वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह का जन्म ग्राम भदेंग कंजा (पीलीभीत, उ.प्र.) में आषाढ़ पूर्णिमा 13 जुलाई, 1913 को एक चौहान क्षत्रिय परिवार मे हुआ था। जब वे कक्षा पांच में थे, तो आर्य समाज के कार्यक्रम में एक वक्ता ने बड़े दुख से कहा कि ऋषि दयानन्द के देहांत से उनका वेदभाष्य अधूरा रह गया। बहुत छोटे होने पर भी फतह सिंह ने मन ही मन इस कार्य को पूरा करने का संकल्प ले लिया।
1932 में हाई स्कूल कर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आ गये। उस समय वहां वेद पढ़ाने वाला कोई अध्यापक नहीं था; पर कुछ समय बाद विश्वविख्यात डा. एस.के. वैलवेल्कर वहां आ गये। उनके सान्निध्य में फतह सिंह जी ने जर्मन और फ्रेंच भाषा सीखी और वेदों पर संस्कृत भाषा में 500 पृष्ठ का एक शोध प्रबन्ध लिखा। 1942 में उन्हें डी.लिट्. की उपाधि मिली। इस विश्वविद्यालय से संस्कृत में डी.लिट्. लेने वाले वे पहले व्यक्ति थे।
डा. वैलवेल्कर वेदों की व्याख्या में विदेशी विद्वानों को महत्त्व देते थे; पर ऋषि दयानन्द के विचारों को वे अवैज्ञानिक कहते थे। अतः डा. फतह सिंह ने ऋषि दयानन्द के अभिमत की प्रामाणिकता के पक्ष में सैकड़ों लेख लिखे, जो प्रतिष्ठित शोध पत्रों में प्रकाशित हुए। इनकी प्रशंसा तत्कालीन विद्वानों डा. गोपीनाथ कविराज, विधुशेखर भट्टाचार्य और डा. गंगानाथ झा आदि ने की।
उन्होंने वेदों पर लोकमान्य तिलक के विचारों का भी अध्ययन किया। वेद और बाइबिल का तुलनात्मक अध्ययन उनकी पुस्तक ‘एशियाई संस्कृतियों को संस्कृत की देन’ में समाहित हैं। हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में उनकी मौलिक पुस्तकों की संख्या 90 है। इनमें मानवता को वेदों की देन, भावी वेदभाष्य के संदर्भ सूत्र, दयानन्द एवं उनका वेदभाष्य, पुरुष सूक्त की व्याख्या, ढाई अक्षर वेद के.. आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही कामायनी सौंदर्य, साहित्य और सौंदर्य, भारतीय समाजशास्त्र के मूलाधार, भारतीय सौंदर्यशास्त्र की भूमिका, साहित्य और राष्ट्रीय स्व, आभास और सत् आदि साहित्यिक पुस्तकें भी उन्होंने लिखीं।
1965 में डा. फतह सिंह ने 45 अक्षरों को पहचान कर सिन्धु घाटी के उत्खनन में मिली 1,500 मुद्राओं पर लिखे शब्दों को पढ़ा। उनका निष्कर्ष था कि सिन्धु मुद्राओं की लिपि पूर्व ब्राह्मी और भाषा वैदिक संस्कृत है तथा इनमें उपनिषदों के कई विचार चित्रित हैं। इस सभ्यता का विस्तार केवल हड़प्पा और मुअन जो दड़ो तक ही नहीं, अपितु पूरे भारत में था। सिन्धु लिपि चार तरह से लिखी जाती है। तीन प्रकार में बायें से दायें तथा एक प्रकार में दायें से बायें। सिन्धु लिपि पर उनके शोध एवं निष्कर्ष आज भी सर्वाधिक मान्य हैं।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें वर्तमान युग का ऋषि और आधुनिक पाणिनी कहा था। इस विषय पर देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उनके भाषण हुए। विदेश में तो कई चर्चों ने भी उनके व्याख्यान आयोजित किये। उन्होंने ‘विश्व मानव’ की संकल्पना को प्रतिपादित करते हुए बताया कि वेद ही सभी धर्मों का उद्गम है। भारत पर आर्य आक्रमण को गलत बताते हुए उन्होंने सिद्ध किया कि आर्य और द्रविण दोनों वैदिक मूल के निवासी हैं।
उ.प्र. और राजस्थान के कई विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उन्होंने 30 वर्ष तक पढ़ाया। ‘विवेकानंद स्मारक’ के पहले सौ जीवन व्रतियों को उन्होंने ही प्रशिक्षित किया था। राजस्थान प्राच्य शोध संस्थान तथा फिर वेद संस्थान, दिल्ली के निदेशक रहते हुए उन्होंने कई प्राचीन संस्कृत पांडुलिपियां प्रकाशित करायीं। उन्होंने वैदिक संदर्भों की व्याख्या कर उस विधि को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिसे ईसा से 1000 वर्ष पूर्व यास्क ऋषि ने आरंभ किया था।
1972 में पीलीभीत में सम्पन्न हुए संघ शिक्षा वर्ग में वे सर्वाधिकारी थे। फिर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पीलीभीत के जिला संघचालक भी रहे। अपने सब बच्चों के विवाह उन्होंने बिना दहेज सम्पन्न किये। पांच फरवरी, 2008 को 95 वर्ष की भरपूर आयु में वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह का निधन हुआ।
सुप्रभात जी
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म/साहित्य परिक्रमा का विशेषांक 2014)
प्रस्तुति विमलेश कुमार आर्य
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