76
आंधी चढ़ी आकाश में, बोले ऊंचे बोल।
पंख मेरे मजबूत हैं, कौन सकेगा तोल ?
कौन सकेगा तोल ? करूं मैं मटियामेट।
मेरे सामने जो भी आता ,चढ़ता मेरी भेंट।।
न जाने कितने नष्ट किए, मैंने गढ़ और गढ़ी।
हो गए सारे खाक , जब मेरी आंधी चढ़ी ।।
77
दो दिन की आंधी चढ़े, ढलता है तूफान।
यौवन जावै एक दिन, फेर अंधेरी जान।।
फेर अंधेरी जान, पड़ेगा तुझको रोना।
बुढापा आना तय, समय व्यर्थ ना खोना।।
क्यों रहा बौराय ? आंधी में तू यौवन की।
याद यह रखना, ढले जवानी दो दिन की।।
78
विध्वंस और विकास का, नहीं है कोई मेल।
विकास की सुगन्ध में, विध्वंस रचाता खेल।।
विध्वंस रचाता खेल, जगत का पहिया ऐसा।
धरती पर आती धूप-छांव का खेल हो जैसा।।
यौवन का जाना निश्चय, बुढ़ापा मारेगा दंश।
चलाचली के खेल में, हो सृजन और विध्वंस।।
दिनांक : 8 जुलाई 2023
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत