योनि और भोग योनि दोनों है। यदि हम इस जन्म में शुभ कर्म करके उनके शुभ संस्कारों की तरंगों को व्यष्टि चित्त के द्वारा समष्टि चित्त को भेज रहे हैं तो अगले जन्म में हमें वे ही मिलेंगे और यदि बुरे कर्म, पाप करके हम अपने व्यष्टि चित्त को दूषित कर रहे हैं तो अगले जन्म में समष्टि चित्त से हमें वे ही मिलेंगे तथा नरक भोगेंगे। अत: स्वर्ग परलोक की इच्छा करने वालों को सत्कर्म पुण्य करके व्यष्टि चित्त को समय रहते पवित्र बनाना चाहिए। ताकि समष्टि चित्त में शुभ संस्कार अगले जन्म के लिए संचित हो जाएं।
ध्यान रहे चित्त के मलिन होने पर ही आत्मा मलिन होती है। चित्त के संस्कार ही हमें पापलोक और पुण्यलोक में लेकर जाते हैं चित्त ही नरक का गहवर है और स्वर्ग की सीढ़ी भी। जैसे चलचित्र सिनेमा की फिल्म की रील में सारी फिल्म की स्टोरी और संबंधित नजारे अति सूक्ष्म रूप से अंकित होते हैं। ठीक इसी प्रकार हमारे समस्त जीवन के सभी कर्मों के अति सूक्ष्म अच्छे बुरे संस्कार चित्त की रील में अंकित होते रहते हैं। इसी के आधार पर हमें पुनर्जन्म अथवा परलोक मिलता है। सच पूछो तो जैसे वायुयान में फ्लाइट डेटा रिकार्डर ब्लेक वॉक्स में होता है, ऐसा है हमारा चित्त। अब प्रश्न पैदा होता है कि प्रभु प्रदत्त इस अनमोल नियामक उपहार को कोमल अथवा पवित्र कैसे रखा जाए? इस संदर्भ में महात्मा बुद्घ कहते हैं मन, वचन और कर्म से किसी को कष्ट मत पहुंचाओ। इसी संदर्भ में महर्षि पतंजलि कहते हैं चित्त की कोमलता के लिए मुदिता अर्थात प्रसन्नता, मैत्री, करूणा, तितिक्षा तप उपेक्षा और अद्वेषटा अर्थात बैर रहित होना श्रेयष्कर है। अत: जीवन में चित्त की कोमलता अथवा पवित्रता के लिए उपरोक्त बातों का विशेष ध्यान रखें। यदि आप ऐसा करेंगे तो आपका यह जीवन तो सुख शांति से व्यतीत होगा ही साथ ही परलोक की प्राप्ति के लिए समष्टि चित्त और व्यष्टि चित्त दोनों ही प्रकार के चित्तों का परिवर्धन और परिमार्जन होगा। इतना ही नही अगला जन्म भी सुधरेगा, परलोक भी मिलेगा। स्मरण रहे, परिष्कृत चित्त में ही परमात्मा का दीदार होता है।
जिस प्रकार शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उसका भोजन अन्न है। ठीक इसी प्रकार चित्त का भोजन अथवा अन्न शुभ संकल्प, सद्भाव, शुभ संस्कार शुभ स्मृति और शुभ कल्पनाएं अर्थात सद्प्रवृत्तियां हैं। अत: चित्त की प्रसन्नता और स्वास्थ्य के लिए इनकी प्रचुरता सर्वदा बनाये रखें। ध्यान रहे, हमारा चित्त परमपिता परमात्मा ने इतना सुकोमल और संवेदनशील बनाया है कि किसी के प्रति बुरा सोचने मात्र से ही यह गंदा हो जाता है। इसलिए इसकी पवित्रता को अक्षुण बनाये रखने के लिए जहां आपके कर्मों में पवित्रता होनी चाहिए वहां आपकी वाणी में संयम और चिंतन में पवित्रता होनी चाहिए। इसे क्षण भर के लिए भी मायूस न होने दें, पश्चाताप की अग्नि में कभी न जलने दें। इसे फूल की तरह खिलने दें। मुझे ऐसे लोगों को देखकर तरस भी आता है और हंसी भी, जो ऊपर से आध्यात्मिकता का ढोंग रचते हैं किंतु अंदर से कितने कलुषित, कुटिल और कठोर हैं, बस पूछो मत। हद तो तब हो जाती है जब ऐसे लोग न्यायालय में अपने धर्मग्रंथ गीता कुरान, इत्यादि पर हाथ रखकर झूठी कसमें खाते हैं, सफेद झूठ बोलते हैं। यहां तक कि मुकदमा जीतने के लिए मोटी रिश्वत तक देते हैं। पता नही क्या क्या हथकंडे अपनाते हैं, ये तो वे ही जानें। बेशक वह इस सांसारिक न्यायालय से मुकदमा जीत जायें अथवा जिता दें किं तु उनका चित्त कालांतर तक मायूस रहता है और उनकी आत्मा उन्हें अंदर ही अंदर कचोटती रहती है। ऐसे लोग बेशक गवाह हों, वादी हों, प्रतिवादी हों अथवा अधिवक्ता हों, वे ईश्वर के न्याय से बच नही सकते।
कई बार मेरा हृदय काफी विदीर्ण हो जाता है जब मैं लोगों को झूठी शान और धन संपत्ति के लिए भ्रष्टाचार बेईमानी झूठ कपट फरेब, मिलावट, रिश्वत व षडयंत्र और शातिराना अंदाज में अपने ही भाई, मित्र व रिश्तेदारों की निर्दयता से हत्या और देश के साथ गद्दारी करते देखता हूं। सोचता हूं हे प्रभु! ये लोग क्या कर रहे हैं? अपने ही पैरों पर अपने आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं। अपने समष्टि चित्त और व्यष्टि चित्त दोनों को दूषित कर अपना अगला जन्म भी बिगाड़ रहे हैं, ये कैसे लोग हैं? जो घोर पाप कर रहे हैं, और जिसके लिए इतने जघन्यतम कुकृत्य कर रहे हैं, वह सब तो एक दिन यही पड़ा रह जाएगा। हे करूणा निधान! इन पर करूणा करना और इन्हें सद् बुद्घि देना, इनके चित्त में विवेक का दीपक जलाना क्योंकि तेरे शाश्वत न्याय की तराजू से कोई जीव बच नही सकता। काश! , ऐसे लोग रामचरित मानस की इन पंक्तियों से प्रेरणा लें :-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
कोमल चित्त वालों को तो आश्वस्त करते हुए भगवान राम कहते हैं-
ज्यों सभीत आवा सरनाई।
राखिहऊं ताहि प्रान की नाई।।
कुटिल हृदय वाले लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिकता का लवादा पहनें, नये नये ढोंग रचें किंतु वे ईश्वर भक्त नही हो सकते। ईश्वर भक्त के लिए चित्त में कोमलता, सरलता, पवित्रता का होना नितांत आवश्यक है। इस संदर्भ में रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड की ये खामोश पंक्तियां अपनी मूक भाषा में बहुत कुछ कहती हैं :-
मम गुन गावत पुलक शरीरा।
गदगद हिय नयन बहै नीरा।।
काम आदि मद दम्भ न जाके।
बात निरंतर बस में ताके।।
अर्थात मेरे गुण गाते हुए जिसका शरीर रोमांचित हो जाए, चित्त गद गद हो जाए और मनुष्य की अमर क्रांति के मोती आंसू से बहने लगें, काम, अभिमान और पाखण्ड आदि जिसके चित्त में न हों, हे तात, मैं उसके सदा वश में रहता हूं, भाव यह है कि कोमल और पवित्र चित्त में ही परमात्मा का निवास होता है। इसी श्रंखला में गीता के पंद्रहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं-हे पार्थ यदि मेरी शरणागति पाना चाहते हो तो सत चिंतन, सत चर्चा और सत्कर्म पुण्य करो। गीता के अठारहवें अध्याय के 57वें श्लोक में स्पष्ट कहते हैं-मंचित: सततं भव अर्थात हे पार्थ! यदि मेरा सामीप्य पाना चाहते हो तो निरंतर मेरे में चित्त वाला हो जा, यानि मेरे साथ अटल संबंध कायम कर ले। मन्मना भव मदभक्तों 18/65 अर्थात मेरे जेसे चित्त वाला हो जा। मामेकं शरणं ब्रज: 18/66 अर्थात अनन्य भाव से मेरी शरण में आ जा। कहने का अभिप्राय यह है कि चित्त की पवित्रता पर गीता में भी विशेष बल दिया गया है। षट सम्पत्ति शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्घा और समाधान में भी सतत वृद्घि करते रहें। ईसाईयों के धर्म गुरू जीसस क्राइस्ट ने कहा था-रोज नये कपड़े पहनो अर्थात अपने चित्त को नित्य नयी सद़प्रवृत्तियों से सजाओ, दृश्प्रवृत्तियों से नहीं। उन्हें तो पुराने और मैले कपड़ों की तरह छोड़ते चलो। अत: चित्त की पवित्रता के लिए प्रतिक्षण सतर्क रहिए और परलोक (स्वर्ग) में अपना स्थान सुनिश्चित कीजिए। हमारा वेद कहता है-तुम अमृत पुत्र हो, इसलिए तुम अमृत ही बनो, विष नही।
हमेशा याद रखो, शरीर बंधन का हेतु नही अपितु संसार सागर से पार तरने की सुगठित नौका है। आत्मा जिसका स्वामी है और चित्त पतवार-
महर्षि कणाद।