Categories
राजनीति

घोटालेबाजों के बाल की खाल

बीते सप्ताह सोनिया राहुल के घोटाले भी सामने आये तो नितिन गडकरी के भी। इसी सप्ताह महाराष्ट्र का दस अरब का मध्यान्ह भोजन घोटाला भी खुला तो मीडिया के एक चैनल द्वारा जिन्दल स्टील से सौ करोड रूपया मांगने का स्टिंग भी सामने आया। घोटालों की बाढ मे हर साफ सुथरे चेहरे गले तक डूबते नजर आये। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने साफ किया कि इस तरह यदि बाल की खाल निकाली जायगी तो सार्वजनिक जीवन का एक भी व्यक्ति साफ नही बच पायगा। कुछ केन्द्रीय मंत्रियों ने भी ऐसी ही गुहार लगाई है। मुझे तो इन नेताओ की चिन्ता देखकर मजा आ गया। अब तक इन नेताओ को सामान्य लोगों के लिये नये नये कानून बना बना कर उनका मान मर्दन करने मे बहुत मजा आता था। मै स्वयं भुगत चुका हॅू जब मेरे गोदाम मे अपना एक सौ दस किलो चावल जप्त करके मुझे अठारह दिन जेल मे रखा गया और बारह वर्ष मुकदमा लडने के बाद मै न्यायालय से छूटा। चावल न सरकारी था न राशन का। मुझ पर आरोप था कि कानून के अनुसार कोई भी उपभोक्ता अपने घर मे एक सौ किलो से ज्यादा चावल नही रख सकता था। इसी एक्ट के नाम पर कसाई जैसे कानून बनाकर नागरिकों को जबह करने मे इन नेताओ को मजा आता था। पांच बोरा सरसों बिना रजिस्टर मे लिखे रखने के आरोप मे वर्षो मे जेल मे रखने के कई उदाहरण मौजूद है। आज भी छत्तीसगढ का कोई किसान अपने खेत का गन्ना काटकर गुड बना ले तो इतना कठोर दण्ड मिलेगा जैसे कि उसने कही डाका डाल दिया हो। अपने खेत की लकडी बिना अनुमति के काट लेना भी बहुत गंभीर अपराध की श्रेणी मे शामिल रखा गया है। लकडी जप्त, गाड़ी जप्त, अपराधी की जमानत नही। सिद्ध है कि लकडी आपके खेत की है, जंगल की नहीं किन्तु बिना सरकारी अनुमति के लकडी काटकर आपने दुनियां के पर्यावरण को खतरे मे डालने जैसा गंभीर अपराध किया है। दूसरी ओर इस कानून बनाने वालों ने अपने लिये करोडो अरबों के चौडे चौडे दरवाजे खोल रखे थे। ये कानून बनाने वाले ही जब कानून के जाल मे फंस रहे है तो इन्हे नैतिकता की दुहाई देनी पड रही है। बकरे की गर्दन पर छुरी चलाने और उसी छुरी से कसाई की उगंली कटने के बीच का अंतर इन नेताओ को महसूस होना शुरू हुआ है।
चाहे राहुल, सोनिया, गडकरी, वाड्रा, खुर्शीद आदि दांव पेच करके कानून की नजर मे ससम्मान मुक्त हो जाएं किन्तु समाज की नजर मे वे उसी तरह अपराधी है जिस तरह मेरे जैसा चावल सरसों, लकड़ी, गन्ना के मामले मे कानूनी अपराध करने के बाद भी समाज की नजर मे निर्दोष और सम्मानित है। इन सामाजिक अपराधियो की छटपटाहट हमारे दिलों को शकून देती है। हमे तो खुशी होगी जब हमारे लिये मकड़ी का कानूनी जाल बुनने वाला स्वयं उस जाल मे फसेगा, और तब हम इन नेताओ को कहेंगे कि भले ही देर है किन्तु अंधेर नहीं।इस सप्ताह एक नया घोटाला प्रकाश मे आया कि अकेले महाराष्ट्र प्रदेश मे ही कुपोषित बच्चो के भोजन मे दस अरब का भ्रष्टाचार हुआ। देश के अन्य अनेक प्रदेशो मे भी कमोबेस बच्चो के भोजन मे घोटाला हुआ है। किन्तु अभी उनकी रिर्पोट सार्वजनिक नही हुइ्र है। एक प्रदेश का घोटाला अरबों का और वह भी कुपोषित बच्चो के भोजन मे और वह भी सरकारी अनुदान का। किस प्रकार बडे बडे कारपोरेट घरानों की महिलाओ ने अपने परिवार मे ही महिला स्व सहायक समूह बनाकर ठगा वह असमान्य घटना ही मानी जायगी। मुझे मालूम है कि कुपोषित बच्चो या महिलाओं ने भी कभी ऐसी सहायता की मांग नही की। कारपोरेट घराने मीडिया कर्मियों को पैसा देकर कुपोषण जैसी समस्या को बढा चढाकर वीभत्स स्वरूप मे स्थापित करते है। इन मीडिया कर्मियों और पेशेवर एन जी ओ वालो की मांग पर झूठ मूठ पसीजकर राजनेता कुपोषण दूर करने को प्राथमिकताओं मे शामिल करते है। न्यायालय ऐसे कार्यो को भ्रष्टाचार से दूर रखने के लिये कुछ नये स्व सहायता समूह बनवाने का नाटक करता है। और बस शुरू हो जाता है कुपोषण के नाम पर लूट का खेल जिसमे नेता अफसर न्यायाधीश मीडिया तथा एन जी ओ का अपना अपना भाग शामिल हो जाता है।
इन तथाकथित आंसू बहाने वालों ने आज तक कभी यह क्यो नही पूछा कि कुपोषण के लिये अरबों खरबो का खर्च होने वाला बजट कहां से आता है? क्या यह बजट ही कुपोषण का कारण नहीं है? गांव मे दिनभर बीडी पत्ता तोडने वाले श्रमिक से आधा बीडी पत्ता टैक्स रूप मे वसूलना कुपोषण का कारण नही है? गांव मे पैदा आवला गोंद आदि से टैक्स चूसकर कुपोषण दूर करने का नाटक क्या इन सबका षडयंत्र नही है? क्यो नही न्यायालय यह प्रश्न करता है कि कुपोषण दूर करने के लिये एकत्रित धन मे से कितना पैसा गरीब ग्रामीण श्रमजीवी छोटे किसान से टैक्स के रूप मे आता है? मीडिया य़ा विद्वान लेखक यह प्रश्न क्यो नही उठाते ? स्वाभाविक है कि इस तरह गरीब ग्रामीण श्रमजीवी छोटे किसान से धन लेकर उसे कुपोषण दूर करने के नाटक के पीछे इन सबका स्वार्थ छिपा है। अब धीरे धीरे ये भेद खुलने शुरू हुए है। आगे आगे देखिये होता है क्या? इस सप्ताह ही एक नई घटना के अन्तर्गत गडकरी जी ने स्वामी विवेकानंद और दाउद इब्राहिम की तुलना करते हुए कह दिया कि दाउद और विवेकानंद लगभग समान बुद्धिवाले थे किन्तु जहां स्वामी जी ने अपनी बुद्धि का सदुपयोग करके दुनियां मे एक सम्मानजनक महापुरूष का स्थान पाया वहीं दाउद ने अपनी बुद्धि का दुरूपयोग करके एक बदनाम शांहशाह का स्थान पाया। यह आपके स्वयं के उपर निर्भर है कि आप अपनी बौद्धिक क्षमता का कहां और कैसे उपयोग करते है। यह टिप्पणी सामने आते ही एक राजनैतिक तूफान खडा हो गया। विपक्ष ने तो इस टिप्पणी को विवेकानंद का अपमान बताया ही किन्तु नरेन्द्र मोदी समर्थक भाजपाई गुट भी चोरी छिपे टिप्पणी के खिलाफ हवा देने मे सक्रिय हो गया। ऐसा लगा जैसे कि बस तत्काल ही गडकरी जी की कुर्सी जाने वाली हैं । एक दिन मे ही चारो ओर से गडकरी के खिलाफ छीटाकशी शुरू हो गई । गडकरी जी के खिलाफ सप्रणाम भ्रष्टाचार या आर्थिक अनियमितता के आरोपो की गति इस विवेकानंद के खिलाफ आधारहीन टिप्पणी के समक्ष बहुत कम थी। मैने तिल का ताड बनते तो कई बार देखा है किन्तु बिना तिल का ताड बनने की यह घटना भी प्रत्यक्ष दिख गई। मै तो नही समझ पाया कि गडकरी जी के इस कथन मे विवेकानंद के अपमान का भाव कहां छिपा है? क्या राम और रावण की तुलना नहीं होती? यदि कोई कह दे कि रावण राम से भी ज्यादा प्रकाण्ड विद्वान था तो इसमे राम का अपमान कहां हुआ? राम की विद्वता ने कभी राम को महापुरूष नही बनाया। राम को महापुरूष बनाया, राम द्वारा अपनी विद्वता के मानवहित मे उपयोग के द्वारा। इस संबंध मे गडकरी जी ने स्वामी जी और दाउद की समानता नही दिखाई । बल्कि इस संबंध मे तो उन्होने दोनो के बीच आकाश पाताल का अंतर किया है। मुख्य प्रश्न यह है कि गडकरी जी की इस वैचारिक टिप्पणी को ऐसा भावनात्मक तूफान का स्वरूप कैसे मिला। वास्तव मे हमे इसके पीछे संघ की पृष्ठभुमि पर विचार करना होगा।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version