वह था “दयानन्द”…
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“तीस करोड नामर्दों में जो अकेला मर्द होकर जन्मा, बरसाती घास-फूस और मच्छरों की तरह फैले हुए मनुष्य जन्तु की मूर्खता की चरमसीमा के प्रमाण स्वरुप मत-मतान्तरों का जिसने मर्दानगी से विध्वंसिनी ज्वाला की तरह विध्वंस किया, मरे हुए हिन्दू धर्म को अपने जादू के चमत्कार से जीवित कर दिया और उसे नोंच नोंच कर खाने वाले गीदडो को एक ही हुंकार से जिसने भगा दिया, कीडे-मकोडों की तरह रेंगकर पलने वाले हिन्दू बच्चों के लिये जिसने पूण्यधाम गुरुकुलों और अनाथालयों की रचना की, निर्दयी हिन्दूओं की आंखों के सामने उकराती, गर्दन कटाती गायों के आंसू जिसने अग्नि के नेत्रों की तरह देखे, अबला विधवाओं के उपर जिसने संजीवनी मरहम लगाया, जो करोडों व्यभिचारीयों में अकेला अखण्ड ब्रह्मचारी था, जिसके प्रकाण्ड पाण्डित्य ने नदिया (नवद्वीप) और काशी की पुरानी ईंटों को हिला दिया, सारी पृथ्वी पर जिसकी आवाज गूंज गई थी, युग के देवता की तरह जिसने वेदों का उद्धार किया, जो प्रत्येक हिन्दू के दरवाजे पर निरन्तर ५९ वर्ष तक ऊंची आवाज में पुकारता रहा “उठो, जागो, निर्भय रहो, खडे रहो” और सच्चे सिपाही की तरह घाव खाकर जिसने बीच रणक्षेत्र में प्राणों का विसर्जन किया, वह “दयानन्द” था…”
– आचार्य चतुरसेन शास्त्री
● स्त्रोत : “महर्षि दयानन्द: हिन्दी साहित्यकारों की दृष्टि में” (पृ. 33)
● संपादक: डॉ. भवानीलाल भारतीय
[ डॉ. भारतीय जी द्वारा संपादीत इस ग्रंथ में हिन्दी के कतिपय कवीयों, लेखकों तथा साहित्यकारों के ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज विषयक भावों, विचारों और उद्गारों का संकलन किया गया है. आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपरोक्त उद्गार “आर्य मित्र” के दयानन्द जन्म-शताब्दी अंक से लिये गये है.- प्रस्तुति : राजेश आर्य]
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