धर्म, साम्प्रदायिकता और राजनीति

गतांक से आगे…..
मस्तराम कपूर
इस्लाम में भी कट्टïरता और उदारता का द्वंद्व देखा जा सकता है। प्रारंभ में इस्लाम की धार उदार रही होगी, क्योंकि अरब देशों में उसका किसी बड़े संगठित धर्म से टकराव नही हुआ। ईरान में अग्नि पूजकों के धर्म को विस्थापित करने में ऐसा लगता है उसे विशेष कठिनाई नही हुई और पारसियों के देश छोड़ जाने के बाद सारे ईरान का आसानी से इस्लामीकरण हो गया। यही बात दक्षिण पूर्व एशिया के इंडोनेशिया मलेशिया आदि देशों में हुई। यहां हिंदू धर्म था, लेककिन भारत में उसका संबंध टूट चुका था। अपेक्षाकृत उदार इस्लाम ने विश्रंखल हिन्दू धर्म को आसानी से पराभूत कर दिया। इस प्रकार ईरान और दक्षिण पूर्व एशिया के इस्लाम भारी बहुमत में हो गया और उसे असुरक्षा का भय नही रहा। इस स्थिति में उसमें इतनी उदारता आयी कि ईरान में इस्लाम पूर्व के इतिहास नायकों (रूस्तक और सोहराब) को इस्लाम ने अपने इतिहास पुरूष मान लिया और और फारसी के नमाज, खुदा आदि शब्दों को भी अपना लिया। दक्षिण पूर्व एशिया में उसने इस्लाम पूर्व की अनेक रस्मों और त्यौहारों को अपना लिया तथा रामायाण महाभारत की कहानियों को अपनी सांस्कृतिक विरासत बना लिया।
लेकिन यह उदारता इस्लाम ने हिंदुस्तान में नही दिखाई। कारण, यहां उसका संपर्क अत्यंत प्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता से हुआ। हिंदुस्तान सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्घ था, यद्यपि राज्य व्यवस्था की दृष्टि से वह बहुत कमजोर हो चुका था। सारा देश सैकड़ों छोटे छोटे राज्यों में बंटा हुआ था जो आपस में निरंतर लड़ते रहते थे। इसके अतिरिक्त हिंदू समाज जातियों में इस कदर बंटा हुआ था कि बाहरी हमलों से मुकाबला करने के लिए उसकी सारी जनता एकजुट नही हो पाती थी। युद्घ का एक जाति विशेष को सौंप दिया गया था और देश की बहुसंख्यक जातियां, जो जाति व्यवस्था के कारण विद्या, धन, राजशक्ति से वंचित एवं तिरस्कृत थीं, बाहरी हमलों के प्रतिशोध में कोई योगदान नही कर पाती थीं।
इस्लाम ने हिंदुस्तान पर राजनैतिक जीत तो हासिल की, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से वह हमेशा अपने को पराजित महसूस करता रहा। अल बेरूनी जैसे मुस्लिम इतिहासकार और दारा शिकोह जैसे दार्शनिक हिंदुस्तान की सांस्कृतिक समृद्घि के कायल रहे और अकबर ने तो इस्लाम का भारतीय करण करने का प्रयास भी किया। प्रलोभन और बल प्रयोग से भी इस्लाम हिंदुस्तान के एक छोटे से अंश का ही इस्लामीकरण कर सका और इस प्रकार इस्लाम हिंदुस्तान में एक अल्पसंख्यक धर्म के रूप में ही रहा। उसमें असुरक्षा का भाव निरंतर बना रहा। इसलिए वह हिंदुस्तान में वैसा उदार नही बन सका जैसा वह ईरान और दक्षिण पूर्व एशिया में दिखाई देता है। न तो वह अल्लाह के लिए प्रभु जैसे संधोधनों केा बर्दाश्त कर पाया और न वह हिंदुस्तान को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को अपनी विरासत मान सका।
उधर हिंदू भी इस्लाम से पराजित होने के कारण निरंतर हीनता बोध का शिकार रहे। भारी बहुसंख्या और श्रेष्ठ बुद्घि बल एवं पराक्रम के बावजूद (मुसलमान बादशाहों ने उनके पराक्रम और बुद्घि बल का अपने शासन में भरपूर उपयोग किया) उन्हें लगभग एक हजार साल तक अधीनता की स्थिति में रहना पड़ा। बजाए इसके हिंदू समाज अपनी कमजोरियों का विश्लेषण करता, जाति व्यवस्था के नियमों को उार बना कर सारी जातियों को संगठित कर अपने को शक्तिशाली बनाता, उसने इस व्यवस्था को कठोर बनाने तथा बाहरी स्थितियों से विमुख होकर अपने भीतर समेटने का प्रयास किया। भक्ति आंदोलन इस पराजित मानसिकता की उपज था। निर्गुण भक्ति और कृष्ण भक्ति के आंदोलनों ने तो हिंदू समाज की रूढिय़ों पर प्रहार कर उसे उदार बनाने का प्रयत्न किया, किंतु रामभक्ति के आंदोलन ने वर्णाश्रम धर्म की मर्यादाओं की रक्षा के नाम पर हिंदू समाज को कट्टरता के मार्ग पर आगे बढ़ाया। बीसवीं सदी में हिंदू राष्ट्रवाद के आंदोलन में जो कट्टरवाद की प्रवृत्ति दिखाई देती है, वह एक हजार साल के हीनता बोध का ही परिणाम है।
ध्यान में रखने की बात है कि हिंदू कट्टरवाद और उदारवाद हमेशा ही जाति व्यवस्था के साथ जुड़े रहे हैं। कट्टरवाद की प्रवृत्ति जाति व्यवस्था को मजबूत करने और उदारवाद की उसे तोडऩे की रही है। वेद उपनिषद कालीन समाज उदार था, क्योंकि उसमें निम्न स्थितियों में पैदा हुआ व्यक्ति भी महान ऋषि का दर्जा प्राप्त कर सकता था। हमारे अधिकांश ऋषि अधम स्थितियों में पैदा हुए थे। स्मृति पुराणकालीन समाज में जाति व्यवस्था को मजबूत करने की प्रवृत्ति प्रबल हुई। आगे चल कर हिंदू धर्म का स्वरूप बावजूद अनेक संप्रदायों के इस स्मात धर्म ने ही निश्चित किया।
बौद्घ और जैन आंदोलनों ने जाति व्यवस्था को उदार बनाने का काम किया और उनके काम को नाथों, सिद्घों ज्ञान मार्गी संतों और शैवों ने आगे बढ़ाया। स्मरणीय है कि उत्तर भारत में कबीर, नानक, रैदास आदि संतों ने जात पात के खिलाफ चेतना पैदा की, महाराष्ट्र में वारकारी संप्रदाय के संतों ने यह काम किया और दक्षिण में शैवों ने कृष्ण भक्ति ने वर्ण व्यवस्था पर सीधी चोट तो नही की, किंतु समाज की अनेक रूढिय़ों को तोडऩे का काम अवश्य किया। उदाहरण के लिए मीराबाई ने स्त्री जीवन पर लगी लगभग सभी पाबंदियों को तोड़ा और आज के मानदंडों के अनुसार भी स्त्री मुक्ति आंदोलन की दृष्टि से मीरा सबसे बड़ी क्रांतिकारी महिला दिखाई देती है। इस दृष्टि से ये सभी आंदोलन प्रगतिशील और उदारवादी थे। किंतु राम भक्ति का आंदोलन भिन्न प्रकार का था। रामचरित मानस की रामभक्ति ने समाज की मर्यादाओं के नाम पर जाति व्यवस्था को मजबूत किया। यह स्मृति पुराणों के धर्म की पुनप्र्रतिष्ठा थी, जो विविध भक्ति आंदोलनों से तहस नहस हो रहा था। इस प्रकार इस्लाम और हिंदू धर्म दोनों ही असुरक्षा की भावना के कारण कट्टरता की प्रवृत्ति वाले रहे। अकबर के साम्राज्य को बड़ी चुनौती नही मिली तो वह उदारता की ओर बढ़ा। औरंगजेब के साम्राज्य को चारों ओर से खतरा पैदा हुआ तो वह कट्टरता की ओर झुका।
ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन होने के बाद हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को आत्म निरीक्षण का अवसर मिला। दोनों को एक दूसरे के करीब आने की जरूरत महसूस हुई और इसलिए दोनों में उदारवाद की प्रवृत्ति दिखाई दी। स्वामी दयानंद के आर्य समाज आंदोलन ने हिंदू समाज की जाति व्यवस्था पर प्रहार किया और उसे उदार बनाने का प्रयास किया। सर सैयद अहमद खां ने मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा और आधुनिक विचारों के संपर्क में लाकर उनकी कठमुल्ला प्रवृत्ति को बदलने की कोशिश की। स्वामी दयानंद और सर सैयद की प्रगाढ़ मैत्री यह दिखाती है कि दोनों संप्रदायों में यदि उदारता की प्रक्रिया चलती रहती तो इन दोनों संप्रदायों का परस्पर असुरक्षा बोध कम होता तथा दोनों एक दूसरे के करीब आते। किंतु दुर्भाग्य से यह उदारता की प्रक्रिया स्थायी नही बन सकी।
हालांकि भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारंभ इस उदारता के वातावरण में हुआ, हिंदुओं के कट्टïरतावादी तबके ने, जो सनातनी भी कहलाता था, तिलक गुट के नेतृत्व में कांग्रेस पर कब्जा कर लिया।

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