ओ३म् “वेद एवं सत्यार्थप्रकाश”

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वेद सृष्टि के आद्य अर्थात् सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। शास्त्रीय परम्परा में वेदों को ईश्वर का नित्य ज्ञान कहा गया है जिसमें न कभी, पूरी सृष्टि अवधि में, कमी होती है न वृद्धि होती हैं क्योंकि वह अन्तिम एवं पूर्ण हैं। वेदों का अध्ययन कर जब परीक्षा करते हैं तो वेद वस्तुतः सृष्टिकर्ता ईश्वर का ही ज्ञान सिद्ध होता है जो सृष्टि में घटने वाली घटनाओं के सर्वथा अनुकूल एवं अनुरूप है एवं ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर भी खरा है। वेदों में मनुष्य के जीवन को उच्च से उच्चतम स्थान पर ले जाने अर्थात् उसका सम्पूर्ण विकास करने की क्षमता है। वेदों में सृष्टि की रचना से पूर्व यह सृष्टि किस रूप वा स्वरूप में थी इसका भी ज्ञान होता है। यह सृष्टि कैसे बनी और ईश्वर ने इसे क्यों बनाया, ईश्वर तथा जीव का स्वरूप कैसा है, ईश्वर अनादि व नित्य है अतः वह कभी उत्पन्न व मृत्यु को प्राप्त नहीं होते आदि महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान मिलता है। मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्युपर्यन्त के कर्तव्यों वा कार्यों का भी निर्देश वा प्रेरणा वेदों व इसके ऋषियों द्वारा व्याख्यात ग्रन्थों में मिलती है। वेदों में न केवल सांसारिक वा भौतिक अथवा अपरा अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान भी उपलब्ध होता है। उस आध्यात्मिक ज्ञान को आत्मसात कर किस प्रकार मनुष्य अपनी आत्मिक उन्नति सहित परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता इसके लिए भी, वेदों में निर्देश मिलने के साथ योगदर्शन में, ईश्वर के साक्षात्कार के लिए अष्टांग-योग पर प्रकाश डाला गया है। योगदर्शन साहित सभी दर्शनों एवं उपनिषद ज्ञान का स्रोत भी वेद हैं जिनका ऋषियों द्वारा अध्ययन व मन्त्रों के यथार्थ अर्थों को जानकर ऋषियों ने इन दर्शन एवं उपनिषद ग्रन्थों की रचना की है। वेदों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्धान्त हमें ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने दिया है जिसके अनुसार वेदेतर शास्त्रीय ग्रन्थों का केवल वेदानुकूल भाग ही ग्राह्य व स्वीकार्य होता है और वेदविपरीत भाग त्याज्य होता है। वेदों की सभी मान्यतायें किसी एक मत विशेष के अनुयायियों को दृष्टि में रखकर नहीं रची गई हैं अपितु परमात्मा का ज्ञान होने के कारण यह मनुष्यमात्र सहित प्राणीमात्र के लिए भी हितकारी है। वेदों में सम्पूर्ण विद्या व ज्ञान निहित होने सहित विश्व में सब मनुष्यों के लिए हितकारी होने के कारण वेद ही विश्व धर्म होने के अधिकारी हैं।

वेदों के विषय में उपर्युक्त तथ्य जान लेने के बाद हम सत्यार्थप्रकाश पर विचार करते हैं। सत्यार्थप्रकाश वेदों के विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों का प्रकाश करने वाला सन् 1875 व 1883 में लिखा गया एकमात्र ग्रन्थ है जिसमें मनुष्य जीवन में जानने योग्य एवं व्यवहार वा पालन करने योग्य सभी मान्यताओं, सिद्धान्तों व व्यवहारों पर प्रकाश पड़ता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर वेदों का सत्यस्वरूप पाठक को विदित होता है। वह ईश्वर, जीवात्मा एवं प्रकृति (कारण व कार्यरूप) से परिचित होता है। सृष्टि की रचना के उद्देश्य सहित सृष्टि की रचना ईश्वर ने कब, क्यों व किनके लिए की है, इसका भी सत्य, प्रामाणिक व अकाट्य उत्तर मिलता है। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम दश समुल्लास पढ़कर मनुष्य वेदों की सम्पूर्ण विचारधारा वा मान्यताओं को संक्षेप में जान लेता है। सत्यार्थप्रकाश से दर्शनों, उपनिषदों एवं मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों का महत्व भी पाठक को विदित होता है। सत्यार्थप्रकाश को जो कोई मनुष्य निष्पक्ष होकर पढ़ेगा वह यह पायेगा कि वेद ही संसार में सत्यधर्म एवं सत्यज्ञान के धर्मग्रन्थ हैं। वेद किसी एक जाति/वर्ग व देशसमूह के लोगों के लिए नहीं हैं अपितु यह संसार के प्रत्येक मनुष्य वा स्त्री-पुरुष के लिए समानरूप से उपयोगी हैं। सभी को अपने-अपने पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों का त्याग कर सत्यार्थप्रकाश एवं वेदों का अध्ययन करना चाहिये और वेदानुगामी बनकर संसार की उन्नति में अपना योगदान करना चाहिये।

संसार में प्रचलित मत-मतान्तरों में अपने-अपने मत की प्रशंसा एवं अन्यों की आलोचना व निन्दा आदि विद्यमान है। वेदों में किसी की आलोचना व निन्दा नहीं है इसका एक कारण इसके ईश्वर से सृष्टि की आदि में उत्पन्न होना है जब संसार में कोई भी मत वा धर्म प्रचलित नहीं था। यदि महाभारत युद्ध न हुआ होता और यदि विश्व स्तर पर वेदों के अध्ययन एवं प्रचार में बाधा उत्पन्न न हुई होती, भारत में भी वेदों का सत्यस्वरूप भुलाया न गया होता तो वैदिक धर्म ही सर्वत्र प्रचलित एवं प्रसारित होता। जिस प्रकार प्रकाश के होने पर अन्धकार स्वतः दूर हो जाता है, इसी प्रकार से ज्ञान के उत्पन्न होने पर अन्धकार स्वतः दूर हो जाता है। आज स्थिति यह है कि ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की कृपा से वेदों का सत्य ज्ञान तो उपलब्ध है परन्तु इनके प्रचार प्रसार के न होने व अल्प मात्रा में होने से लोगों को इनका ज्ञान नहीं है। यह भी तथ्य है कि अवैदिक मतों को मानने वाले लोग वेदों में निहित सत्य ज्ञान वा विद्याओं के दर्शन करना ही नहीं चाहते।

हम अपनी बात का विस्तार न कर इतना कहना चाहते हैं कि विश्वधर्म व सत्यधर्म की कसौटी पर यदि कोई मत टिक सकता है, स्थिर हो सकता है व है, तो वह केवल वेद मत हो सकता है। सत्यार्थप्रकाश और इसके प्रथम दश समुल्लास वेदों का सत्यस्वरूप ही लोगों के सामने रखने की दृष्टि से रचे गये हैं। इस ग्रन्थ के उत्तरार्ध के चार समुल्लासों में मत-मतान्तरों में निहित असत्य मान्यताओं वा कथनों से लोगों को परिचित कराया गया है जिससे लोग सत्य और असत्य का स्वयं निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर सकें।

वेद कहते हैं ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” अर्थात् सारे विश्व को ‘‘आर्य” अर्थात् ‘‘श्रेष्ठ आचार व विचारों वाला” बनाओ। यह लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है कि जब सब लोग मत-मतान्तरों की वास्तविक स्थिति को जानकर ईश्वर द्वारा प्रेरित उसके निज ज्ञान वेद को जानें, अपनायें और उसका आचरण करें। ऐसा करके ही हम जन्म व मृत्यु के चक्र से छूट कर मोक्ष के आनन्द को प्राप्त हो सकते हैं। इसके अलावा अर्थात् वेद ज्ञान के अनुसार जीवन व्यतीत करने का अन्य सफल मार्ग संसार में दूसरा कोई नहीं है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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