प्रकाश का पर्व-दीपावली
प्रकाश पर्व दीपावली की अपने सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाएं। इस पर्व पर हम अपने अंतर्मन की गहराईयों में उतरकर अंतरावलोकन करें, अपने गणतंत्र का। गणतंत्र का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास और समृद्घि के समान अवसर उपलब्ध कराना है। लेकिन यदि हम भारत के गणतंत्र के बारे में चिंतन करें तो ज्ञात होता है कि हमारी उपलब्धियां सराहनीय रहीं हैं। परंतु उपलब्धियां प्रत्येक व्यक्ति का और देश के प्रत्येक आंचल का समग्र विकास और समग्र उन्नति कराने में सहायक नही रहीं। देश में आजादी के समय जितनी कुल आबादी थी उसकी दो गुनी आबादी आज गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन यापन कर रही है। गरीबी का अंधकार इतना गहरा गया है कि लोग प्रकाश क्या होता है ये भी जान पा रहे हैं, ऐसी स्थिति में देश में दीपों का ये पर्व कितने परिवारों का और कितने आंचलों का अंधकार दूर कर पाएगा, कुछ कहा नही जा सकता। हर वर्ष दीपावली आती है और चली जाती है, चंद घरों में रोशनी जगमगाहट देखते ही बनती है तो अधिकांश लोग दूसरों के घर की रोशनी को देखकर अपने भीतर के दीये को बुझाकर खुश हो लेते हैं कि यह दीपों का पर्व है और बड़े लोग इस पर इसी प्रकार से अपने घरों की जगमगाहट करते हैं। पहले बड़े शहरों में झुग्गी झोंपड़ी होती थी, अब भी हैं, लेकिन आधुनिक शहरों में बड़े लोगों ने अपने सेक्टर या सोसाइटी अलग बनाकर या बसाकर यह बता दिया कि हम अब अपनी जगमगाहट को किसी को देखने भी नही देंगे। जब ऐसी चीजें देखी जाती हैं तो विचार आता है कि यह दीपावली भी कैसी दीपावली है जो सबके भीतर का अंधकार मिटाने में असफल सिद्घ होती जा रही है। मिठाईयां बांटी जा रही हैं, लेकिन जुबान में मिठास नही है। प्रकाश फैलाया जा रहा है लेकिन प्रकाश फैलाने वालों के जेहन में घुप अंधेरा है। महंगे गिफ्ट खरीदे जा रहे हैं, एक दूसरे को ये गिफ्ट दिये जा रहे हैं लेकिन देने और लेने में एक स्वार्थ है, काम निकालने की तरकीब है, पर वास्तविक प्रेम भाव नहीं है। त्यौहार की असल भावना कहीं लुप्त होकर रह गयी है। झुग्गी झोंपडिय़ों का प्रकाश ही नही बल्कि मध्यम वर्गीय लोगों के चेहरे की मुस्कान तक को ऊंची अटटालिकाएं लील गयीं हैं।
गणतंत्र राजपथ पर पड़ा सिसकियां ले रहा है, देश को अपनी किस्मत पर रोना आ रहा है, क्योंकि गणतंत्र की लगाम भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों के हाथों में चली गयी। चिंतनशील लोग, विचारशील व्यक्तित्व और कर्मशील और धर्मशील मानस के धनी राजनीतिज्ञों को सत्ताशीर्ष से दूर कर दिया गया है। मठाधीश, धराधीश, धनाधीश, और सत्ताधीश मिलकर देश को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। देश के जनगण की चिंता कहीं शासन की नीतियों में दिखाई नही देती।
ऐसे में दीपावली का पर्व फीका-फीका सा नजर आता है। दीपावली की भावना सबको साथ लेकर चलने की है, इसके मिट्टी के दिये में जो आनंद है और जो प्रकाश है वह बिजली की सजावट में नही है, क्या यही अच्छा हो कि हम सब मिलकर प्रेम का एक दीया जलायें, और दीये से दीया जलाते चलें। सचमुच आनंद आ जाएगा, एक बार इस दीवाली को हम ऐसे मनाने की पहल तो करें।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।