शिव के गले में सर्प का रहस्य*

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डॉ डी के गर्ग

पौराणिक मान्यताये : इस विषय में अनेको कथाएं प्रचलित है। शिव की जो तस्वीर /मूर्ति बनाई गई है उसमे शिव के गले में एक सर्प लिपटा हुआ दिखाई देगा। इस सर्प को एक विशेष नाम- वासुकि दिया गया है।
दो मुख्य कथाये प्रचलित है। पहली कथा के अनुसार वासुकी नागलोक के राजा का नाम है ,ये शिव भक्त होने के कारण हमेशा की शंकर जी की भक्ति में लीन रहते थे। इसलिए प्रसन्न होकर शिवजी ने वासुकी को उनके गले में लिपटे रहने का वरदान दिया था। इससे नागराज अमर हो गए थे।
दूसरी कथा : समुद्र मंथन के दौरान वासुकी नाग को मेरू पर्वत के चारों ओर रस्सी की तरह लपेटकर मंथन किया गया था।एक तरफ उन्हें देवताओं ने पकड़ा था तो एक तरफ दानवों ने। इससे वासुकी का पूरा शरीर लहूलुहान हो गया था। इससे शिव शंकर बेहद प्रसन्न हुए थे।
तीसरी कथा : जब वासुदेव कंस के डर से भगवान श्री कृष्ण को जेल से गोकुल ले जा रहे थे तब रास्ते झमाझम बारिश हुआ थी। इस बारिश में भी वासुकी नाग ने ही श्री कृष्ण की रक्षा की थी। मान्यता तो यह भी है कि वासुकी के सिर पर ही नागमणि विराजित है।
विश्लेषण : इन अवैज्ञानिक कथाओं और मान्यताओं में समय ना बर्बाद करके वास्तविक वैदिक भावार्थ समझना चाहिए।
दरअसल परमेश्वर निराकार है और हमेशा से है और हमेशा ही रहेगा ,वह सर्वशक्तिशाली है ,उसकी शक्ति का अंदाजा लगाना हो तो समुंद्र,पर्वत,सूर्य ,चंद्र और सौरमंडल की कल्पना करो ,वह सृष्टि का रचने वाला सभी का पिता है ,सभी प्राणियों को कर्मानुसार बुद्धि और बल प्रदान करता है। वह शरीर रूप में नहीं, बल्कि तत्व रूप में हर जगह मौजूद हैं। किसी भी लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां ईश्वर ना हो।

ऐसे ईश्वर को इतना कमजोर समझना की वह शरीरधारी है जो नाग सर्प की मदद लेता है, चाटुकारिता पसंद है क्योंकि वह अपनी स्तुति करने वाले पर खुश होता है, भांग पीता है,बैल पर सवारी करता है ,ये घटिया और मूर्खतापूर्ण कल्पना है।

सत्य ये है कि हमारे चित्रकार ,शिल्पकार ईश्वर के गुणों का बखान करने उनको विस्तार से समझने के लिये काल्पनिक चित्र, मुर्तिया बनाते रहे है ,ऐसी प्रकार कवी , लेखकों ने ईश्वर की महिमा का बखान श्रद्धावश अलंकार की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि ईश्वर के प्रति श्रद्धा हो और पाप कर्म से ईश्वर के प्रति डर पैदा हो।
इस कथा में समुद्र मंथन की कथा एक अलंकारिक कथा है और हमें भी इस कथा की अलंकारिक भाषा को समझना चाहिए। हमारा मष्तिष्क एक समुन्द्र की भांति है, जिसमे विचारो की ,परेशानियों की श्रंखला बहुत लम्बी है जो हमेशा सर्प की भांति चलती रहती है परंतु इन विचारों की श्रंखला ऐसी है कि जहा हर पल खतरा है और सावधानी की जरुरत है।मानव जीवन में परेशानियां एक पर्वत की तरह है। इसके हल के लिए मंथन चलता रहता है । एक कहावत भी है की मनुष्य क्या करे ,एक तरफ कुआ तो दूसरी तरफ खाई। एक तरफ आनद देने वाले देवता है तो दूसरी तरफ परेशानी देने वाले दुर्जन भी धरती पर है।मानव के इसी विचार मंथन को समुन्द्र मंथन की संज्ञा दी गयी है।
देवता तथा असुर कौन है? देवता से अभिप्राय अच्छे संस्कारित विचार अस्तेय, संतोष, सत्य आदि और असुर यानि राक्षसी दल हैं, गंदे विचार, असत्य बोलना, हिंसा, द्वेष, आलस्य, प्रमाद आदि हैं।
एक अन्य विचार के अनुसार शिव के चारों ओर विषधर लिपटे हुए हैं का भावार्थ है की ये विषधर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, ईष्र्या, द्वेष, पक्षपात आदि के प्रतीक हैं। जिन्हें योगी शिव अपने अन्तःकरण से बाहर फेंककर अनासक्त भाव से विचरण करते हैं।

वासुकि का भावार्थ है समस्त ८ वसु , जो ३३कोटि (प्रकार) के
देवताओ में शामिल है। वसु का मतलब जिसके कारण से बसने में सहायक हो। ये भौतिक रूप से दिखाई भी देते है — अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य, द्यौ, चन्द्रमा, नक्षत्र ।इनके कल्याण का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर हर पल रहता है। इस सबके बनाने और प्रदान करने वाला ईश्वर ही है। ऋग्वेद में वसु के २९९ संदर्भ मिलते है, और चारो वेदो में वसु के 525 सन्दर्भ मिलते है।
एक अन्य विद्वान के अनुसार शिव जी के चित्र में उनके गले में सर्प इसलिए दिखाया है कि मनुष्य को ये मुर्ति देखकर हमेशा याद रहे कि मन जो कल्पना करके माया/दुर्गा के द्वारा कण्ठ से जो मनचाही वाणी बुलवाता है वह इस सर्प के जहर से भी ज्यादा खतरनाक होती है। सर्प तो एक बार डसकर काम तमाम कर देता परतुं गले/कण्ठ से निकली गलत वाणी जीवन भर डसती रहती ओर तडफाती रहती है। यही बुरे कर्मों का आधार होती जो आपको स्वर्ग -नरक की प्राप्ति होती है ।
शिव शब्द का का रहस्य समझ लेना चाहिए,सिर्फ भोले ,जय बाबा भोले रटने से काम नहीं चलेगा । ये अज्ञान व अन्धविश्वास नहीं तो ओर क्या है? आप स्वयं सत्य पर विचार करो। अवधूत रूपी शिव के चित्रण से किसी कलाकार ने ईश्वर के अपार गुणों का बखान किया है । इस गूढ़ ज्ञान को समझना और अपनाना चाहिए। इसका स्पष्ट संदेश है कि
मनुष्य को व्यावहारिक होना चाहिए ,असभ्य नहीं और अपने व्यवहार और विचारो में कटुता ,देश भाव और छल कपट नहीं लाना चाहिए। सर्प वायु में फैली कार्बन डाई यानि जहर को भी ग्रहण करता है , इसी प्रकार मनुष्यता बनाये रखने के लिए मानव को शिव के सामान होना चाहिए -कल्याणकारी , मधुर ,सहनशील और सभी परिस्थितियों में एक सामान सीधे बैठे हुये।
संक्षेप में ये कह सकते है की जो भी कथा प्रचलित है वे विद्वानों ने अपने अपने अनुसार लिखी है। और सभी का अपना- अपना महत्त्व है। लेकिन इसी मूर्ति को ही ईश्वर मान लेना ,उस पर दूध चढ़ाना ,उससे आशीर्वाद मांगना अंधविस्वास है।

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