धर्म, साम्प्रदायिकता और राजनीति

मस्तराम कपूर
मानव जाति के इतिहास पर नजर डालने से दिखाई देगा कि धर्म के नाम पर दुनिया में जितने अच्छे काम हुए हैं, उसे कई गुना बुरे काम हुए हैं। आदिम समाजों से लेकर आधुनिकतम समाजों तक आदमी किसी न किसी धर्म को मानता रहा है- इसकी कल्याणकारी शक्ति से प्रभावित होकर इतना नही जितना उसकी अनिष्टकारी शक्ति से भयभीत होकर। यह कहना गलत नही होगा कि धर्म की मुख्य शक्तियां हैं-भय और लोभ। या तो व्यक्ति दुखों तकलीफों से डरकर धर्म की ओर आकृष्ट होता है या किसी सुख के लोभ में। इसलिए प्रत्येक धर्म पुस्तक नरक का भय और स्वर्ग का प्रलोभन देती है। धर्म के नाम पर राक्षसी कर्म करने वालों के आचरण से जब धर्म घृणा की वस्तु बनने लगता है तो धर्माचार्य धर्म का असली अर्थ लोगों को समझाने लगते हें। कहा जाता है कि धर्म वह है जो धारण करता है। जैसे आग का धर्म जलाना, पानी का धर्म गीला करना, वैसे ही आदमी का धर्म उसका सहज स्वभाव है जिसे उससे अलग नही किया जा सकता। जब उनसे कहा जाता है कि आदमी स्वभाव से तो पशु होता है और वह शिक्षा से आदमी बनता है, तो वे धर्म की और व्याखाएं ढूंढऩे लगते हैं। फिर कहा जाता है धर्म तो नैतिक मूल्य है और किसी धर्म ग्रंथ से कोई श्लोक उदृत कर दिया जाता है। जैसे, धृति क्षमा दमोअस्तयं या अहिंसा परमो धर्म: आदि। यदि पूछा जाता है कि इस धर्म में तो ईश्वर खुदा पूजा प्रार्थना, मंदिर मस्जिद, गिरजा गुरूद्वारा नही आता, तो वे उग्र रूख अपना लेते हैं।
सच बात यह है कि धर्म एक संस्था है, परिवार, जात बिरादरी, पंचायत राज्य, क्लब बाजार जैसी ही एक संस्था है। सभी संस्थाओं की तरह यह संस्था भी अपने सदस्यों को कुछ सुरझाएं और सुविधाएं देती हैं और बदले में सदस्य उसे अपनी निष्ठा देते हैं और चंदे चढ़ावे के रूप में आर्थिक योगदान भी। अन्य संस्थाओं की तरह धर्म की संस्था भी सदस्यों पर अपना अनुशासन लादती है और कुछ सीमा तक मनुष्य की स्वतंत्रता एवं समता की सहज आकांक्षाओं का हरण करती है। इस संस्था की पहली शर्त होती है ईश्वर, भगवान, अल्लाह, खुदा, पीर पैगंबर, गुरू मसीहा आदि के रूप में किसी सर्वशक्तिमान की खोज एवं प्रतिष्ठा। ऐसी शक्ति, जिसके आगे सब नतमस्तक हों, धर्म की स्थापना के लिए आवश्यक होती है। ऐसी शक्ति का वस्तुत: अस्तित्व जरूरी नही होता, उसके होने का विश्वास ही काफी होता है। ईश्वर या खुदा को किसी ने देखा नही, पर विश्वास है इसलिए वह है। किसी भी चामत्कारिक घटना को दैवी शक्ति मान कर उसके आसपास वह सारा तामझाम जुट जाता है जो धर्म के लिए आवश्यक होता है। कुछ चतुर लोग चमत्कारिक घटनाओं की झूठमूठ की कहानियां गढ़ कर भी नये नये धर्म चलाते हैं।
प्रश्न है कि क्या धर्म मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक है? अनुभव बताता है कि वह आवश्यक है। जब तक मनुष्य कमजोर, बेबस, भयभीत है और दुखों तकलीफों का सताया हुआ है तब तक उसे धर्म की आवश्यकता रहेगी। ईश्वर मात्र एक ख्याल ही सही, वह मनुष्य को सांत्वना देता है। बेबस से बेबस आदमी भी उस ख्याल से कुछ संतोष कुछ हिम्मत दुखों तकलीफों को सहने की कुछ शक्ति प्राप्त कर सकता है। माक्र्स ने धर्म को जनता की अफीम इसी अर्थ में कहा था कि वह आदमी को अपनी तकलीफें भूलने या उन्हें सहन करने की क्षमता देता है। योगदर्शन में ईश्वर के संबंध में कहा गया है कि जहां ज्ञान चूक जाता है वहां ईश्वर की सीमा शुरू होती है-तत्र निरतिशयं सर्वज्ञ बीजम अर्थात जब तक अज्ञात रहेगा, तब तक ईश्वर भी रहेगा।
हर धर्म का साम्प्रदायिक होना अनिवार्य है, क्योंकि वह एक संप्रदाय विशेष के लोगों को आकृष्टï करता है। चूंकि सब मनुष्यों के विश्वास का आधार एक ही नही होता, सारी दुनिया में एक ही धर्म नही हो सकता। उसकी अपील सार्वजनिक न होकर समुदाय परक होती है। साम्प्रदायिक शब्द के साथ इस समय जो अप्रिय अर्थ जुड़ा हुआ है, उस अर्थ में धर्म सांप्रदायिक तब बनता है जब धर्म सत्ता के रूप में काम करने लगता है और इस प्रक्रिया में दूसरे धर्मों के साथ उसकी होड़ चलती है। एक ओर वह अपने को मजबूत बनाने के लिए कठोर कायदे कानून बनाता है, दूसरी ओर अन्य धर्मों के मुकाबले अपनी श्रेष्ठता सिद्घ करने के लिए वह आक्रामक रूख अपनाता है। दूसरे शब्दों में जब उसमें कट्टरता और आक्रामकता की प्रवृत्तियां पैदा होती हैं तो धर्म अपना सौम्य रूप खो देता है और सामाजिक विकास में बाधक बनने लगता है।
सृष्टि के सारे कार्यकलाप, जिसमें सामाजिक विकास भी शामिल है, दो विरोधी शक्तियों के टकराव से चलते हैं। इनमें एक गतिशीलता लाने वाली और दूसरी स्थिरता लाने वाली होती है। इसे ऋतु और सत्य भी कहा जाता है। स्थिरता और गतिशीलता के द्वंद्व को किसी भी समाज में कट्टरता और उदारता के द्वंद्व के रूप में पहचाना जा सकता है। हर विचारा धारा में कुछ समय बाद कट्टरता के तत्व उभरने लगते हैं, जब वह विचाराधारा एक वर्ग के निहित स्वार्थ का साधन बन जाती है। कट्टरता के खिलाफ विद्रोह से उदारता की धारा जन्म लेती है। कालांतर में यह उदार धारा भी कट्टरता की धारा बन सकती और एक नयी धारा उसके विद्रोह से पैदा हो सकती है। लेकिन यह जरूरी नही है कि हर नयी विचारधारा पुरानी की तुलना में उदार ही हो। इतिहास सीधी रेखा में नही बढ़ता, जैसा माक्र्स आदि सभी पश्चिमी दार्शनिक मानते हैं।
भारत के विद्वानों ने काल की गति चक्रीय या सर्पिल मानी है। अर्थात समाज कभी आगे बढ़ता है, कभी पीछे हटता है। समाजों का उत्थान पतन, जो एक ठोस वास्तविकता है, इतिहास की रेखीय कल्पना को गलत सिद्घ करता है। समाज का उत्थान और पतन उदारता और कट्टरता के दौर में समाज और पतन उदारता के दौर में समाज की अंतर्निहीत शक्तियां प्रस्फुटित होती हैं तथा वह उन्नति करता है। कट्टïरता का उभरना किसी समाज के जड़ता की ओर बढऩे का लक्षण है। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि सभी धर्मों के समाज कट्टरता और उदारता के दौर से गुजरे हैं और इन सभी समाजों का स्वर्णकाल उदारता का काल ही रहा है। कट्टरता असुरक्षा की भावना से पैदा होती है। यह भव जन्य प्रवृत्ति है। असुरक्षा की भावना न होने पर समाज में उदारता की प्रवृत्ति आती है। ईसाई धर्म को शुरू में भयानक असुरक्षा का वातावरण् मिला। रोम साम्राज्य के अंतर्गत ईसाईयों को बहुत कष्ट झेलने पड़े। उनके धर्म संस्थापक ईसा मसीह को रोम के एक सामंत ने सलीब पर चढ़ाया था। बाद में ज बरोम के एक बादशाह ने ईसाई धर्म अपनाया तो ईसाई धर्म की असुरक्षा की भावना दूर हुई और वह बड़ी तेजी से फैलने लगा। फिर रोमन कैथलिक धारा को प्रोटेस्टेंट आंदोलन से असुरक्षा का बोध हुआ तो वह कट्टरता की ओर बढ़ा लंबे संघर्ष के बाद जब ईसाई कॉमनवेल्थ के ये दोनों संप्रदाय थक गये तो वेस्ट फालिया की संधि से यूरोप में उदारता का दौर शुरू हुआ तथा लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्ष राज्य के विचार सुदृढ़ हुए। उधर ग्रीक आर्थोडक्स चर्च को तुर्की साम्राज्य के आतंक में रहना पड़ा, इसलिए उसमें कट्टरता की प्रवृत्ति इतनी प्रबल हुई कि उसके प्रभाव वाले देश (जैसे भूतपूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के कुछ देश) लोकतंत्र जैसी उदार व्यवस्था को नही अपना सके।
(क्रमश:)

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