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आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
मानसून की पहली बर्षा में ही त्राहिमाम मच गया। लाखों नहीं, करोड़ों नहीं, अरबो नहीं बल्कि खरबों रूपयों का नुकसान हो गया। इतना ही नहीं बल्कि इस बाढ में हमारी अर्थव्यवस्था भी डूब गयी है। भविष्य में हमारी अर्थव्यवस्था के लिए बाढ विनाश का कारण भी बनेगी। पर समस्या तो यह भी है कि सरकार बाढ को आमंत्रण भी देती है। क्या सरकार की योजनाएं ग्लेशियरों से छेड़छाड़ नहीं करती हैं, क्या सरकार की योजनाएं नदियों के प्रवाह से छेड़छाड़ नहीं करती हैं, क्या सरकार अपनी रिश्वतखोरी के प्रतीक पुल और सड़कों आदि का भौतिक अस्तित्व मिटाने और अपनी रिश्वतखोरी की सबूत मिटाने के लिए बाढ का इंतजार नहीं करती हैं? सरकारी अधिकारियों के समर्थन के बिना क्या नदियों के प्रवाह क्षेत्र और नालों पर अतिक्रमण संभव है? बाढ़ पीड़ितों के लिए आयी धन राशि सरकार के बच्चे-बच्चियों यानी अधिकारियों व कर्मचारियों की जेबे गर्म नहीं करती हैे क्या?
कई प्रदेशों में स्थिति कितनी खतरनाक और जानलेवा हो गयी, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। पंजाब, हिमाचल प्रदेश,उत्तराखंड, मध्य प्रदेश में बाढ ने विकराल रूप धारण कर लिया है। देश की राजधानी दिल्ली में ही बर्षा से जनता त्राहिमाम कर रही है, घंटो जाम की स्थिति बनी हुई है। यमुना नदी खतरे के निशान को चुनौती दे रही है। दिल्ली में बाढ से हजारों लोग सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए विवश हैं। उत्तराखंड में तो कई सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सड़के और पुल बह गये हैं, जिसके कारण सामरिक रूप से जरूरी संपर्क टूट गये हैं। हिमाचल प्रदेश की स्थिति तो बहुत ही खतरनाक है जहां पर पन्द्रह सौ से अधिक सड़कें छतिग्रस्त हो गयी हैं और चौदह सौ बस रूटें पूरी तरह से बंद कर दी गयी हैं, भूस्खलन से कई गांवों का अस्तित्व ही मिट गया है।
देश में बहुत सारी ऐसी जगहें भी हैं जहां पर मोबाइल के कैमरे की पहुंच नहीं है जो बाढ की भयानक तस्वीर से परिचित करा सके। भारी वर्षा और बाढ की स्थिति से बिजली भी प्रभावित होती है, बिजली के खंभे भी धाराशायी हो जाते हैं, बिजली लाइनें भी तहस-नहस हो जाती है, इस कारण जीवन रक्षक और जीवन उपयोगी उपकरणों की निरर्थकता सामने आती है। सिर्फ जंगलों और पहाड़ों के बीच ही नहीं बल्कि शहरों और कस्बों की गलियों के बीच भी बाढ का पानी तहलका मचा रहा है। बाढ के पानी में सरकारों की बचाव प्रक्रिया भी डूब गयी और बाढ़ के खिलाफ सरकारी की योजनाएं भी डूब गयी। कहने का अर्थ यह है कि बाढ पीड़ित स्वयं और भाग्य भरोसे ही बाढ की विनाश लीला से लडने के लिए विवश है।
इस मानसून की पहली ही बर्षा में बाढ से कितना नुकसान हुआ और किन-किन क्षेत्रों का नुकसान हुआ? इसका आकलन भी जरूरी है। बाढ का अर्थ ही है नुकसान, बाढ का अर्थ ही बर्बादी, बाढ का अर्थ ही है तबाही, बाढ का अर्थ ही है विनाश है, बाढ का अर्थ ही है जानलेवा। हर साल बाढ में न जाने कितने जीव जंतु शिकार होते है, इनके जीवन का विनाश होता है, न जाने कितनी सड़के बह जाती हैं, न जाने कितने पुल बह जाते हैं, न जाने कितने जंगलों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, न जाने कितने पहाड़ टूट कर सड़कों और खेतों में अपना मलवा विखेर जाते हैं, न जाने कितने पेड़ पौधों की जडें उखंड कर पानी में बह जाते हैं, न जानें कितनी खेती नष्ट हो जाती हैं। खास कर जंगली जानवरों की कोई गिनती ही नहीं है। बाढ़ का सर्वाधिक शिकार जंगली जानवर और जंगलों के आस-पास रहने वाले लोग ही होते हैं।
अब नुकसान का दायरा बढ रहा है। अब आवासीय कालोनियां भी बाढ की चपेट में आ रही हैं। वैसी आवासीय कालोनियां जो पहाडों की तलहटियों के नीचे बसी हुई हैं और जो कालोनियों नदियों के किनारे बसे हुई हैं, उन पर बाढ की विनाश लीला विकराल है। यह सही बात है कि प्रकृति जैसे पहाड और नदियां मनुष्य की जीवन रेखा हैं। पहाडों के नजदीक और नदियों के किनारे मनुष्य सभ्यता विकसित हुई हैं। इसके पीछे पानी की उपलब्धता और जीवन की उपयोगी चीजों की कसौटी रही है। नदियां जहां पीने का पानी उपलब्ध कराती हैं वहीं पहाड़ कभी जीवन को सक्रिय रखने के लिए एक बड़ा स्रोत हुआ करता था। देश की सभी बड़े शहर जैसे दिल्ली, लखनउ, अहमदाबाद, प्रयागराज, काशी आदि किसी न किसी नदी के किनारे बसे हुए है। देश के तीन महानगरों जैसे मुबई, कोलकाता और चैन्नई समुद्र के किनारे बसा हुआ है। मुंबई, कोलकाता और चैन्नई भी दो प्रकार की बाढ की समस्या से जुझते हैं। ये बडे शहर समुद्र में आने वाले तूफान का शिकार होते ही है पर प्रत्यक्ष वर्षा से भी कम शिकार नहीं होते हैं। मुंबई और दिल्ली में थोडी वर्षा में भी जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है, जाम की समस्या से लोग परेशान हो जाते हैं।
विचारण का विषय यह है कि अब शहरी इलाके बाढ के शिकार क्यों हो रहे हैं? वैसे शहर और वैसे क्षेत्र बाढ के शिकार क्यों हो रहे हैं जहां पर कोई बड़ी नदी नहीं है और न ही इसके पहले वहां बाढ का कोई खतरा होता था? लेकिन अब शहरों की कालोनियों में बाढ का खतरा बढा है। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल करेंगे तो पायेंगे कि इसके लिए सरकार की योजनाओं और नीतियां भी कम जिम्मेदार नहीं है। शहरों में कालोनियां बसाते समय पानी की निकासी का ख्याल नहीं रखा गया, वर्षा का पानी कैसे निकलेगा बाहर इस पर कोई चाकचौबंद नीति नहीं बनायी गयी। जब वर्षा का पानी बाहर निकलेगा ही नही ंतब कालोनियों में बाढ का पानी जमा होना निश्चित है। कालोनियों और बडे शहरों के नाले-नालियों पर कब्जा कर लिया गया है, नली नाले को पाट दिया गया है, फिर बाधित कर दिया गया है। ऐसे में बाढ़ का खतरा तो बना ही रहेगा।
कुछ उदाहरण तो इतने खतरनाक हैं जो मानव निमृत हैं और सरकार संरक्षित हैं। दिल्ली का उदाहरण यहां लिया जा सकता है। दिल्ली के बीचोबीच यमुना नदी बहती है। कभी यमुना की बाढ खतरनाक होती थी। यमुना का बहाव का दायरा भी बहुत होता था। धीरे-धीरे बांधों के कारण यमुना में पानी कम आने लगा। लेकिन यमुना के बहाव इलाके पर अतिक्रमण हो गया। अतिक्रमण सिर्फ खेती या फिर व्यापार के दृष्टिकोण से नहीं हुआ है बल्कि आवासीय क्षेत्र भी बना डाले गये। यमुना नदी की धारा में ही आवासीय कालोनियां खड़ी कर दी गयी। आवासीय कालोनियां मजहबी दृष्टिकोण से खडी कर दी गयी। मजहबी दृष्टिकोण से खड़ी की गयी कालोनियों को राजनीतिक सरकारें कहां कुछ बिगाड़ पाती हैं, उन पर हमेशा राजनीतिक संरक्षण जारी रहता है। स्थिति यहां तक बनी रहती है कि यमुना नदी में थोड़ा सा भी पानी बढने के बाद लोग बाढ़ से पीड़ित हो जाते हैं और अपना घर छोड़ कर उन्हें भागना पड़ता है। यमुना नदी की तरह गंगा नदी, गोमती नदी, कोसी नदी आदि की स्थिति भी ऐसी ही है।
बाढ को सरकारी आमंत्रण भी होता है? कहने का अर्थ होता है कि सरकार चाहती भी है कि बाढ़ आये और बाढ सरकार की योजनाओं का विनाश करे, बाढ पर्यावरण का नुकसान करे, बाढ लोगों का जीवन समाप्त करे? अब आप कहेंगे कि सरकार बाढ को आमंत्रण क्यों देगी, बाढ को आमंत्रण देने से सरकार को लाभ क्या है? सरकार खुद अपनी जनता के जीवन का विनाश लीला क्यों करेगी? इसके पीछे की सोच और कारण काफी खतरनाक है। सरकार अपनी रिश्वतखोरी, बईमानी और भ्रष्टचार को छिपाने के लिए बाढ को आमंत्रण देती हैं, बाढ आने का इंतजार भी करती है और बाढ की विनाशलीला से सरकार की मुस्कान बढ जाती है। सरकार की बहुत सारी योजनाएं कागजों पर चलती हैं, सरकार की बहुत सारी योजनाएं भ्रष्टचार और रिश्वतखोरी की शिकार होती हैं। ऐसी सभी योजनाओं के सत्यापन पर भ्रष्टचार और रिश्वतखोरी की सच्चाई सामने आ सकती हैं। जब सच्चाई सामने आयेगी तो फिर हंगामा खड़ा होगा, जनता के बीच छबि खराब होगी। बाढ के पानी ऐसी योजनाओं के बह जाने या फिर छतिग्रस्त होने से भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों की रिश्वत खोरी का अस्तित्व ही मिट जाता है।
सबसे बडी बात यह है कि बाढ से क्षतिग्रस्त होने वाले पुलों, सड़कों और घरों आदि के फिर से निर्माण मे अतिरिक्त धन की जरूरत होती है। अतिरिक्त धन की जुगाड़ से अर्थव्यवस्था प्रभावित होती हैं, विकास की अन्य योजनाएं भी प्रभावित होती हैं, पर्यावरण भी नष्ट होता है। इसलिए बाढ रोकने की अब चाकचौबंद नीतियां बननी चाहिए।
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