लोकतंत्र के खतरा बनता “सिस्टम”!

लोकतन्त्र में चुनाव को उत्सव बताया जाता है। लेकिन प. बंगाल में बीते कुछ चुनावों से जबरदस्त हिंसा दिखाई दे रही है। बमबारी, चाकू, बंदूक, लूटमार, हत्याएं, बलात्कार तो जैसे प. बंगाल की संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। आए दिन ईवीएम हैक का रोना रोने वाले विपक्ष की मांग बैलेट से चुनाव कराने की रही है। इन त्रिस्तरीय पंचायती चुनावों में यह स्पष्ट हुआ कि वे ऐसी पिछड़ी, भ्रमित मांग क्यों करते रहे हैं। वास्तव में आज लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा ऐसे कथित लोकतंत्र के रक्षक, स्वयंभू “स्तंभ” ही हैं। जो धूर्तता की पराकाष्ठा पर खड़े होकर निर्लज्ज रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों, मानवतावादी, पंथनिरपेक्ष सिद्धांतों के पुरोधा और प्रहरी के रूप में स्वयं को बताते रहते हैं। लेकिन जब भी विषय गैर भाजपाई वामपंथी, कथित सेकुलर या समाजवादी दलों की सरकारों द्वारा की जा रही लोकतांत्रिक हत्याओं, बलात्कार का होता है, ये सांप सूंघ कर बैठ जाते हैं।
सालों से देखने में आ रहा है कि मुख्य धारा मीडिया हो, स्वयंसेवी संगठन हो, या न्यायपालिका में बैठे स्वयंभू “न्याय के देवता” सभी में एक अच्छी संख्या ऐसे लोगों की है, जो एक पक्षीय पक्षपात करते हैं और दिखते हैं। हाल ही का उदाहरण देखिए, कैसे एक कथित “सोशल एक्टिविस्ट” जो गुजरात राज्य में जनता द्वारा बहुमत से चुनी सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र करती है, पैसों के बल से सबूत पैदा करती है। जिसके खिलाफ ढ़ेरों सबूत खड़े हैं। इसके बावजूद “बड़े लॉर्ड साहब” की पंचायत उसे अंतरिम बेल दे देती है। और वो भी लगभग साल भर के लिए। हुजूर! इतनी लंबी अंतरिम बेल!? किसी गरीब को मिलती देखी है कभी?
इतना ही नही लोकतंत्र की हत्या के प्रयास में आकंठ डूबी इस “सोशल एक्टिविस्ट” को हाई कोर्ट के न्याय से बचाने के लिए कैसे “बड़े लॉर्ड साहब” लूंगी चढ़ा कर न्यायालय के दरवाजे की ओर दौड़े और छुट्टी के समय में भी दरवाज़े न सिर्फ खोल देते हैं, बल्कि पहले दो जजों की बेंच बनती है। निर्णय में मतैक्य न होने के कारण उसी समय तीन जजों की बेंच भी बना देते हैं। और उसी रात से सुनवाई भी शुरू हो जाती है जो एक दिन भोर तक चलती है। और तो और सरकारी वकील के तर्कों का संतुष्टिदायक जवाब न देते हुए भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिखते हुए अपनी मुक्तिदायक भूमिका का निर्वहन कर उस कथित “सोशल एक्टिविस्ट” को गिरफ्तारी से राहत भी से देते हैं। कारण! क्योंकी वह महिला है।
“महाराज!” महिला तो भारत की जेलों में सालों से बंद न्याय को तरसती वे विचाराधीन अपराधी भी हैं, जिनके पास न्याय के लिए न तो “पैसा” और न ही विपक्षी सत्ता से संबंध हैं। महिला तो वे विचाराधीन कैदी भी हैं जो अपने छोटे छोटे बच्चे से अलग कर दी गई हैं, और रंजिशन मिलीभगत के कारण फंसा दी गई हैं। उनके लिए आपके दरवाजे क्यों नहीं खुलते? क्यों आधी रात को उन बेगुनाहों के लिए आप ठीक उसी तरह न्याय नहीं करते जैसा कथित रूप से सामाजिक आतंकियों और बौद्धिक आतंकियों के लिए करते हैं? जो देश समाज के लिए जनता की नजरों में वर्षों से खतरा बने हुए हैं। चाहे मामला अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ का हो, रोहिंग्या का हो, कश्मीरी आतंकियों का हो या इन लोगों द्वारा जमीन कब्जाने का या CAA/ NRC का हो। तीव्र गति से ऐसे देश के खतरों के लिए कभी मानवता के आधार पर, कभी पंथनिरपेक्षता के नाम पर, कभी मजहबी आजादी के नाम पर मीडिया से लेकर कोर्ट तक में बैठे ऐसे शैतानी लोग सक्रिय हो जाते हैं। और स्वाभाविक न्याय की आस लगाए बैठी आमजनता को ठग लिया जाता है।
यदि ये जल्दी ही नहीं सुधरे तो फिर जो होगा, वह कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में, “जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”
जब जनता आयेगी तो ये न समझें कि गाज राजाओं पर ही गिरेगी। फिर वह गाज़ राजदरबार के दरबारियों पर भी गिरेगी। जनता उनको भी उनके कॉलर पकड़ उखाड़ फेंकेगी। क्योंकि संविधान भी “हम भारत के लोगों द्वारा” ही “स्वीकार, अंगीकार” किया गया है। इसके असली रक्षक कोई संस्था नहीं इसे बनाने वाली भारत की बहुसंख्यक जनता ही है। क्योंकि ये मूल्य उन्होंने किसी किताब से नहीं सीखे। ये हजारों वर्षों की अपनी संस्कृति,सभ्यता, संस्कारों से प्राप्त किए हैं।

युवराज पल्लव
धामपुर, बिजनौर।
8791166480

नोट: कृपया छपने पर पीडीएफ अवश्य भेजिए।

2 thoughts on “लोकतंत्र के खतरा बनता “सिस्टम”!

  1. संविधान निर्माताओं ने शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को इसी लिए स्वीकारा था ताकि लोकतंत्र के तीनों स्तंभ एक दूसरे की शक्तियों का अतिक्रमण ना करें । इसी लिए न्यायपालिका से अपेक्षा थी कि वह “procedures established by law” की परंपरा पर काम करेगी पर न्यायपालिका ने “due process of law” सिद्धांत का आवरण ओढ़ कर judicial activism ही नही बल्कि वर्तमान मे judicial over reach का दुस्साहसिक कार्य किया है। उदाहरण के तौर पर नूपुर शर्मा के मामले को देखा जा सकता है।

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