ऐसे नहीं होगी वनों की रक्षा

इंदिरा गांधी ने वन और पर्यावरण रक्षा कानून बनाये थे, ताकि केंद्र सरकार इनकी रक्षा को कदम उठा सके। इसे लागू करने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रलय स्थापित किया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी के अनुयाइयों के नेतृत्व में पर्यावरण मंत्रलय का कार्य यह रह गया है कि वन रक्षा कानून को तोड़-मरोड़ कर कैसे बचे हुए वन को कंपनियों को बेच दिया जाये। इस कानून के अंतर्गत मंत्रलय ने एक सलाहकार समिति बनायी है। वन को काटने के प्रस्ताव इस समिति के सामने प्रस्तुत किये जाते हैं और सामान्यत: समिति की संस्तुति को सरकार लागू कर देती है। पूर्व में यह समिति निष्प्रभावी थी। मंत्रलय ने सलाहकार समिति में ऐसे अधिकारियों को नियुक्त कर दिया, जो मंत्रियों के इशारों पर वन काटने की स्वीकृति देते रहें। वन मंत्रलय के इस दुष्कृत्य को देख पर्यावरणविद् सुप्रीम कोर्ट गये। सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रलय के अधिकारों को समाप्त करके वन काटने की स्वीकृति स्वयं देना शुरू कर दिया। इस पर पर्यावरण मंत्रलय ने दो पर्यावरणविदों महेश रंगराजन और उल्हास कारंथ को सलाहकार समिति में स्वतंत्र सदस्य के रूप में नियुक्त किया। तत्पश्चात् समिति के कार्यो से संतुष्ट होकर सुप्रीम कोर्ट ने वन मंत्रलय को जंगल काटने की स्वीकृति देने का अधिकार बहाल कर दिया। हाल में रंगराजन और कारंथ का कार्यकाल समाप्त हो गया। इसके बाद वन मंत्रलय ने दो नये व्यक्तियों को ‘स्वतंत्र’ सदस्य के रूप में नियुक्त किया है। पहले हैं केपी न्याती। ये कांफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री से पिछले 20 वर्षो से संबद्घ रहे हैं। ये कंपनियों की तरफ से वन मंत्रलय में पैरवी करते रहे हैं। अतएव इन्हें किसी भी तरह से ‘स्वतंत्र’ नहीं कहा जा सकता है। दूसरे सदस्य हैं डॉ एनपी टोडरिया। आप हाइड्रोपावर कंपनियों के लिए कार्य करते रहे हैं। आप कंपनियों के लिए परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करते आये हैं। आपने संस्तुति दी थी कि परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव न्यून हैं। इनकी संस्तुतियों को पर्यावरण मंत्रलय ने स्वीकार किया। परंतु न्यायालय ने दो बार इनकी संस्तुतियों को खारिज किया। अब ये दोनों स्वतंत्र सदस्य के रूप में वनों की रक्षा करने के लिए सलाहकार समिति में नियुक्त हैं। वन रक्षा कानून का उद्देश्य है कि वन का उपयोग सोच समझ कर किया जाये। जंगल हमें अनेक सेवाएं उपलब्ध कराते हैं, जैसे-ऑक्सीजन, जैविक विविधता, लकड़ी, सौंदर्य, पर्यटन, घास और ईंधन, तेंदू पत्ता तथा वन्य जीवों का संरक्षण। दूसरी ओर वन काटने से भी हमें कई सुविधाएं मिलती हैं, जैसे- कोयला, खनिज, हाइवे, जल विद्युत, इत्यादि। अत: वन संरक्षण कानून में व्यवस्था है कि विशेष परिस्थितियों में जंगल को काटने की छूट दी जा सकती है, यदि जंगल को रखने की तुलना में जंगल काटने का लाभ बहुत अधिक हो। मुझे कई जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा दायर किये गये लाभ-हानि के चिट्ठे का अध्ययन करने का अवसर मिला।

विष्णुगाड पीपलकोटी परियोजना के चिट्ठे में बताया गया कि एक रुपये का निवेश करने पर 7.61 रुपये का लाभ होगा। यह गणना पूर्णतया फर्जी है। पहली गलती है कि भविष्य में होने वाले लाभ को डिस्काउंट नहीं किया गया है। दूसरी गलती है कि बिजली के मूल्य को शुद्घ लाभ बताया गया है। बैलेंसशीट में कुल बिक्री में से खर्च घटाने के बाद शुद्घ लाभ की गणना की जाती है। दुकानदार 10,000 रुपये की बिक्री करता है और खर्च 9,000 रुपये है तो शुद्घ लाभ 1000 रुपये होता है। शुद्घ लाभ कुल बिक्री में से लागत घटाने के बाद हासिल होता है। परंतु कंपनी ने कुल बिक्री को ही शुद्घ लाभ बताया है। तीसरी गलती है कि पर्यावरण की तमाम क्षति का मूल्यांकन नहीं किया गया है। कंपनी द्वारा दायर लाभ-हानि के चिट्ठे में ये शुद्घियां कर दी जायें, तो एक रुपये के निवेश से लाभ मात्र 13 पैसे रह जाता है। फिर भी कंपनी के लिए यह सौदा लाभकारी होता है, क्योंकि बिजली की बिक्री से कमाई कंपनी को होती है, जबकि दुष्प्रभाव आम आदमी पर पड़ते हैं। वन सुरक्षा कानून के अंतर्गत वन मंत्रलय ने एक सलाहकार समिति बनायी है, जो इन तथ्यों का अध्ययन करके जंगल काटने की संस्तुति देती है। लेकिन दुर्भाग्य है कि वन मंत्रलय को ऐसा निष्पक्ष अध्ययन मंजूर नहीं है, क्योंकि संपूर्ण सरकार आज कंपनियों के हित की चिंता पहले कर रही है। वन मंत्रलय की इन हरकतों से उसका उद्देश्य स्पष्ट होता है। उसकी रुचि देश की जनता, वन्य जीव और जंगलों के संरक्षण में नहीं है। इसीलिए वन की रक्षा करने का कार्य वन के दुश्मनों को सौंप दिया गया है।

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