भारत का समाजवादी स्वरूप
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द प्रयुक्त किया गया है जिसका बहुत बड़ा महत्व है। समाजवाद की सीधी-सादी व्याख्या समाज के प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति तक शासन की नीतियों का सही लाभ पहुंचाने से है। महल और झोंपड़ी के अन्तर को समाप्त करते-करते धीरे-धीरे पूर्णत: समाप्त करना इस व्यवस्था का उद्देश्य है। इस ‘समाजवाद’ शब्द की लोगों ने मनमानी व्याख्याएं की हैं। ये लोग समाजवाद की अपनी-अपनी व्याख्याओं के जंजाल में इस प्रकार उलझे कि समाजवाद की चादर को ही फाड़ बैठे। फलस्वरूप आज समाजवाद के चीथड़े उड़ गये हैं। जो समाजवाद हमें दीख रहा है वह समाजवाद नहीं है, अपितु समाजवाद की विकृत व्यवस्था है। उसके चीथड़े हैं, टुकड़े हैं। दुर्भाग्य से भारत ने समाजवाद की जिस व्यवस्था को अंगीकृत किया वह कोई सुन्दर परिणाम नहीं दे पायी।
भारत को समाजवाद को अपने ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ से जोड़कर देखना चाहिए था। उसे संसार में जनोपयोगी बनाने के लिए भारत को समाजवाद की सही व्याख्या और परिभाषा प्रस्तुत करनी चाहिए थी। किन्तु हमने अपने स्वभाव के अनुसार पुरुषार्थहीनता का परिचय देकर पश्चिमी जगत के कुछ विद्वानों के उच्छिष्ट भोजन को ग्रहण करने में ही कत्र्तव्य की इतिश्री मान ली। इसलिए समाजवाद की प्रचलित व्याख्या, व्यवस्था ओर परिभाषा को गले लगाये चले जा रहे हैं। परिणामस्वरूप भारतीय समाज का अधिकांश भाग आज भी ऐसा है जो झोंपड़ी से भी वंचित है। फुटपाथ पर खुले आकाश के नीचे सोते लोग महानगरों की निर्मम जनता और निर्दयी शासन का ध्यान भंग नहीं करा पाये। मनुष्य, मनुष्य के प्रति कठोर हो गया। हमें ऐसे प्रयास करने चाहिए थे कि मनुष्य की मनुष्य के प्रति कठोरता पिघलती। यह ऐसा प्रयास हमें सुसंस्कृत करता, संस्कारित और परिमार्जित करता। ‘संस्कारोतीति य: संस्कृति।’अर्थात संस्कृति वही है जो हमारा संस्करण करे, परिमार्जन करे। हमें मांजे, भीतर से स्वच्छ कर दे। व्यक्ति का परिमार्जन कर उसे मानव बनाना संस्कृति का परम उद्देश्य है। यह परिमार्जन ही भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है। यदि हम भारतीय लोग इस ‘परिमार्जनवादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को अपनाते तो समाजवाद का सही स्वरूप संसार को मिल सकता था। हमारा समाज सीख जाता- खुले आकाश वालों को और झोंपड़ी वालों को भवन उपलब्ध कराना। दुर्भाग्य से हमारी उधरी मनीषा जनित भिक्षावृत्ति ने हमें अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जुडऩे नहीं दिया। उल्टे जिन लोगों ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात देश में की उन्हें साम्प्रदायिक कहकर चिढ़ाने का प्रयास और किया गया। परिणामस्वरूप देश में एक ऐसा माहौल बना कि यहाँ रहकर अपने देश की बात नहीं करनी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समाजवाद को कुछ लोगों ने मुस्लिमों के प्रति एक सुनियोजित षडयंत्र सिद्घ करने का अनुचित प्रयास किया। फलस्वरूप यह पावन शब्द हमारे समाज में भी गले की हड़्डी बनकर रह गया है। हमें समझ नहीं आता कि इसे किन अर्थों व सन्दर्भो में अपनायें? कितना अच्छा होता कि समाजवाद के शब्द के साथ हमारी संविधान सभा या संसद, ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी समाजवाद’ का प्रयोग करते। यदि ऐसा हो जाता तो आगे तक की समस्याऐं समाप्त हो जातीं। तब हमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर आज मिलने वाले अपशब्द नहीं सुनने पड़ते। इस शब्द के जुडऩे से ही देश में ऐसा माहौल बनता कि सभी लोग अपनी मानवीय गुणों से आपूर्ति वैदिक संस्कृति की ओर स्वयं ही झुक जाते। हिंदू-मुस्लिम की समस्या राष्ट्र में ना होती। तुष्टिकरण ना होता। बस होता तो हिंदू-मुस्लिम के स्थान पर नागरिक और तुष्टिकरण के स्थान पर ‘पुष्टिकरण’ धर्मसम्मत और लोकसम्मत सिद्घांतों और व्यवस्थाओं की पुष्टि होती है।