सारी राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियां कांग्रेस की देन हैं
यह केवल भारत के राजनीतिज्ञों का राजनीतिक चिंतन हो सकता है कि इस देश में गरीबी भी जाति देखकर आती है, इसलिए यहां जातिगत आरक्षण दिया जाता है। इसीलिए भारत में एक गरीब केवल एक व्यक्ति नही होता है अपितु वह एक जाति विशेष का व्यक्ति होता है। कानून उससे जाति नही पूछता लेकिन भारत की राजनीति और राजनीतिक व्यवस्था उससे उसकी जाति पूछती है। आजादी के बाद 1952 में देश में पहली बार आम चुनाव हुए थे। इन चुनावों के समय देश की संसद की लोकसभाई सीटों की कुल संख्या 489 थी। इनके लिए 17,32,12,343 मतदाता थे। जिनमें से लगभग 58 प्रतिशत ने चुनाव में भाग लिया। मतदाताओं में एक जोश था नया भारत बनते देखने का। एक ऐसा भारत जिसमें शोषण, अन्याय, अत्याचार, उत्पीडऩ अनाचार और अनैतिकता पर पूर्ण प्रतिबंध लगा हो। जनता के इस जोश को कैश करने के लिए कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी होने के कारण सबसे अधिक लाभ में रहने वाली थी। कांग्रेस के पास नेहरू नाम का एक आकर्षण था। परंतु नेहरू जी देश में औपनिवेशिक शासन प्रणाली को लागू कराके देश के प्रति अपनी ईमानदारी का सबूत दे चुके थे। देश में इस शासन प्रणाली को लागू करवाना देश के लिए एक अपघात था। नेहरू जानते थे कि देश की जनता उनके इस प्रयास को स्वीकार नही करती लेकिन उन्होंने औपनिवेशिक शासन प्रणाली को देश में इसलिए लागू कराया क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र देश की बागडोर सौंपी थी। तब नेहरूजी ने देश में आरक्षण और मुस्लिम तुष्टिकरण के औपनिवेशक शासन प्रणाली के दोनों अवगुणों को अपनी ढाल बनाया और उन्हीं के सहारे अपने जीवन के हर चुनाव में सफल रहे। देश के पहले आम चुनाव में 17,32,12,343 मतदाता थे तो 2004 के आम चुनाव में 67,14,87,930 मतदाता थे। नेहरू जी ने देश में पंचवर्षीय योजनाएं बनाकर उनके अनुसार देश की समस्याओं का समाधान करते हुए विकास का एक खाका खींचा। पहली पंचवर्षीय योजना के लिए देश की 32 करोड़ आबादी को ही ध्यान में रखा गया। माना गया कि पहली पंचवर्षीय योजना में हम इतने लोगों को रेाजगार देंगे, इतने गांवों को बिजली देंगे अमुक अमुक रोजगार के नये अवसर तैयार करेंगे। सरकार की सोच थी कि देश की गरीबी को तंगहाली और फटेहाली को वह अधिक से अधिक बीस वर्ष में भगा देगी। लेकिन देश को उस समय नेहरू की मृत्यु के समय पता चला कि गरीबी हटी नही बल्कि बढ़कर दो गुणी हो गयी है। कारण था देश के परंपरागत रोजगार के साधनों को और अवसरों को नेहरू जी ने देश में बड़े और भारी उद्योग स्थापित करके पददलित कर दिया था। जैसे जुलाहे का परंपरागत काम उससे छीनकर बड़ी कंपनियों को दे दिया, इससे जुलाहे तो हजारों और लाखों की संख्या में बेरोजगार हो गये, जबकि रोजगार कुछ मुट्ठी भर लोगों को ही मिला। लेकिन सरकारी फाइलों में आंकड़े इस प्रकार तैयार किये गये जिससे देश की जनता को ऐसा लगे कि उसके लिए बहुत कुछ किया गया है। सत्य को छिपाया जाता रहा है और झूठे सच का ढिंढोरा उसी प्रकार पीटा जाता रहा है जिस प्रकार आजकल एफडीआई को लेकर पीटा जा रहा है। होना ये चाहिए था कि देश के परंपरागत व्यवसायों में लगे लोगों को आबाद किये रखने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाता और नये रोजगार के अवसर पैदा करने से पूर्व ये सोचा जाता कि इन अवसरों का प्रभाव देश के परंपरागत व्यवसायों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
इतना सोचना तो दूर देश की सरकार ने ये भी नही सोचा कि देश की पहली पंचवर्षीय योजना के पश्चात यदि हम एक करोड़ लोगों की गरीबी दूर कर पाएंगे तो पांच वर्ष में बढऩे वाली आबादी में गरीबों की संख्या कितनी बढ़ रही होगी? यानि जितनी जनसंख्या 1952 में थी सोचा गया कि ये इतनी ही रहेगी और हम धीरे धीरे सारे देश को खुशहाल बना लेंगे। सर्वथा एक बकवास भरा सपना था यह। आज हमारे पास 1947 की कुल जनसंख्या के तीन गुने लोग भूखे और नंगे हैं। 1971 में इंदिरा गांधी ने पहला आम चुनाव लड़ा। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ को अपना चुनावी नारा बनाया। मानो वह स्वीकार कर रही थीं कि नेहरू जी से कहीं गलती हुई और अब हम उसे सुधारेंगे। जनता ने इंदिरा को समर्थन दिया और वह देश की पीएम बन गयीं। लेकिन गरीबी नही हटी। देश में हमें बताया जाता रहा कि अब इतनी आबादी बढ़ गयी है और अब इतनी बढ़ गयी है लेकिन ये नही बताया गया कि देश में गरीबी भी इतनी बढ़ गयी है। सचमुच में देश की आबादी नही बढ़ती बल्कि देश में गरीबी बढ़ रही है। बढ़ती हुई उस गरीबी को अन्य चीजों की गंदगी से ढकने का प्रयास किया जाता है। इन अन्य चीजों को भी कांग्रेस ने ही पैदा किया है। इनमें प्रमुख है इस्लामिक तुष्टिकरण और तदजनित आतंकवाद, कश्मीर समस्या को स्थायी सिरदर्द बनाये रखना, पंजाब में आतंकवाद को पहले कांग्रेस ने प्रोत्साहित किया फिर उस पर देश के खजाने से मोटी रकम खर्च कर उसे रोकने का प्रयास किया। हमें कभी आतंकवाद से लडऩे के लिए प्रेरित किया, कभी अपने ही पैदा किये जातिवाद से (कांग्रेस ने मुस्लिम, एस.सी, ब्राह्मण, अगड़ी जातियों का समीकरण बनाकर शुरू से ही चुनाव लडऩा आरंभ किया) लडऩे को प्रेरित किया। लेकिन कभी भी सच से देश का सामना नही होने दिया। इंदिरा जी चली गयीं तो उनके बेटे राजीव ने देश को बताया कि केन्द्र से गरीबों के लिए चलने वाला एक रूपया गरीब तक जाते जाते मात्र दस पैसे रह जाता है। यानि इंदिरा ने अपने पिता के शासन के विषय में परोक्ष रूप से यह स्वीकार किया था कि गरीबी हटाने की दिशा में सार्थक प्रयास नही हुआ तो बेटे राजीव ने मां के शासन के विषय में परोक्ष रूप से स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार इतना बढ़ चुका है कि गरीब के लिए जाने वाला पैसा गरीब तक जाते जाते सौ में से 10 पैसा ही रह जाता है। एक तरह से उन्होंने स्वीकार किया कि व्यवस्था के साथ साथ खड़ी हो गयी समानांतर व्यवस्था का हमला व्यवस्था पर भारी पड़ रहा है और सरकार भी उस पर कुछ कर पाने की स्थिति में नही है। गरीबी ऐसी परिस्थितियों में कैसे हट सकती थी? अब तो स्थिति ये है कि देश में 83.6 प्रतिशत लोगों की प्रतिदिन की आय 20 रूपये से भी कम है। देश में 8000 लोगों का देश के सत्तर प्रतिशत आर्थिक संसाधनों पर कब्जा है। क्या भारत के लोकतंत्र का यह ‘शोकतंत्र’ वाला स्वरूप नही है? आज कांग्रेस की राजनीति उसी के लिए घातक बन गयी है। कांग्रेस की राजनीति का राज खुल गया और वह जैसे जैसे लोगों की समझ में आता गया वैसे वैसे ही भारत में नये नये राजनीतिक दलों का जन्म होने लगा। कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण आरक्षण, जातिवादी सोच गरीबी हटाओ नही बल्कि बढ़ाओ ताकि गरीब वर्ग आपके साथ वोट बैंक के रूप में लगा रहे, शिक्षा बढ़ाओ नही बल्कि उसे निजी क्षेत्र में देकर महंगी करो ताकि हर आदमी शिक्षित न होने पाए, क्योंकि शिक्षित वर्ग ही तुम्हारे दोषों को प्रकट कर सकता है, इन जैसी बातों को या राजनीति के राज को जैसे जैसे समझा गया वैसे वैसे ही देश में कहीं माया का अवतरण हुआ तो कहीं मुलायम का कहीं लालू का तो कहीं पासवान का। इसी प्रकार हर प्रांत में अवतारों की और मसीहाओं की झड़ी लग गयी। आज कांग्रेस इन नये मसीहाओं की ओर दीनता से देख रही है। कांग्रेस का जादू भंग हो रहा है, पर उसे पता है कि उसके ही पदचिन्हों पर चलकर राजनीति करने वालों के दिन अभी लदे नही हैं। इसलिए वह अपने काले कारनामों से डर तो रही है लेकिन इस सबके बावजूद वह केन्द्र में अपने ही मानस पुत्रों की अगली सरकार बनते देख रही है। आज देश की लोकसभा में 543 सदस्य हैं। इसका अभिप्राय है कि 1952 की पहली लोकसभा के 489 सदस्यों की अपेक्षा 54 सदस्य अधिक हैं। लेकिन दुर्भाग्य देखिए इस देश का कि अधिकतम 54 (कुल का 10 प्रतिशत) सांसद ही मुखर रहते हैं। आधे से अधिक सांसद लोकसभा की कार्यवाही से भाग नही लेते। देश की मंत्रिपरिषद तक में मंझे हुए और तपे हुए अपने अपने विषयों के पारंगत और विशेषज्ञ मंत्री तक नही हैं? शोकतंत्र का यह स्वरूप भी कांग्रेस की देन है क्योंकि इसने योग्यता पर अयोग्यता (नेता के लिए केवल हाथ उठाने वाले सांसदों को चुनाव में टिकट देकर) को वरीयता दी। इसलिए योग्यता को संसद की दहलीज पर पांव भी नही रखने दिया। भीतर उन्हें भेजा गया जो लड़ सकें, माइक तोड सकें, एक दूसरे के गिरेबान पकड़ सकें और लोकतंत्र को शर्मसार कर सकें। बाबा रामदेव और अन्ना की जिम्मेदारी नही है कि वो ही हमारे भाग्यविधाता बनेंगे। अवतारों की प्रतीक्षा करने की अभ्यासी भारतीय जनता को अपने इस परंपरागत अवगुण से परहेज करना चाहिए। हम अपने भाग्यविधाता स्वयं हैं, इसलिए अपने वोट का सही प्रयोग करना सीखें। सारी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों के निराकरण के लिए समय ने अब तक 15 बार आम चुनावों के रूप में, दस्तक दी है, हमने ही समय के साथ समझ का सामंजस्य स्थापित नही किया। चूक हमने की है। अवतारों की प्रतीक्षा में हम भूल गये कि आज हर व्यक्ति अवतार की शक्ति वोट के रूप में अपने पास रखता है। 2014 में फिर समय आ रहा है हमारी समझ की परीक्षा लेने के लिए, देखते हैं कि हम इस चुनाव में बृहन्नलाओं का चयन करते हैं या फिर सचमुच अपने किसी नेता का? 65 साल के बोझ को यदि इस बार उतारकर समुद्र में फेंक दिया तो निश्चित ही देश दूसरी आजादी का जश्न मनाने का हकदार हो जाएगा। देश को मोदी और मनमोहन में से एक को चुनना ही होगा।
मुख्य संपादक, उगता भारत