भाजपा की वर्तमान दशा को देखते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर का एक गीत याद आ गया ‘जोद़ी तोर डाक शुने कोई ना अशे तोबे एकला चलो रे’ अर्थात जब लोग तुम्हारी आवाज को अनसुना कर दे तो तुम अकेले चलो। राजनीति के ताजा घटनाक्रम को अगर ध्यान से देखा जाये तो ये पंक्तियां वास्तव में भाजपा के लिये और भी प्रासंगिक हो उठती हैं । आज के हालात वस्तुत: भाजपा के लिये अकेला चलने का संदेश दे रहे हैं । इस पार्टी के पुराने इतिहास को देखते हुये ये सही भी है । भाजपा के दिग्गज नेता स्व. दीन दयाल उपाध्याय की एक पुस्तक ‘पालीटिकल डायरी’ पढ़ रहा था । इस पुस्तक में उन्होने साफ तौर पर कहा कि जन सरोकारों और देश के मुद्दों से अनभिज्ञ होकर सरकार चलाने के बजाय हम ताउम्र विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे । वस्तुत: इन्ही वाक्यों से पार्टी की वैचारिक उर्वरता को परखा भी जा सकता है। इस मुद्दे की उपेक्षा कर वाजपेयी सरकार का हश्र आज किसी से भी छुपा नहीं है । राम मंदिर के नाम पर सत्ता में आने के बाद पार्टी का राम के प्रति किया गया विश्वासघात भी आम जन से छुपा नहीं है । ऐसी रीढ़विहीन और मौकापरस्त राजनीति की बजाय अगर वाजपेयी जी ने पूर्ण बहुमत ना होने की बात कहकर त्याग पत्र दे दिया होता तो शायद आज पार्टी के हालात कुछ और होते । ध्यान दीजियेगा अपने शासनकाल के पूरे पांच वर्षों में अटल जी ममता,जयललिता और रामविलास पासवान जैसे सतही लोगों के रहमोकरम के मोहताज बने रहे । इसके परिणामस्वरूप भाजपा के हिंदू मतदाता ने भाजपा के प्रति अपना विश्वास खो दिया । इस प्रसंग को पार्टी के राजनीतिक वनवास की मुख्य वजह भी कहा जा सकता है । आज जब मैं ये बातें लिख रहा हूं तो मेरे मन में कहीं भी भाजपा या अटलजी के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है । वस्तुत: मैं अटल जी का औसत भाजपाइयों से बड़ा प्रशंसक हूं । अपने आप को उनका प्रशंसक कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है,ज्यादा से ज्यादा क्या हो सकता है मुझे इस देश के सेक्यूलर लोगों की जमात से बाहर कर दिया जायेगा । कर दिया जाये लेकिन अगर लोग राहुल,मनमोहन या सोनिया जी के प्रशंसक हो सकते है तो अटल जी तो वास्तव में ऐसे कई सतही लोगों से काफी बड़ी शख्सियत हैं । फिर भी मुझे अफसोस है अटल जी के पांच वर्षों के कार्यकाल से और यही अफसोस भाजपा के पतन की मुख्य वजह बना । ध्यान दीजियेगा हिंदू मैरीज एक्ट की बात आई तो सभी ने एकमत से उसमें परिवर्तन कर डाले, लेकिन जहां इस तरह की बात मुस्लिमों के संदर्भ मे आई तो देश की प्राय: प्रत्येक पार्टी ने उनकी शरियत के सम्मान में देशद्रोही फैसले लेने में भी गुरेज नहीं दिखाया । इन्हीं सारे दोतरफा फैसलों से आजिज आकर लोगों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया मगर अफसोस इस सरकार से भी उन्हें कोई लाभ नहीं मिला । ऐसे में भाजपा के मतों का बिखरना लाजिमी था । ऐसा हुआ भी बीते दो दशकों में भाजपा का केंद्र समेत उत्तर प्रदेश से सूपड़ा साफ हो गया । इन दुर्दिनों का अंत अगर यहीं हो गया होता तो फिर भी ठीक था लेकिन अब तो हालात ऐसे हैं कि छुटभैये भी भाजपा को आंखे दिखाने से गुरेज नहीं करते । लोगों का ये गुस्सा जायज भी है । आखिर नैतिकता की उम्मीद किससे की जाये? लोकतंत्र की नाजायज औलादों से नैतिकता की उम्मीद तो बेमानी होगी, इन हालातों में लोगों ने भाजपा को देश हित के संरक्षक के तौर सत्ता सौंपी तो मामला उल्टा पड़ गया । अब सोचता हूं कि अटल जी ने किस मजबूरी में पांच वर्षों तक ओजहीन संरक्षक के तौर पर सत्ता का संचालन किया? ऐसे में एक शेर याद आ गया पेशे खिदमत है। कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी,कोई यूं ही बेवफा नहीं होता जी हां ऐसी ही कुछ मजबूरियां अटल जी ने भी पाली थी । पहली कुर्सी का नशा,वास्तव में ये धरती का सबसे बड़ा नशा होता है जो आप की नैतिकता और संघर्ष करने की क्षमता को कुंद कर देता है । इस बात को आप मनमोहन जी के हालिया बयान से भी समझ सकते हैं’मेरे नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देने से इस पद का अपमान होता है। शायद ऐसी कोई वजह उन्होने भी ढूंढ़ी हो । दूसरी वजह सेक्यूलर जमात में शामिल होना ।शायद आपके स्मृति पटल में वाजपेयी की जालीदार टोपी वाली कोई तस्वीर संचित हो । ऐसा करने की प्रमुख वजह थी खुद को सेक्यूलरों की जमात में स्वीकार्यता दिलाना । तीसरी सबसे बड़ी वजह रही कार्यकर्ताओं की उपेक्षा । ध्यान दीजीयेगा कार्यकर्ताओं का जितना अपमान इस दल में होता है उतना किसी भी दल में देखने को नहीं मिलेगा । चैथी वजह अच्छे नेताओं का तिरस्कार, ये प्रथा आज भी बदस्तूर कायम है । इस बात को समझने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है विगत उप्र के चुनावों को देख लीजिये मतदान के बाद तक पार्टी अपने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम तक घोषित नहीं कर सकी थी । नतीजा साफ है सूबे में सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार । मतदाता संशयग्रस्त दल का चुनाव क्यों करेगा ? यही हालात आने वाले लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में भी हैं । पार्टी अपने प्रत्याशी के चयन को लेकर भ्रमित बनी हुई है ।उपरोक्त सारे मुद्दों को ध्यान में रखते हुये एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इस भ्रमित नीति के सहारे भाजपा का केंद्र की सत्ता में काबीज होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है । ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के पास विकल्पों की कमी है । आज पूरे देश के फलक पर नरेंद्र मोदी का नाम धु्रव तारे की तरह चमक रहा है । हां ये अलग बात है कि सेक्यूलर उससे एकमत नहीं हैं,और अगर भाजपा के इतिहास को देखें तो सेक्यूलर कब उसके हिमायती रहे हैं ? इन परिस्थितियों तथाकथित सेक्यूलरों की नाराजगी या खुशी से पार्टी की सेहत पर कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा ।रही बात मुस्लिम मतदाताओं की तो वो वाजपेयी जी के तमाम रोजे इफ्तार की पार्टियों के बावजूद भी नहीं रीझे और आज भी नहीं रीझेंगे । ऐसे में इनकी परवाह कैसी । जहां तक एनडीए कुनबे का प्रश्न नितिश कुमार जैसे क्षेत्रिय नेता जब आप पर प्रहार कर कुनबे का अपमान करने की हिमाकत कर सकते हैं तो फिर इस कुनबे की रक्षा का क्या औचित्य? अंतत: अगर भाजपा को सत्ता में वापसी करनी है तो उसे हवाओं का रुख भांपते हुए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना ही होगा । यदि ये दांव चल गया तो सत्ता आपकी अगर नहीं चला तो ज्यादा से ज्यादा आप विपक्ष में होगे । ये कोई बुरी बात नहीं है,और वास्तव में आपके पूर्वजों के इन्हीं सिद्धांतों ने आपको देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बनने का गौरव दिया है ।इस मामले में पार्टी के पुरनियों को भी अपने क्षुद्र स्वार्थों से पार पाना होगा । जहां तक भारतीय व्यवस्था का प्रश्न है तो वास्तव में युवाओं के सिर पर ही सेहरा बंधता रहा है । बुढ़ापे में सेहरा बांधने का उदाहरण मनमोहन जी की सरकार से लिया जा सकता है । फैसला तो भाजपा को करना है सिद्धांतों के साथ राजनीति या सिद्धांत विहीन छद्म सेक्यूलरिज्म ।
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