राकेश कुमार आर्य
मर्यादा पुरूषोत्तम राम भारतीय संस्कृति के आदर्श पुरूष हैं। उन्हें उनके जीवन काल से ही भारतीय संस्कृति ने मर्यादा पुरूषोत्तम कहकर सम्मानित और अभिनंदित किया है। हर वर्ष इसलिए भगवान श्रीराम का पावन स्मरण करते हुए भारतवर्ष में रामलीलाओं का आयोजन किया जाता है। विजयदशमी के पर्व पर इस बार भी हमने भगवान श्रीराम को रामलीलाओं के माध्यम से स्मरण किया है और उनके प्रति अपने सम्मान भाव का प्रदर्शन किया है। यद्यपि विजयदशमी पर्व से रामचंद्रजी की लंका विजय का कोई संबंध नही है। इस बात की साक्षी बाल्मीकि रामायण से ही मिलती है।
श्रीराम चरित को और उनसे जुड़ी कुछ घटनाओं को लोगों ने कुछ अल्पज्ञता के कारण तो कुछ स्वार्थवश दूषित करने का प्रयास किया है। उनके विषय में वाल्मीकि रामायण सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है, क्योंकि वाल्मीकि रामचंद्रजी के समकालीन कवि हैं। यद्यपि कुछ लोगों ने वाल्मीकि रामायण में भी मिलावट की है या करने का प्रयास किया है, लेकिन फिर भी वाल्मीकि रामायण श्रीराम के विषय में कई भ्रांतियों का समाधान करा देती है। जैसे रामायण में उत्तरकांड नही है, सीता जी को किसी धोबी के कहने पर कभी भी बनवास नही दिया गया हनुमानादि बंदर नही थे। राम ने विजयदशमी के दिन लंका विजय नही की थी, और ना ही वह रावण वध के बाद दीपावली के दिन स्वदेश लौटे थे। लवकुश, शम्बूक वध, अहिल्या उद्घार, शबरी आदि के विषय में भी जो भ्रांत धारणाएं समाज में व्याप्त हैं, उनका निराकरण भी रामायण को सूक्ष्मता से पढऩे पर ही संभव है। मनुष्य का स्वभाव है कठिन से सरल की ओर भागने का। जबकि ज्ञान बढ़ता है सरल से कठिन की ओर चलने से। अपने स्वभाव से विवश मनुष्य ने रामायण की कठिन संस्कृति को समझने की आफत मोल न लेकर रामचरित मानस को और ऐसी ही अन्य रामायणों को या रामायण के पाठों को समझ समझ कर उनके अनुसार श्रीराम के विषय में अपनी अपनी धारणाएं सृजित कर लीं।
हिंदी विश्वकोष के अनुसार मराठी में आठ, तेलगू में पांच, तमिल में बारह, हिंदी में ग्यारह, बंगला में पच्चीस और उड़ीसा में 6 रामायण लिखी गयी हैं। इसके अलावा छोटी छोटी रामायण तो बहुत सी हैं। उत्तर भारत में तुलसीकृत रामचरित मानस का विशेष महत्व है। लोगों ने रामचरित मानस को रामायण से अधिक प्रामाणिक मान लिया है। जबकि रामचरित मानस मूल वाल्मीकि रामायण से लाखों वर्ष पश्चात लिखी गयी है। तुलसी दास श्रीराम के समकालीन नही हैं, वह तो साड़े चार पांच सौ वर्ष पूर्व पैदा हुए जबकि श्रीराम लाखों वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। इतना जानते और समझते हुए भी लोग रामचंद्रजी के विषय में तुलसी की चौपाईयों को अपने लेखों और उपदेशों में स्थान देते हैं। इससे भ्रांतियों को फेेलाने में विद्वान भी सम्मिलित हो जाते हैं।
रामायण में व्याप्त भ्रांतियों का समाधान वाल्मीकि रामायण को आधार बनाकर स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी महाराज ने ‘अपनी पुस्तक रामायण भ्रांतियां और समाधान’ में प्रस्तुत करते हुए लिखा है-‘कुछ भ्रांतियां ऐसी हैं जो अन्यथा निर्दोष प्रतीत होने पर भी तथ्य के विपरीत होने से इति-ह-आस की कोटि में न आने से उपेक्षणीय नही हैं। परंतु कुछ ऐसी निराधार बातें भी हैं जो रामायण के पात्रों विशेषत: श्रीराम को कलंकित करने के अतिरिक्त सारे समाज और देश के लिए भी अभिशाप बन गयी हैं। जैसे न राम ने कभी सीता का परित्याग किया और न वाल्मीकि ने ऐसा लिखा। इसी प्रकार न राम ने तपस्या करते शम्बूक का वध किया और न वाल्मीकि ने ऐसा लिखा। किंतु वर्तमान में उपलब्ध रामायण में ऐसा लिखा होने से श्रीराम को स्त्रियों तथा शूद्रों पर अत्याचार करने के लिए दोषी ठहरा दिया गया।’ सीता जी को धोबी के कहने पर वनवास देने की श्रीराम की आज्ञा पर विद्वान लेखक का कहना है-‘राम जैसे सकल शास्त्र निष्णात नीतिनिपुण तथा व्यवहार कुशल राजा से सोचे समझे बिना ऐसे अन्यायपूर्ण निर्णय की आशा नही की जा सकती थी, मर्यादा पुरूषोत्तम राम से तो कदापि नही। भर्तृहरि ने लिखा है—-
नीतिकुशल लोग निंदा करें या स्तुति, धनैश्वर्य आये या जाए, आज ही मृत्यु सामने खड़ी हो या युग युगांतर तक जीते रहने का विश्वास हो, पर धीर पुरूष कभी न्याय मार्ग से विचलित नही होते। वह कैसा राजा जो सुनी सुनाई बातों पर या अनुमान लगाकर तदानुसार दण्ड व्यवस्था करता हो। दण्ड व्यवस्था की सामान्य प्रक्रिया है कि अभियुक्त को उसका अपराध बताया जाए और अपना पक्ष प्रस्तुत करने का उसे पूरा अवसर दिया जाए। पूरी जांच पड़ताल और ऊहापोह के बाद अपराध सिद्घ होने पर अपराध की गंभीरता के अनुसार दण्ड दिया जाता है। सीता के साथ ऐसा कुछ नही किया गया। लक्ष्मण उसे ऋषि मुनियों के गंगातट पर स्थित आश्रमों की सैर कराने के बहाने ले जाकर (जैसे दुष्ट लोग छोटे बच्चों को टॉफी का लालच देकर बहका ले जाते हैं) जंगल में ले गया और छोड़कर चलते समय बता दिया कि तुम्हारे चरित्र पर संदेह के कारण भैया ने तुम्हें त्याग दिया है।
यहां श्रीराम की न्याय व्यवस्था पर भी संदेह होता है। मर्यादा पुरूषोत्तम क्या ऐसा कार्य कर सकते थे जो सर्वथा अन्यायपरक और प्राकृतिक न्याय के सिद्घांतों के विपरीत हो? राम से ऐसे न्याय की अपेक्षा कतई भी नही की जा सकती। किसी व्यक्ति को न वकील, न दलील और न अपील की व्यवस्था के तहत सूली पर चढ़ा देना तानाशाहों का काम होता है। भगवान राम ताना शाह नही थे। वह पूर्णत: लोकसंगत और न्याय संगत व्यवहार और नीति व्यवस्था के सृजक और नियामक थे। इसलिए राम पर ऐसी न्याय व्यवस्था का आरोप स्त्री के प्रति शंका और अपमान के भाव रखने वाले लोगों ने बाद में लगाये हैं। मूल रामायण 6 कांडों में संपन्न हो जाती है। सातवां काण्ड बाद में जोड़ा गया है। इसके लिए हमें सर्वप्रथम यह समझना चाहिए कि रामायण रामचंद्र जी के वन गमन से लेकर वन से लौटने तक का ही वृतांत है। इससे अलग और कुछ उसमें नही है। अयण का अर्थ भी चक्र है। राम का वनगमन और वहां से लौटना ये एक चक्र पूरा होना है, जैसे सूर्य की दो गतियां हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन उसमें एक वर्ष (चक्र) पूर्ण होता है, उसी प्रकार राम और अयण से एक चक्र पूर्ण होता है। उसे पूर्ण होते ही आगे का वृतांत उसमें नही लिया जाता।
संस्कृति रक्षक विद्वानों को तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए भी मर्यादा पुरूषोत्तम राम के मर्यादित जीवन का ध्यान रखना चाहिए। उन पर उंगली उठाने से भारतीय संस्कृति अपमानित होती है। इसके लिए आवश्यक है कि विद्वान लोग समीक्षक की सी भूमिका का निर्वाह करें और विवेकी पुरूष की भांति दूध का दूध और पानी का पानी करने हेतु शंकाओं और भ्रांतियों का निवारण करें। अवैदिक, अवैज्ञानिक और अतार्किक मिथ्या धारणाओं को धर्म के नाम पर पालना अधर्म करना होता है। हमारा धर्म विज्ञान और कर्म के समुच्चय को स्थापित करता है। हमें भी इसी दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए। रामायण के रचयिता वाल्मीकि की भावना और लेखनी के अनुरूप रामलीलाओं का मंचन कराये जाने की आवश्यकता है। उसके लिए इस ग्रंथ के प्रक्षिप्त अंशों का भी त्वरित वेग से निष्कासन किया जाए। अब हमें राम के नाम पर ठोंग और पाखण्ड का निराकरण करने की आवश्यकता है। रामायण से रामलीलाओं तक के यात्रापथ में मैली हुई गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए भागीरथ प्रयास करने हेतु क्रियाशील होना ही होगा।