डीके गर्ग
जब कभी अवधूत रूपी शरीरधारी शिव के काल्पनिक चित्र की चर्चा करते है या अवलोकन करते है तो एक पौराणिक मान्यता है कि शरीरधारी शिव ने भभूत शरीर पर लपेट रखी है।
विष्लेषण:
भस्म तो मृत्यु व्यक्ति की दाह संस्कार के पश्चात हुयी राख को कहते हैं तथा भभूति पवित्र हवन आदि की पवित्र राख को भभूति कहते है ।
निराकर ईश्वर शिव ने शरीर पर भभूत लपेट रखी हो ये तो समझ से परे है , असंभव है।
लेकिन अलंकार की भाषा और चित्रकार की आध्यात्मिक कल्पना हो सकती है।इसका तात्पर्य क्या है ,ये समझते है कि इसका क्या संदेश है?
संदेश 1- संसार में सब कुछ नश्वर है ,आपका शरीर भी और यह शरीर भस्म होने वाला है। (भस्मान्तं शरीरम्। यजु. 40/15)
2.अग्नि का एक स्वभाव है की सब कुछ अपने अंदर समाहित कर लेना,ऐसा ही मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।
3 अग्नि का स्वभाव उष्णता है। हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए। आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध तामसिकता के गुण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं। जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएं काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे।
4.अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती हैं उसे वह अपने समान बना लेती है। निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें। अग्नि के निकट पहुंचकर लड़की कोयला आदि साधारण वस्तुएं भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओं से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गु णी बनाने का प्रयत्न करें।
5. अग्नि जब तक जलती है तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती। हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें।
6 हमारी देह ‘‘मस्मान्तं शरीरम्’’ है। यह अग्नि का भोजन है। न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेंट हो जाय इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म के लिये शीघ्रता करें और क्षणिक जीवन के क्षणिक सुखों के निमित्त दुष्कर्म की मूर्खता से बचें। जीवन की गति-विधि ऐसी रहे कि किसी समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो, देह अग्नि को भेंट करनी पड़े तो किसी प्रकार का पछतावा न हो।
7.अग्नि पहले अपने ज्वलन शक्ति धारण करती है तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है। हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं। उपदेश देकर नहीं वरन् अपना उदाहरण उपस्थित करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं। जो गुण हममें होंगे, वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आवेंगे और वैसा ही हमारा परिवार बढ़ेगा। इसलिए जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों पहले स्वयं वैसे बनने का प्रयत्न करें।
8.अग्नि जैसे मलीन वस्तुओं का स्पर्श करके स्वयं मली न नहीं बनती वरन् दूषित वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों।हों स्वयं बुरे न बनने लगें वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बनावें।
9. अग्नि जहां रहती है वहीं प्रकाश फैलता है। हम भी ब्रह्म अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें। अज्ञान के अन्धकार को दूर करो। ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ हमारा प्रत्येक कदम अन्धकार से निकलकर प्रकार की ओर चलने के लिए पड़े।
10.अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है। मोमबत्ती की लौ को नी चे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर से उलटेगी। उसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर ही रहे, अधोगामी न बने।
11.अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है उसे वह अपने पास नहीं रखती वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को,देवताओं को बांट देती है। हमें जो वस्तुएं ईश्वर की ओर से संसार की ओर से मिलती उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे। शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें। अग्नि में चाहे करोड़ों रुपयों की सामग्री होमी जा य वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ नहीं चुराती और न पीछे के लिए संग्रह करती है वरन् तत्क्षण उस सामग्री को सूक्ष्म बनाकर वायु को लोक-हित के लिये बांट देती है। वैसे ही हमें जो ज्ञान, बल, बुद्धि, विद्या आदि उपलब्ध हैं उनका उपयोग स्वार्थ के लिए नहीं, हीं परमार्थ के लिए ही करें।
12. जैसी अग्नि हवन कुण्ड में जलती है वैसी ही ज्ञानाग्नि अन्तःकरण में, तप अग्नि इंद्रियों में, कर्म अग्नि देह में प्रज्वलित रहनी चाहिए।
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