राह से भटक गये हैं केजरीवाल: सिद्धार्थ मिश्र ‘स्वतंत्र’
अन्ना आंदोलन की उपज अरविंद केजरीवाल सत्ता के गलियारों में आज अपनी सशक्त उपस्थिती दर्ज करा चुके हैं । लगभग दो साल चला उनका ये संघर्ष अपनी अंतिम परिणीती को प्राप्त कर चुका है । अर्थात स्वयं को एक राजनेता के रूप में पहचान दिलाने का । हांलाकि उनके इस सफर में कई पुराने साथी छूट भी गये और कई नये लोग उनसे जुड़े भी । महंगाई,भ्रष्टाचार और निर्विय शासन व्यवस्था से आजिज आकर लोगों ने धीरे धीरे ही सही पर सत्ता परिवर्तन का मन बना लिया है । ऐसे में अरविंद जी के हालिया प्रयासों और बेचैनी को साफ समझा जा सकता है ।
उनकी पूरी कोशिश रहेगी आगामी लोकसभा चुनावों में स्वयं को एक बड़ी राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करने की । अगर चीजों पर थोड़ा ध्यान दे तो उनकी ये मांग नाजायज भी नहीं लगती,लेकिन यहीं पर उन्हे एक और चीज समझनी होगी कि परिवर्तन अचानक नहीं होता । कम से कम भारतीय लोकतंत्र का अब तक का इतिहास तो ऐसा ही रहा है । मूलभूत समस्या इस बात की नहीं है कि आप समस्याओं को गिनाने में कितने सक्षम हैं, प्रश्न ये है कि क्या आप के पास इन समस्याओं के समाधान है? ऐसे में आगे बढऩे से पहले अपने गिरेबां में झांकने की भी आवश्यकता पड़ेगी । अफसोस इसी बात का है कि वो इस तुच्छ से काम के लिये वक्त नहीं निकाल पाते ।
जहां तक केजरीवाल जी के अब तक सफर का प्रश्न है तो अब हालात बिल्कुल ही अलहदा हैं । यथा अपने इस आंदोलन की शुरूआत उन्होने अन्ना की छत्र छाया में की थी जो निश्चित तौर पर पर अब उनके साथ नहीं है । ऐसे में बिना बुजुर्गों का ये सफर उन्हे और भी सतर्कता से तय करना होगा । इस बात को अन्ना हजारे के हालिया बयान से भी समझा जा सकता है । अपने बयान में अन्ना ने केजरीवाल को संयम बरतने की सलाह दी है । उन्होने कहा कि अरविंद किसी एक मामले को अंजाम तक पहुंचाये बिना दूसरों पर हाथ ना डालें । यहां एक गौरतलब बात और है जो अन्ना ने कही,उन्होने कहा कि मैं मुंबई में दिसंबर 2011 के अनशन के खिलाफ था लेकिन टीम के दबाव के आगे मुझे झुकना पड़ा । इस अनशन का अंजाम भी आज किसी से छुपा नहीं है जो दूसरे ही दिन भंग हो गया था । ऐसे में माननीय अरविंद जी की नीयत पर संदेह होना लाजिमी ही है । अन्ना के अस्वस्थ होने के बावजूद भी उन्हे अनशन पर बिठाना कहां तक जायज था? अत: दूसरों पर आरोप लगाने से पूर्व केजरीवाल को एक बार ये सोचना चाहीये कि ऐसे कई सवाल उनकी प्रतिक्षा में हैं । ऐसे ही कुछ सवाल कांग्रेस के वफादार दिग्विजय सिंह ने भी उनके सामने रखे थे,जिनका जवाब वो अब तक नहीं दे पाये हैं ।
अपनी उपलब्धियों के बारे में केजरीवाल जी भले कुछ भी सोचते हों लेकिन वास्तव में वो अभी भी किसी उपलब्धि के आसपास नहीं हैं । अगर वो मीडिया कवरेज को उपलब्धि मानते हैं तो वो सर्वथा गलत है,क्योंकि मीडिया की अंतरिम तलाश चटपटी खबरें ही हैं । फिर वो चाहे पूनम पांडे की नग्न आकांक्षाओं का प्रदर्शन हो कसाब की बिरयानी पे आने वाले खर्च का ब्यौरा हो । बहरहाल उनकी इन फुलझडिय़ों छोडऩे की आदत के कारण उनकी गणना हिट एण्ड रन की श्रेणी में होने लगी है । अभी एक मामला पे कोई कार्रवाई हुई भी नहीं कि तब तक आपने दूसरा पटाखा छोड़ दिया । ऐसे में आम आदमी किसी भी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता । ऐसे में उसे अपना समर्थक मान बैठना केजरीवाल जी की भारी भूल ही कही जा सकती है।
अगर आपको आम आदमी की बात करनी है तो पहले आम आदमी से मिलिये । ये किसी भी लोकप्रिय नेता के प्रारंभिक लक्षण हैं । अपने इर्द गिर्द मैं आम आदमी हूं कि टोपी लगाने वालों को आम आदमी मानना वास्तव में दिवास्वप्न के अलावा कुछ भी नहीं है ।
आपके आस पास टोपी लगाकर नारे लगाने वाले ये लोग आपको मोटा चंदा तो दे सकते हैं लेकिन जनादेश नहीं दिला सकते । एसी कारेां में बैठकर दिल्ली के महंगे रेस्त्रां में रोज खुलासे करने में क्या पैसे खर्च नहीं होते? कहां से आते हैं ये पैसे ?कौन देता है और क्यों देता? ये पैसे काले हैं या सफेद कभी सोचा है आपने ? जवाब अगर ईमानदारी से दिया जाये तो ना ही होगा । इन आधारों पर अगर देखें तो किस पारदर्शिता की बात करते हैं अरविंद जी ? ये सारी बातें अभी भी समझ से परे हैं । अगर अरविंद जी वाकई आम आदमी की राजनीति करना चाहते हैं तो उन्हे आम आदमी से मिलना पड़ेगा । वो आम आदमी जिसकी पहुंच से दिल्ली अभी दूर है,जो भारत के छोटे शहरों,कस्बों अथवा सुदूर गांव गिरांव में बसता है । ये तो रही अरविंद जी की अब तक की उपलब्धियों का ब्यौरा,मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती । ये कहानी का एक चैथाई हिस्सा भी नहीं है । अरविंद जी भले ही खुद को बड़ा देशभक्त मानते हों लेकिन देश से जुड़े किसी भी विवादास्पद मुद्दे पर अपनी राय नहीं रखते । अगर रखते हैं तो अनुच्छेद 370,कश्मीर समस्या,बांग्लादेशी घुसपैठ,नक्सली वारदातेां पर उनकी राय क्या है ? उनकी राय में सेक्यूलर होने की परिभाषा क्या है ?अथवा कसाब की फांसी के मुद्दे पर पर वो कोई उग्र राय क्यों नहीं रखते ? ऐसी बातें करने से उन्हें गुरेज क्यों हैं? क्या ये देश की समस्याएं नहीं हैं? ऐसे कई सवाल हैं जिनका उन्होने आज तक कोई भी जवाब नहीं दिया है । अब जरा उनकी टीम की भी बात हो जाये,इन्हीं की टीम के प्रशांत भूषण जी ने बीते वर्ष कश्मीर मुद्दे पर अलगाववादियों का समर्थन किया था । इसी मुद्दे से गुस्से में आकर एक आम आदमी इंदर वर्मा ने उनकी पिटाइ की थी । ये वाकया क्या भूल गये हैं केजरीवाल जी ? आम आदमी का एक रूप ये भी होता है । इस मुद्दे पर अरविंद जी का समर्थन क्या प्रशांत भूषण के साथ है ? अगर नहीं है तो वो उनकी टीम में क्यों हैं? हाल ही में प्रशांत भूषण पर लगे भूमि घोटालों के विषय में उनका क्या सोचना है ? टीम के एक अन्य विश्वस्त चेहरे किरण बेदी की बात करें तो उन पर भी एनजीओ की आड़ में पैसे की हेर फेर के आरोप लगे हैं जिसका कोई संतोषजनक जवाब वो नहीं दे पाई थीं । ऐसे ही आरोप इनकी टीम के अन्य चेहरों पर भी हैं ।
ऐसे मातहतों को साथ में रखकर नैतिकता की बात करना शब्दों की लफ्फाजी के अलावा और क्या है ? अत: केजरीवालजी को अगली बार आरोप लगाने से पहले अपने खुद के बारे में सोचना चाहिये । अरविंद जी की राजनीति के लक्ष्य चाहे जो भी हों फिलहाल वो लक्ष्य से भटक गये हैं ।